राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन
1 अगस्त,
1882 - 1 जुलाई, 1962
पुरुषोत्तम
दास टंडन आधुनिक भारत के प्रमुख स्वाधीनता सेनानियों में से एक थे। वे 'राजर्षि' के नाम
से भी विख्यात थे। उन्होंने अपना जीवन एक वकील के रूप में प्रारम्भ किया था।
हिन्दी को आगे बढ़ाने और इसे राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने के लिए पुरुषोत्तम दास
जी ने काफ़ी प्रयास किये थे। वे हिन्दी को देश की आज़ादी के पहले आज़ादी प्राप्त
करने का साधन मानते रहे और आज़ादी मिल जाने के बाद आज़ादी को बनाये रखने का। हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के प्रयाग में हुआ था। वे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता तो थे
ही, समर्पित राजनयिक, हिन्दी
के अनन्य सेवक, कर्मठ पत्रकार, तेजस्वी वक्ता और समाज सुधारक भी थे। हिन्दी को भारत की राजभाषा का स्थान दिलवाने के लिए उन्होंने
महत्त्वपूर्ण योगदान किया। 1950 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन्हें भारत के
राजनैतिक और सामाजिक जीवन में नयी चेतना, नयी लहर, नयी क्रान्ति पैदा करने वाला कर्मयोगी कहा गया। वे जन सामान्य में राजर्षि (संधि विच्छेदः राजा+ऋषि= राजर्षि अर्थात ऐसा
प्रशासक जो ऋषि के समान सत्कार्य में लगा हुआ हो।) के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ
विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। वे हिन्दी को देश
की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद
आजादी को बनाये रखने का। टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही
हुआ। 17 फ़रवरी 1951 को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ` के 17 वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में इस बात को
स्वीकार भी किया था।
पुरुषोत्तम
दास टंडन का जन्म 1 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर
विद्यालय में हुई। 1894 में उन्होंने इसी विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण
की। इसी वर्ष उनकी बड़ी बहन तुलसा देवी का स्वर्गवास हो गया। उस समय की रीति के
अनुसार 1897 में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका विवाह मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। 1899 कांग्रेस के स्वयं सेवक बने, १८९९ इण्टरमीडिएट की
परीक्षा उत्तीर्ण की और 1900 में वे एक कन्या के पिता बने। इसी बीच वे स्वतंत्रता
संग्राम में कूद पड़े। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश
लिया किंतु अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें 1901 में वहाँ से
निष्कासित कर दिया गया। 1903 में उनके पिता का निधन हो गया। इन सब कठिनाइयों को
पार करते हुए उन्होंने 1904 में बी०ए० कर लिया। 1905 से उनके राजनीतिक जीवन का
प्रारंभ हुआ। 1905 में उन्होंने बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार
के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया और गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग
लिया। 1906 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। इस बीच
उनका लेखन भी प्रारंभ हो चुका था और अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने
लगी थी। यही समय था जब उनकी प्रसिद्ध रचना बन्दर सभा
महाकाव्य 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित हुई। इन सब कामों के बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और
1906 में एल.एल.बी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वकालत प्रारंभ की। पढ़ाई जारी
रखते हुए उन्होंने 1907 में इतिहास में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए।
पुरुषोत्तम
दास टंडन अत्यंत मेधावी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः
तीन भागों में बँटा हुआ है- स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य और समाज।
भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम में टण्डन जी ने एक योद्धा की
भूमिका का निर्वाह किया। अपने विद्यार्थी जीवन में 1899 से ही काँग्रेस पार्टी के
सदस्य थे। 1906 में वे इलाहाबाद से भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गये। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकाँड का अध्ययन करने वाली काँग्रेस पार्टी की समिति से भी वे संबद्ध
थे। 1920 में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। गाँधी जी के आह्वान पर वे वकालत के अपने फलते-फूलते पेशे को छोड़कर इस संग्राम में कूद पड़े। सन् 1930 में सविनय
अवज्ञा आन्दोलन के सिलसिले में बस्ती में गिरफ्तार हुए और कारावास का दण्ड मिला।
1931 में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन से गांधी जी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार
किया गया था उनमें जवाहरलाल नेहरू के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे। 1934 में
उन्होंने बिहार की प्रादेशिक किसान सभा के
अध्यक्ष पद को सुशोभित किया और बिहार किसान आंदोलन के
साथ सहानुभूति रखते हुए उनके विकास के अनेक कार्य किये। उन्होंने 31 जुलाई 1937 से
10 अगस्त 1950 तक उत्तर प्रदेश की विधान सभा के प्रवक्ता के रूप में कार्य किया।
सन् 1937 में धारा सभाओं के चुनाव हुए। इन
चुनावों में से ग्यारह प्रान्तों में से सात में कांग्रेस को बहुमत मिला। उत्तर
प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को था।
श्री लाल बहादुर
शास्त्री लिखते हैं- सन् 1936-37 में नयी प्रान्तीय
धारा सभाओं के चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस ने पूरी
शक्ति से भाग लिया। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को जाता
है। उन्होंने सारे प्रदेश में दौरा किया वे स्वयं प्रयाग नगर से विधान सभा के लिए
खड़े हुए और निर्विरोध विजयी हुए। यह उनके अनुरूप ही था। कुछ समय बाद जब
मन्त्रिमण्डल बना, वह धारा सभा के सर्वसम्मत से अध्यक्ष
(स्पीकर) चुने गए।
टण्डन जी लगातार देश के स्वतंत्रता संग्राम में
रत रहे। इसी क्रम में 1940 में नजरबन्द कर लिए गए और एक वर्ष तक जेल में रहे।
अगस्त 1942 को इलाहाबाद में फिर गिरफ्तार हुए और 1944 में जेल से मुक्त हुए। यह
उनकी अन्तिम एवं सातवीं जेल यात्रा थी। उनके संघर्ष और त्याग को लक्षित करते हुए किशोरीदास
वाजपेयी जी ने लिखा है- "जब जब राष्ट्रीय
संघर्ष हुए, टण्डन जी सबसे आगे रहे। आप खाली बैठना तो
जानते ही नहीं।" 1942 में जब वे जेल से छूटे तो उन्हें दिखलाई पड़ा कि भारतीय
समाज में निराशा छायी हुई है, सभी हताश पड़े हुए हैं।
अत: उन्होंने 'कांग्रेस प्रतिनिधि असेम्बली' नामक संस्था की स्थापना कर पुन: नई चेतना का संचार किया और जब प्रान्तीय
कमेटियाँ बनी तब 'प्रतिनिधि असेम्बली' भंग कर दी गई। टण्डन जी इलाहाबाद नगरपालिका के
अध्यक्ष रहे और अनेक साहसी तथा ऐतिहासिक कार्य किये।
वे 1946 में भारत की संविधान सभा में भी चुने गए। 1952 में लोकसभा के तथा 1957 में राज्य सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इस प्रकार वे आजीवन
भारतीय राजनीति में सक्रिय रहकर उसे दिशा प्रदान करते रहे।
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन भारतीय राष्ट्रीय
आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त
करना उनका पहला साध्य था। हिन्दी को वे साधन मानते थे- "यदि हिन्दी भारतीय स्वतंत्रता के आड़े आयेगी
तो मैं स्वयं उसका गला घोंट दूँगा। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी
प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने
का।" यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी
प्रेम के कारण ही हुआ। टंडन जी ने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के
लेक्चरर के रूप में कार्य किया उस समय अटल बिहारी वाजपेई विक्टोरिया कॉलेज के
छात्र हुआ करते थे।17 फ़रवरी 1951 को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ' के 17 वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर
टण्डन जी ने कहा था- "हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे
हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान
व्रत बनाया।...... हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के
पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।"
अत: यह कहा जा सकता है कि टण्डन जी के साध्य स्वतंत्रता और हिन्दी दोनों ही थे।
राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिन्दी के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को बालकृष्ण भट्ट और मदन मोहन मालवीय जी ने प्रौढ़ता प्रदान करने की। 10 अक्टूवर 1910 को काशी में हिन्दी
साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन महामना मालवीय जी
की अध्यक्षता में हुआ और टण्डन जी सम्मेलन के मंत्री नियुक्त हुए। तदनन्तर हिन्दी
साहित्य सम्मेलन के माध्यम से हिन्दी की अत्यधिक
सेवा की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी
विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की। इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न
करता था। इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ। सम्मेलन के
इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम को
मान्यता मिली। वे जानते थे कि सम्पूर्ण भारत में हिन्दी के प्रसार के लिए अहिन्दी
भाषियों का सहयोग अपेक्षित है। शायद उनकी इसी सोच का परिणाम था सम्मेलन में गाँधी का लिया जाना। आगे चलकर 'हिन्दुस्तानी' के प्रश्न पर टण्डन जी और महात्मा गाँधी में मतभेद हुआ। टण्डन जी अपराजेय योद्धा थे। वे सत्य और न्याय के लिए किसी
से भी लोहा ले सकते थे। अपने सिद्धान्तों पर चट्टान की तरह अडिग एवं स्थिर रहते
थे। परिणामत: गाँधी जी को अपने को सम्मेलन से अलग करना पड़ा, टण्डन जी निरापद अपने मार्ग पर बढ़ते रहे।
सन् 1949 में जब संविधान सभा में राजभाषा सम्बंधी प्रश्न उठाया गया तो उस समय एक विचित्र स्थिति थी।
महात्मा गाँधी तो हिन्दुस्तानी के समर्थक थे ही, पं०
नेहरू और डॉ॰ राजेन्द्र
प्रसाद तथा अन्य अनेक नेता भी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, पर टण्डन जी हारे नहीं, झुके नहीं। परिणामत: विजय भी उनकी हुई। 11, 12, 13, 14 दिसम्बर 1949 को गरमागरम बहस के बाद
हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर कांग्रेस में मतदान हुआ, हिन्दी को 62 और हिन्दुस्तानी को 32 मत मिले। अन्तत: हिन्दी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई। हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्' को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान
चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे।
यहाँ यह उल्लेख कर देना भी अपेक्षित है कि टण्डन जी ने नागरी अंकों को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए भरसक कोशिश की इस हेतु उन्होंने उस संस्था को छोड़ा
जिसकी सेवा लगभग पाँच दशक तक की। संविधान-सभा में राजर्षि ने अंग्रेजी अंकों का विरोध
किया पर नेहरू जी की हिदायत के कारण कांग्रेसी सदस्य श्री कन्हैयालाल
माणिकलाल मुंशी, श्री गोपाल स्वामी आयंगर के
फार्मूले के पक्ष में रहे। टण्डन जी का विरोध प्रस्ताव गिर गया और नागरी अंक संविधान में मान्यता प्राप्त न कर सके।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्' को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान
चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे।
राजर्षि
के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन करते समय प्राय: उनके साहित्यकार रूप को अनदेखा
कर दिया जाता है। वह एक उच्चकोटि के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास
की खोज की जा सकती है। साहित्यकार के रूप में टण्डन जी निबंधकार, कवि और पत्रकार के
रूप में दिखलाई पड़ते हैं।
उनके निबंध हिन्दी भाषा और साहित्य, धर्म और संस्कृति तथा अन्य
विविध क्षेत्रों से सम्बंधित हैं।
· भाषा और साहित्य सम्बंधी निबंधों में- कविता, दर्शन और साहित्य, हिन्दी साहित्य का कानन, हिन्दी राष्ट्रभाषा
क्यों, मातृभाषा की महत्ता, भाषा
का सवाल, गौरवशाली हिन्दी, हिन्दी
की शक्ति, कवि और दार्शनिक आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
· धर्म और संस्कृति सम्बंधी निबंधों में- भारतीय संस्कृति और कुम्भमेला, भारतीय संस्कृति संदेश तथा
· अन्य निबंधों में लोककल्याणकारी राज्य, धन और
उसका उपयोग, स्वामी विवेकानन्द और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि
अति महत्वपूर्ण हैं।
काव्य रचनाओं में 'बन्दर सभा महाकाव्य', 'कुटीर का
पुष्प' और 'स्वतंत्रता' अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। इन कविताओं में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की
प्रमुखता है। उनकी रचनाओं में काव्यशास्त्र की बारीकी
ढूँढ़ना छिद्रान्वेषण करना ही होगा, किन्तु युगीन
यथार्थ की अभिव्यक्ति टण्डन जी ने जिस ढँग से की है, वह
निश्चय ही श्लाघनीय है-
एक एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर,
लड़ैं कटैं धन पृथ्वी छीनैं जीव सतावैं लेवैं
कर।
भई दशा भारत की कैसी चहूँ ओर विपदा फैली,
तिमिर आन घोर है छाया स्वारथ साधन की शैली ॥
अपनी अपनी चाल ढाल को सब कोऊ धर-धर छप्पर पर,
चले लुढ़कते बुरी प्रथा पर जिसका कहीं पैर नहिं
सिर।
धनी दीन को दुख अति देवैं, हमदर्दी का काम नहीं,
धन मदिरा गनिका में फूँकै करैं भला कुछ काम नहीं.
'बन्दर सभा महाकाव्य` में आल्हा शैली में
अंग्रेजों की नीतियों का भंडाफोड़ किया है। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति जो
चुटकियाँ ली हैं उनमें से एक-दो का आनन्द आप भी लीजिए-
कबहूँ आँख दाँत दिखलावैं, लें डराय बस काम निकाल।
कबहूँ नम होय सीख सुनावैं, रचैं बात कै जाल कराल ॥
ऐसे वैसे तो डर जावैं या फँस जावैं हमारे जाल।
जौने तनिक अकड़ने वाले तिनके लिए अनेकन चाल ॥
पत्रकारिता के क्षेत्र में टण्डन जी अंग्रेजी के भी उद्भट विद्वान थे। श्री त्रिभुवन नारायण सिंह जी ने उल्लेख किया है कि सन् 1950 में जब वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में लिखा
और अंग्रेजी अनुवाद मैंने किया। श्री सम्पूर्णानन्द जी ने भी उस अंग्रेजी अनुवाद को देखा, लेकिन जब
टण्डन जी ने उस अनुवाद को पढ़ा, तो उसमें कई पन्नों को
फिर से लिखा। तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कि जहाँ वे हिन्दी के प्रकाण्ड
विद्वान थे, वहीं अंग्रेजी साहित्य पर भी उनका बड़ा
अधिकार था।
पुरुषोत्तमदास टण्डन के बहु आयामी और
प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें 'राजर्षि` की उपाधि से विभूषित
किया गया। 15 अप्रैल सन् 1948 की संध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार
के साथ महन्त देवरहा बाबा ने आपको 'राजर्षि` की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों
ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्री शंकराचार्य महाराज ने इसे शास्त्रसम्मत माना और काशी की पंडित सभा ने १९४८ के
अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि वितरण समारोह में इसकी पुष्टि की। तब से
यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है।
भारतीय संस्कृति के परम
हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी
थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर भी अपने दो टूक
विचार व्यक्त किये। उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे
वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे। बालविवाह और विधवा विवाह के सम्बंध में
उनका मानना था कि "विधवा विवाह का प्रचार हमारी सभ्यता, हमारे साहित्य और हमारे समाज संगठन के मुख्य आधार पतिव्रत धर्म के प्रतिकूल हैं" उन्होंने स्पष्ट किया कि विधवा-विवाह की माँग
इसलिए जोर पकड़ रही है, क्योंकि हमारे समाज में बाल-विवाह की शास्त्र विरुद्ध प्रणाली चल पड़ी है और बाल विधवाओं का प्रश्न ही
भारतीय समाज की मुख्य समस्या है। अत: "बाल-विवाह की प्रथा को रोकना ही विधवा
विवाह करने की अपेक्षा अधिक महत्व का कर्तव्य सिद्ध होता है।"
उनके व्यक्तित्व के इस पहलू के एक-दो उदाहरण
पर्याप्त होंगे- प्राय: लोग समझते हैं कि पका हुआ भोजन सुपाच्य होता है, पर राजर्षि ने इसे एक
रूढ़ि माना और उन्होंने वर्षों तक आग से पके हुए भोजन को नहीं ग्रहण किया। चीनी खाना एक बार छोड़ दिया।
एक ओर उन्हें गाय के दूध से परहेज था तो दूसरी ओर चमड़े के जूते से। इस प्रकार वे एक अद्भुत
व्यक्तित्व के धारक थे।
भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही साम्प्रदायिकता की
समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही। कुछ नेता टण्डन जी पर भी सांप्रदायिक होने
का आरोप लगाते रहे हैं। यह सच है कि राजर्षि अपनी संस्कृति के परम भक्त और पोषक
थे। वे यह कहने में भी हिचक का अनुभव नहीं करते थे कि भारत में दो संस्कृतियों को
जीवित रखना देश के साथ विश्वासघात करना होगा, पर इसका
मतलब यह नहीं था कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे, मुसलिम
विरोधी थे। इस सम्बंध में कुलकुसुम के विचार कितने सार्थक हैं-
यदि किसी धर्म या संस्कृति में कोई व्यक्ति
विशेष आस्था रखता है, तो
उसके विरोधी प्राय: यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि वह आदमी अन्य धर्मों तथा
संस्कृतियों का शत्रु है। यही बात राजर्षि टण्डन के साथ हुई। उनके अनन्य हिन्दी
प्रेम, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की एकनिष्ठा, आस्था और साधुओं के से वेष-विन्यास को देखकर उनके विरोधियों ने जान बूझकर
या अनजाने ही यह प्रचार करने की भूल कर दी कि टण्डन जी मुसलमानों के शत्रु हैं।
स्वयं टण्डन जी ने भी लिखा है-
मेरे हिन्दी के काम के कारण लोगों ने मुझे
मुसलमान भाइयों का मुखालिफ समझ लिया। इन लोगों को यह नहीं मालूम कि बहुत से
मुसलमान मेरे कितने अच्छे दोस्त हैं। मेरे सामने यदि कोई मुसलमान के साथ अन्याय
करे, तो मैं उसके पक्ष में जान
की बाजी लगा दूँगा।
वास्तव में टण्डन जी का व्यक्तित्व मानववादी था।
उनके घर पर जो बालक उनका सहयोग करता था, वह मुसलमान था, पर कैसी
विडम्बना है कि लोग कहते हैं कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे।
राजर्षि टण्डन जी के व्यक्तित्व के अन्य अनेक
पहलू और भी हैं; जैसे वे गरीबों, पीड़ितों के सहायक थे, सही अर्थों में दीनबंधु
थे, करुणा की मूर्ति थे और बाबू जी कितने नैतिक आचरण के
व्यक्ति थे इसका अनुमान इस उदाहरण से लगाया जा सकता है-
"सन् १९५० का महाकुम्भ था। बहुआ (टण्डन जी की धर्मपत्नी, जिन्हें घर में इसी नाम से जाना जाता है) ने गंगा स्नान के लिए गाड़ी से
जाने की बात कही। बाबू जी ने उत्तर दिया कि गाड़ी 'स्पीकर` की है। तुम मेरे साथ तो जा सकती हो, किन्तु
अकेले नहीं।"
वर्ष 1961 में हिन्दी भाषा को देश में अग्रणी
स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक
पुरस्कार दिया गया। 23 अप्रैल,
1961 को उन्हें भारत सरकार द्वारा 'भारत रत्न' की
उपाधि से विभूषित किया गया।
राष्ट्रभाषा
हिन्दी के लिए समर्पित पुरुषोत्तम दास टंडन जी का निधन 1 जुलाई, 1962 को हुआ।
उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन के बाद यह कहा जा
सकता है कि राजर्षि का व्यक्तित्व बहुआयामी और राजर्षि के अनुरूप था। वे बहुमुखी
प्रतिभा के धनी थे। वे हिन्दी के अनन्य प्रेमी ही नहीं, बल्कि हिन्दी के पर्याय
थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका उल्लेख एक समर्थ कवि और निबंध लेखक के रूप
में होता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर संनानियों में उनकी गणना अग्रिम
पंक्ति के सेनानियों में की जाती है और उनका नाम भारतीय स्वंतंत्रता संग्राम के
इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। वे परम स्नेही, उदार और करुणा की मूर्ति होते हुए भी इस्पाती व्यक्तित्व के धारक थे।
हिमालय की तरह अचल और अटल। परम हिन्दी सेवी, राष्ट्र-भक्त
और भारतीय संस्कृति के इस उपासक को मेरा शत् शत् नमन।