भाई परमानन्द
4 नवम्बर, 1876 - 8 दिसम्बर, 1947
भाई परमानन्द अथवा 'पण्डित परमानन्द' भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान् क्रांतिकारी थे। वे बहुआयामी
व्यक्तित्व के धनी और एक महापुरुष थे। परमानन्द जी जहाँ आर्य
समाज और वैदिक
धर्म के सच्चे प्रचारक थे, वहीं दूसरी ओर एक इतिहासकार,
साहित्यकार और प्रसिद्ध शिक्षाविद के रूप में भी उन्होंने ख्याति
अर्जित की थी। भारत की स्वतंत्रता में मुख्य भूमिका निभाने वाले सरदार भगत सिंह, सुखदेव, रामप्रसाद बिस्मिल और करतार सिंह जैसे ना जाने कितने राष्ट्रभक्त युवकों ने
इनसे प्रेरणा पाई थी।
राष्ट्रीय विचारों के लिए विदेशी सरकार ने जिनके लिए मृत्युदंड
की घोषणा की और जो 'हिन्दू
महासभा' के
प्रमुख नेता बने थे, उन भाई परमानन्द का जन्म 4 नवम्बर 1876 ई. को पंजाब के झेलम ज़िले में हुआ था। उन्होंने
डी.ए.वी. कॉलेज और पंजाब विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा पूरी की थी। वे आरम्भ में
ही आर्य समाज के नेता लाला लाजपत राय और महात्मा
हंसराज के प्रभाव में आ गये थे। अत: डी.ए.वी. कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के
साथ ही वे आर्य समाज का प्रचार भी करते रहे। 1905 में वे दक्षिण अफ़्रीका गये और वहाँ समाज की शाखा स्थापित की।
दक्षिण
अफ़्रीका से वे इतिहास का अध्ययन पूरा करने के लिए लंदन गए और 1908 में भारत आकर डी.ए.वी. कॉलेज, लाहौर में फिर से अध्यापन करने लगे। उन्होंने बर्मा की और फिर दोबारा दक्षिण अफ़्रीका की
यात्रा की। इस बीच उन्होंने उर्दू में 'तवारिखे उर्दू'
नामक 'भारत के इतिहास' की
पुस्तक लिखी। इसे सरकार ने जब्त कर लिया। उनके घर की तलाशी हुई और तीन वर्ष तक अच्छा चाल-चलन रखने के लिए उनसे जमानत
देने को कहा गया। इस पर भाई परमानन्द ने भारत छोड़ दिया और ब्रिटेन, गायना और ट्रिनिडाड होते हुए कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका जा पहुँचे। वहाँ परमानन्द के बचपन के मित्र लाला हरदयाल ग़दर पार्टी का काम कर रहे थे।
भाई
परमानन्द द्वारा लिखी पुस्तक 'तवारीख-ए-हिन्द' तथा उनके लेख युवकों को सशस्त्र
क्रांति के लिए प्रेरित करते थे। 25 फ़रवरी, 1915 को
लाहौर में भाई परमानन्द को गिरफ़्तार कर लिया गया। उनके विरुद्ध अमरीका तथा इंग्लैंड में अंग्रेज़ी
सत्ता के विरुद्ध षड़यंत्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य
युवकों को क्रांति के लिए प्रेरित करने और आपत्तिजनक साहित्य की रचना करने जैसे
आरोप लगाकर फाँसी की सज़ा सुना दी गई। इसका समाचार मिलते ही सारे देश के लोग भड़क
उठे। इस स्थिति में सरकार ने भाई परमानन्द की फाँसी की सज़ा को रद्द कर दिया और
उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड देकर दिसम्बर, 1915 में अंडमान 'कालापानी' भेज दिया गया। 1920 में
सी.एफ़. एन्ड्रूज की मध्यस्थता से उन्हें रिहा कर दिया गया था।
अंडमान की काल कोठरी
में गीता के उपदेशों ने सदैव
परमानन्द को कर्मठ बनाए रखा। जेल में 'श्रीमद्भगवद गीता' सम्बंधी
लिखे गए अंशों के आधार पर उन्होंने बाद में 'मेरे अन्त समय
का आश्रय- गीता' नामक ग्रंथ की रचना की। गांधी जी को जब कालापानी में
परमानन्द को अमानवीय यातनाएँ दिए जाने का समाचार मिला तो उन्होंने 19 नवम्बर, 1919 के
'यंग इंडिया' में एक लेख लिखकर यातनाओं
की कठोर भर्त्सना की। 1920 में सी.एफ़. एन्ड्रूज की
मध्यस्थता से उन्हें रिहा कर दिया गया था।
जेल से बाहर आने पर वे 'नेशनल कॉलेज, लाहौर'
के कुलपति बने और कुछ समय तक असहयोग
आन्दोलन में भी भाग लिया। किन्तु आन्दोलन बन्द होने के बाद देश में जो
साम्प्रदायिक दंगे हुए, उन्हें देखकर भाई परमानन्द के विचार
बदल गए। उन्होंने कांग्रेस पर मुस्लिम परस्ती का आरोप लगाकर हिन्दुओं से 'हिन्दू
महासभा' के
झंडे के नीचे संगठित होने का आह्वान किया। हिन्दुओं का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए 1933 में वे इंग्लैंड गए और उसी वर्ष महासभा के अजमेर अधिवेशन की अध्यक्षता की।
भाई परमानन्द ने कई रचनाएँ भी की हैं। इनके द्वारा लिखित 'हिन्दू संगठन',
'भारत का इतिहास', 'दो लहरों की टक्कर',
'मेरे अंत समय का आश्रय- गीता', 'पंजाब का
इतिहास', 'वीर बन्दा वैरागी', 'मेरी
आपबीती',. 'हमारे राष्ट्र पुरुष' आदि साहित्य की कृतियाँ आज भी इस महान् विभूति की पावन
स्मृति को अमिट बनाये हुए हैं। इनके द्वारा रचित कृति 'भारत
का इतिहास' को ब्रिटिश
सरकार ने जब्त कर लिया था।
ब्रिटिश सरकार ने 3 जून, 1947 को एक घोषणा की कि भारत को दो भागों में विभाजित कर दिया जाएगा तथा
ब्रिटिश सरकार 15 अगस्त, 1947 को सत्ता हस्तान्तरित कर देगी। भाई जी ने
अपनी पूरी सामर्थ्य से इस स्थिति को टालने का प्रयास किया। मगर यह देश का
दुर्भाग्य ही रहा कि वे इस आत्मघाती स्थिति को रोक नहीं सके। भारत
विभाजन से भाई जी जैसे सच्चे राष्ट्रभक्त को इतना अधिक आघात पहुंचा कि वे अत्यधिक
अस्वस्थ हो गए। उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया तथा 8 दिसम्बर, 1947 को सदा-सदा के लिए अपनी आंखें बन्द कर लीं।