संत शिरोमणि रविदास
संत कुलभूषण कवि संत
शिरोमणि रविदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के
माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान
किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव
पड़ता है। मधुर एवं सहज संत शिरोमणि रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी
एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है।
प्राचीनकाल
से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें
मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया
है। ऐसे सन्तों में शिरोमणि रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर के
गुरूभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे।
जीवन
गुरू
रविदास जी का जन्म काशी में चर्मकार (चमार) कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम संतो़ख
दास (रग्घु) और माता का नाम कलसा देवी बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की
संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका
पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम
से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।
उनकी
समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी
बहुत प्रसन्न रहते थे।
प्रारम्भ
से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव
बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें
प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके
माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को
अपने घर से अलग कर दिया। रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर
तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के
सत्संग में व्यतीत करते थे।
स्वभाव
उनके
जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता
है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास
के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता
किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे
आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा
रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो
काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे
कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत
प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा। अर्थात यदि हमारा मन शुद्ध है तो हमारे हृदय
में ही ईश्वर निवास करते है
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा
ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको
परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं
मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे।
उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि
सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया
है।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
उनका
विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना
तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ
व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल
दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
उनके
विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान
शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी
शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन
कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर
विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की
वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के
व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के
मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती
थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी
बन जाते थे।
उनकी
वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति
श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन
गयी थीं।
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि
खण्डन-निपन, बानि विमुल
रैदास की।।
आज भी
सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।
उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म
तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे
गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास
को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें
श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
दोहे
·
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास
मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
·
मन चंगा तो कठौती में गंगा ||
·
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन
पूजिए
चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन .
बेगमपुरा शहर से उनके संबंध
बिना किसी दुख के शांति और इंसानियत के साथ एक शहर के रुप में गुरु
रविदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को बसाया गया। अपनी कविताओं को लिखने के दौरान
रविदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को एक आदर्श के रुप में प्रस्तुत किया गया था जहाँ
पर उन्होंने बताया कि एक ऐसा शहर जो बिना किसी दुख, दर्द या डर
के और एक जमीन है जहाँ सभी लोग बिना किसी भेदभाव, गराबी और
जाति अपमान के रहते है। एक ऐसी जगह जहाँ कोई शुल्क नहीं देता,
कोई भय,
चिंता या
प्रताड़ना नहीं हो।
मीरा बाई से उनका जुड़ाव
संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में माना
जाता है जो कि राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी। वो संत रविदास
के अध्यापन से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी। अपने गुरु के
सम्मान में मीरा बाई ने कुछ पंक्तियाँ लिखी है-
“गुरु मिलीया रविदास जी-”।
वो अपने
माता-पिता की एक मात्र संतान थी जो बाद में चितौड़ की रानी बनी। मीरा बाई ने बचपन
में ही अपनी माँ को खो दिया जिसके बाद वो अपने दादा जी के संरक्षण में आ गयी जो कि
रविदास जी के अनुयायी थे। वो अपने दादा जी के साथ कई बार गुरु रविदास से मिली और
उनसे काफी प्रभावित हुयी। अपने विवाह के बाद, उन्हें और उनके पति को
गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त हुआ। बाद में मीराबाई ने अपने पति और ससुराल पक्ष के
लोगों की सहमति से गुरु जी को अपने वास्तविक गुरु के रुप में स्वीकार किया। इसके
बाद उन्होंने गुरु जी के सभी धर्मों के उपदेशों को सुनना शुरु कर दिया जिसने उनके
ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा और वो प्रभु भक्ति की ओर आकर्षित हो गयी। कृष्ण प्रेम में
डूबी मीराबाई भक्ति गीत गाने लगी और दैवीय शक्ति का गुणगान करने लगी।
अपने गीतों में वो कुछ इस तरह कहती थी -
“गुरु मिलीया रविदास जी दीनी
ज्ञान की गुटकी,
चोट लगी निजनाम हरी की महारे
हिवरे खटकी”।
दिनों-दिन वो ध्यान की ओर आकर्षित हो रही थी और वो अब संतों के साथ
रहने लगी थी। उनके पति की मृत्यु के बाद उनके देवर और ससुराल के लोग उन्हें देखने
आये लेकिन वो उन लोगों के सामने बिल्कुल भी व्यग्र और नरम नहीं पड़ी। बल्कि उन्हें
तो आधी रात को उन लोगों के द्वारा गंभीरी नदी में फेंक दिया गया था लेकिन गुरु
रविदास जी के आशीर्वाद से वो बच गयी।
एक बार अपने देवर के द्वारा दिये गये जहरीले दूध को गुरु जी द्वारा
अमृत मान कर पी गयी और खुद को धन्य समझा। उन्होंने
कहा कि:
“विष
को प्याला राना जी मिलाय द्यो
मेरथानी
ने पाये
कर
चरणामित् पी गयी रे,
गुण
गोविन्द गाये”।
संत रविदास के जीवन की कुछ महत्वपूर्णं घटनाएँ
एक बार गुरु जी के कुछ विद्यार्थी और अनुयायी ने पवित्र नदी गंगा
में स्नान के लिये पूछा तो उन्होंने ये कह कर मना किया कि उन्होंने पहले से ही
अपने एक ग्राहक को जूता देने का वादा कर दिया है तो अब वही उनकी प्राथमिक
जिम्मेदारी है। रविदास जी के एक विद्यार्थी ने उनसे दुबारा निवेदन किया तब
उन्होंने कहा उनका मानना है कि “मन
चंगा तो कठौती में गंगा” मतलब शरीर
को आत्मा से पवित्र होने की जरुरत है ना कि किसी पवित्र नदी में नहाने से,
अगर हमारी
आत्मा और ह्दय शुद्ध है तो हम पूरी तरह से पवित्र है चाहे हम घर में ही क्यों न
नहाये।
एक बार उन्होंने अपने एक ब्राहमण मित्र की रक्षा एक भूखे शेर से की
थी जिसके बाद वो दोनों गहरे साथी बन गये। हालाँकि दूसरे ब्राहमण लोग इस दोस्ती से
जलते थे सो उन्होंने इस बात की शिकायत राजा से कर दी। रविदास जी के उस ब्राहमण
मित्र को राजा ने अपने दरबार में बुलाया और भूखे शेर द्वारा मार डालने का हुक्म
दिया। शेर जल्दी से उस ब्राहमण लड़के को मारने के लिये आया लेकिन गुरु रविदास को
उस लड़के को बचाने के लिये खड़े देख शेर थोड़ा शांत हुआ। शेर वहाँ से चला गया और
गुरु रविदास अपने मित्र को अपने घर ले गये। इस बात से राजा और ब्राह्मण लोग बेहद
शर्मिंदा हुये और वो सभी गुरु रविदास के अनुयायी बन गये।
सामाजिक मुद्दों में गुरु रविदास की सहभागिता
वास्तविक धर्म को बचाने के लिये रविदास जी को ईश्वर द्वारा धरती पर
भेजा गया था क्योंकि उस समय सामाजिक और धार्मिक स्वरुप बेहद दु:खद था। क्योंकि
इंसानों द्वारा ही इंसानों के लिये ही रंग, जाति,
धर्म तथा
सामाजिक मान्यताओं का भेदभाव किया जा चुका था। वो बहुत ही बहादुरी के साथ सभी
भेदभाव को स्वीकार करते और लोगों को वास्तविक मान्यताओं और जाति के बारे में
बताते। वो लोगों को सिखाते कि कोई भी अपने जाति या धर्म के लिये नहीं जाना जाता,
इंसान अपने
कर्म से पहचाना जाता है। गुरु रविदास जी समाज में अस्पृश्यता के खिलाफ भी लड़े जो
उच्च जाति द्वारा निम्न जाति के लोगों के साथ किया जाता था।
उनके समय में निम्न जाति के लोगों की उपेक्षा होती थी,
वो समाज
में उच्च जाति के लोगों की तरह दिन में कहीं भी आ-जा नहीं सकते थे,
उनके बच्चे
स्कूलों में पढ़ नहीं सकते थे, मंदिरों
में नहीं जा सकते थे, उन्हें
पक्के मकान के बजाय सिर्फ झोपड़ियों में ही रहने की आजादी थी और भी ऐसे कई
प्रतिबंध थे जो बिल्कुल अनुचित थे। इस तरह की सामाजिक समयस्याओं को देखकर गुरु जी
ने निम्न जाति के लोगों की बुरी परिस्थिति को हमेशा के लिये दूर करने के लिये हर
एक को आध्यात्मिक संदेश देना शुरु कर दिया।
उन्होंने लोगों को संदेश दिया कि “ईश्वर
ने इंसान बनाया है ना कि इंसान ने ईश्वर बनाया है” अर्थात इस
धरती पर सभी को भगवान ने बनाया है और सभी के अधिकार समान है। इस सामाजिक परिस्थिति
के संदर्भ में, संत गुरु रविदास जी ने लोगों को
वैश्विक भाईचारा और सहिष्णुता का ज्ञान दिया। गुरुजी के अध्यापन से प्रभावित होकर
चितौड़ साम्राज्य के राजा और रानी उनके अनुयायी बन गये।
सिक्ख धर्म के लिये गुरु जी का योगदान
सिक्ख धर्मग्रंथ में उनके पद, भक्ति गीत,
और दूसरे
लेखन (41 पद) आदि दिये गये थे, गुरु ग्रंथ
साहिब जो कि पाँचवें सिक्ख गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गयी। सामान्यत: रविदास
जी के अध्यापन के अनुयायी को रविदासीया कहा जाता है और रविदासीया के समूह को
अध्यापन को रविदासीया पंथ कहा जाता है।
गुरु ग्रंथ
साहिब में उनके द्वारा लिखा गया 41 पवित्र लेख है जो इस प्रकार है; “रागा-सिरी(1), गौरी(5), असा(6), गुजारी(1), सोरथ(7), धनसरी(3), जैतसारी(1), सुही(3), बिलावल(2), गौंड(2), रामकली(1), मारु(2), केदारा(1), भाईरऊ(1), बसंत(1), और मलहार(3)”।
ईश्वर के द्वारा उनकी महानता की जाँच की गयी थी
वो अपने समय के महान संत थे और एक आम व्यक्ति की तरह जीवन को जीने
की वरीयता देते है। कई बड़े राजा-रानियों और दूसरे समृद्ध लोग उनके बड़े अनुयायी
थे लेकिन वो किसी से भी किसी प्रकार का धन या उपहार नहीं स्वीकारते थे। एक दिन
भगवान के द्वारा उनके अंदर एक आम इंसान के लालच को परखा गया,
एक
दर्शनशास्त्री गुरु रविदास जी के पास एक पत्थर ले कर आये और उसके बारे में
आश्चर्यजनक बात बतायी कि ये किसी भी लोहे को सोने में बदल सकता सकता है। उस
दर्शनशास्त्री ने गुरु रविदास को उस पत्थर को लेने के लिये दबाव दिया और साधारण
झोपड़े की जगह बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने को कहा। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर
दिया।
उस दर्शनशास्त्री ने फिर से उस पत्थर को रखने के लिये गुरुजी पर
दबाव डाला और कहा कि मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा साथ ही इसको अपनी झोपड़ी के
किसी खास जगह पर रखने को कहा। गुरु जी ने उसकी ये बात मान ली। वो दर्शनशास्त्री कई
वर्षों बाद लौटा तो पाया कि वो पत्थर उसी तरह रखा हुआ है। गुरुजी के इस अटलता और
धन के प्रति इस विकर्षणता से वो बहुत खुश हुए। उन्होंने वो कीमती पत्थर लिया और
वहाँ से गायब हो गये। गुरु रविदास ने हमेशा अपने अनुयायीयों को सिखाया कि कभी धन
के लिये लालची मत बनो, धन कभी
स्थायी नहीं होता, इसके बजाय
आजीविका के लिये कड़ी मेहनत करो।
एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी
नरेश के द्वारा उनके दरबार में कुछ ब्राह्मणों की शिकायत पर बुलाया गया था,
तो ये ही
वो व्यक्ति थे जिन्होंने सभी गैरजरुरी धार्मिक संस्कारों को हटाने के द्वारा पूजा
की प्रकिया को आसान बना दिया। संत रविदास को राजा के दरबार में प्रस्तुत किया गया
जहाँ गुरुजी और पंडित पुजारी से फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को
गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया।
राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो
वो सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा। दोनों गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे
और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे। ब्राह्मण ने हल्के भार वाली सूती
कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लायी थी वहीं संत रविदास ने 40
कि.ग्रा की
चाकोर आकार की मूर्ती ले आयी थी। राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस
कार्यक्रम को देखने के लिये बहुत बड़ी भीड़ उमड़ी थी।
पहला मौका ब्राह्मण पुजारी को दिया गया,
पुजारी जी
ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ती को गंगा जी ने प्रवाहित किया लेकिन वो
गहरे पानी में डूब गयी। उसी तरह दूसरा मौका संत रविदास का आया,
गुरु जी ने
मूर्ती को अपने कंधों पर लिया और शिष्टता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी
की सतह पर तैरने लगा। इस प्रकिया के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि ब्राह्मण
झूठा पुजारी था और गुरु रविदास सच्चे भक्त थे।
दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग उनके पाँव
को स्पर्श करने लगे। तब से, काशी नरेश
और दूसरे लोग जो कि गुरु जी के खिलाफ थे, अब उनका
सम्मान और अनुसरण करने लगे। उस खास खुशी के और विजयी पल को दरबार की दिवारों पर
भविष्य के लिये सुनहरे अक्षरों से लिख दिया गया।
संत रविदास को कुष्ठरोग को ठीक करने के लिये प्राकृतिक शक्ति मिली हुई थी
समाज में
उनकी महान प्राकृतिक शक्तियों से भरी गज़ब की क्रिया के बाद ईश्वर के प्रति उनकी
सच्चाई से प्रभावित होकर हर जाति और धर्म के लोगों पर उनका प्रभाव पड़ा और सभी
गुरु जी के मजबूत विद्यार्थी, अनुयायी और भक्त बन गये। बहुत साल पहले उन्होंने अपने
अनुयायीयों को उपदेश दिया था और तब एक धनी सेठ भी वहाँ पहुँचा मनुष्य के जन्म के
महत्व के ऊपर धार्मिक उपदेश को सुनने के लिये।
धार्मिक
उपदेश के अंत में गुरु जी ने सभी को प्रसाद के रुप में अपने मिट्टी के बर्तन से
पवित्र पानी दिया। लोगों ने उसको ग्रहण किया और पीना शुरु किया हालाँकि धनी सेठ ने
उस पानी को गंदा समझ कर अपने पीछे फेंक दिया जो बराबर रुप से उसके पैरों और जमींन
पर गिर गया। वो अपने घर गया और उस कपड़े को कुष्ठ रोग से पीड़ित एक गरीब आदमी को
दे दिया। उस कपड़े को पहनते ही उस आदमी के पूरे शरीर को आराम महसूस होने लगा जबकि उसके
जख्म जल्दी भरने लगे और वो जल्दी ठीक हो गया।
हालाँकि
धनी सेठ को कुष्ठ रोग हो गया जो कि महँगे उपचार और अनुभवी और योग्य वैद्य द्वारा
भी ठीक नहीं हो सका। उसकी स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती चली गयी तब उसे अपनी गलतियों
का एहसास हुआ और वो गुरु जी के पास माफी माँगने के लिये गया और जख्मों को ठीक करने
के लिये गुरु जी से वो पवित्र जल प्राप्त किया। चूँकि गुरु जी बेहद दयालु थे
इसलिये उसको माफ करने के साथ ही ठीक होने का ढ़ेर सारा आशीर्वाद भी दिया। अंतत: वो
धनी सेठ और उसका पूरा परिवार संत रविदास का भक्त हो गया।
संत रविदास का सकारात्मक नज़रिया
उनके समय में शुद्रों (अस्पृश्य) को ब्राह्मणों की तरह जनेऊ,
माथे पर
तिलक और दूसरे धार्मिक संस्कारों की आजादी नहीं थी। संत रविदास एक महान व्यक्ति थे
जो समाज में अस्पृश्यों के बराबरी के अधिकार के लिये उन सभी निषेधों के खिलाफ थे
जो उन पर रोक लगाती थी। उन्होंने वो सभी क्रियाएँ जैसे जनेऊ धारण करना,
धोती पहनना,
तिलक लगाना
आदि निम्न जाति के लोगों के साथ शुरु किया जो उन पर प्रतिबंधित था।
ब्राह्मण लोग उनकी इस बात से नाराज थे और समाज में अस्पृश्यों के
लिये ऐसे कार्यों को जाँचने का प्रयास किया। हालाँकि गुरु रविदास जी ने हर बुरी
परिस्थिति का बहादुरी के साथ सामना किया और बेहद विनम्रता से लोगों का जवाब दिया।
अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें
राजा के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को
भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की
तरह खून का रंग लाल और पवित्र आत्मा होती है
संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग
जैसे सतयुग, त्रेतायुग,
द्वापर और
कलयुग की तरह सोना, चाँदी,
ताँबा और
सूती के चार जनेऊ खींच दिया। राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और गुरु जी के
सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे। राजा को अपने बचपने जैसे व्यवहार पर बहुत
शर्मिंदगी महसूस हुयी और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी। गुरु जी ने सभी माफ करते
हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है।
इस कार्य में वो केवल इसलिये शामिल हुए ताकि वो लोगों को वास्तविकता और सच्चाई बता
सके। गुरु जी ने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और
तिलक का इस्तेमाल नहीं किया।
कुंभ उत्सव पर एक कार्यक्रम
एक बार पंडित गंगा राम गुरु जी से मिले और उनका सम्मान किया। वो
हरिद्वार में कुंभ उत्सव में जा रहे थे गुरु जी ने उनसे कहा कि ये सिक्का आप गंगा
माता को दे दीजीयेगा अगर वो इसे आपके हाथों से स्वीकार करें। पंजित जी ने बड़ी
सहजता से इसे ले लिया और वहाँ से हरिद्वार चले गये। वो वहाँ पर नहाये और वापस अपने
घर लौटने लगे बिना गुरु जी का सिक्का गंगा माता को दिये।
वो अपने रास्ते में थोड़ा कमजोर होकर बैठ गये और महसूस किया कि वो
कुछ भूल रहे हैं, वो दुबारा
से नदी के किनारे वापस गये और जोर से चिल्लाए माता, गंगा माँ
पानी से बाहर निकली और उनके अपने हाथ से सिक्के को स्वीकार किया। माँ गंगा ने संत
रविदास के लिये सोने के कँगन भेजे। पंडित गंगा राम घर वापस आये वो कँगन गुरु जी के
बजाय अपनी पत्नी को दे दिया।
एक दिन पंडित जी की पत्नी उस कँगन को बाजार में बेचने के लिये गयी।
सोनार चालाक था, सो उसने कँगन को राजा और राजा ने रानी
को दिखाने का फैसला किया। रानी ने उस कँगन को बहुत पसंद किया और एक और लाने को
कहा। राजा ने घोषणा की कि कोई इस तरह के कँगन नहीं लेगा,
पंडित अपने
किये पर बहुत शर्मिंदा था क्योंकि उसने गुरुजी को धोखा दिया था। वो रविदास जी से
मिला और माफी के लिये निवेदन किया। गुरु जी ने उससे कहा कि “मन
चंगा तो कठौती में गंगा” ये लो
दूसरे कँगन जो पानी से भरे जल में मिट्टी के बर्तन में गंगा के रुप में यहाँ बह
रही है। गुरु जी की इस दैवीय शक्ति को देखकर वो गुरु जी का भक्त बन गया।
उनके पिता के मौत के समय की घटना
रविदास की पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने पड़ोसियों से विनती
की कि वो गंगा नदी के किनारे अंतिम रिवाज़ में मदद करें। हालाँकि ब्राह्मण रिती के
संदर्भ में खिलाफ थे कि वो गंगा के जल से स्नान करेंगे जो रस्म की जगह से मुख्य
शहर की ओर जाता है और वो प्रदूषित हो जायेगा। गुरु जी बहुत दुखी और मजबूर हो गये
हालाँकि उन्होंने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया और अपने पिता की आत्मा की शांति के
लिये प्रार्थना करने लगे। अचानक से वातावरण में एक भयानक तूफान आया और नदी का पानी
उल्टी दिशा में बहना प्रारंभ हो गया और जल की एक गहरी तरंग आयी और लाश को अपने साथ
ले गयी। इस भवंडर ने आसपास की सभी चीजों को सोख लिया। तब से,
गंगा का
पानी उल्टी दिशा में बह रहा है।
कैसे बाबर प्रभावित हुए रविदास
के अध्यापन से
इतिहास के अनुसार बाबर मुगल साम्राज्य का पहला राजा था जो 1526
में पानीपत
का युद्ध जीतने के बाद दिल्ली के सिहांसन पर बैठा जहाँ उसने भगवान के भरोसे के
लिये लाखों लोगों को कुर्बान कर दिया। वो पहले से ही संत रविदास की दैवीय शक्तियों
से परिचित था और फैसला किया कि एक दिन वो हुमायुँ के साथ गुरु जी से मिलेगा। वो
वहाँ गया और गुरु जी को सम्मान देने के लिये उनके पैर छूए हालाँकि;
आशीर्वाद
के बजाय उसे गुरु जी से सजा मिली क्योंकि उसने लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएँ की
थी। गुरु जी ने उसे गहराई से समझाया जिसने बाबर को बहुत प्रभावित किया और इसके बाद
वो भी संत रविदास का अनुयायी बन गया तथा दिल्ली और आगरा के गरीबों की सेवा के
द्वारा समाज सेवा करने लगा।
संत रविदास की
मृत्यु
समाज में बराबरी, सभी भगवान
एक है, इंसानियत, उनकी
अच्छाई और बहुत से कारणों की वजह से बदलते समय के साथ संत रविदास के अनुयायीयों की
संख्या बढ़ती ही जा रही थी। दूसरी तरफ, कुछ
ब्राह्मण और पीरन दित्ता मिरासी गुरु जी को मारने की योजना बना रहे थे इस वजह से
उन लोगों ने गाँव से दूर एक एकांत जगह पर मिलने का समय तय किया। किसी विषय पर
चर्चा के लिये उन लोगों ने गुरु जी को वहाँ पर बुलाया जहाँ उन्होंने गुरु जी की
हत्या की साजिश रची थी हालाँकि गुरु जी को अपनी दैवीय शक्ति की वजह से पहले से ही
सब कुछ पता चल गया था
जैसे ही चर्चा शुरु हुई, गुरु जी
उन्ही के एक साथी भल्ला नाथ के रुप में दिखायी दिये जो कि गलती से तब मारा गया था।
बाद में जब गुरु जी ने अपने झोपड़े में शंखनाद किया, तो सभी
हत्यारे गुरु जी को जिंदा देख भौंचक्के रह गये तब वो हत्या की जगह पर गये जहाँ पर
उन्होंने संत रविदास की जगह अपने ही साथी भल्ला नाथ की लाश पायी। उन सभी को अपने
कृत्य पर पछतावा हुआ और वो लोग गुरु जी से माफी माँगने उनके झोपड़े में गये।
हालाँकि, उनके कुछ
भक्तों का मानना है कि गुरु जी की मृत्यु प्राकृतिक रुप से 120
या 126
साल में हो
गयी थी। कुछ का मानना है उनका निधन वाराणसी में 1540 एडी में
हुआ था।
गुरु रविदास जी के
लिये स्मारक
वाराणसी में श्री गुरु रविदास
पार्क
वाराणसी
में श्री गुरु रविदास पार्क है जो नगवा में उनके यादगार के रुप में बनाया गया है
जो उनके नाम पर “गुरु रविदास स्मारक और पार्क” बना है
गुरु रविदास घाट
वाराणसी
में पार्क से बिल्कुल सटा हुआ उनके नाम पर गंगा नदी के किनारे लागू करने के लिये
गुरु रविदास घाट भी भारतीय सरकार द्वारा प्रस्तावित है
संत रविदास नगर
ज्ञानपुर
जिले के निकट संत रविदास नगर है जो कि पहले भदोही नाम से था अब उसका नाम भी संत
रविदास नगर है।
श्री गुरु रविदास जन्म स्थान
मंदिर वाराणसी
इनके
सम्मान में सीर गोवर्धनपुर, वाराणसी
में श्री गुरु रविदास जन्म स्थान मंदिर स्थित है, जो इनके सम्मान में बनाया गया है
पूरी दुनिया में इनके अनुयायीयों द्वारा चलाया जाता है जो अब प्रधान धार्मिक
कार्यालय के रुप में है।
श्री गुरु रविदास स्मारक गेट
वाराणसी के
लंका चौराहे पर एक बड़ा गेट है जो इनके सम्मान में बनाया गया है।
इनके नाम
पर देश के साथ ही विदेशों मे भी स्मारक बनाये गये है।
महान संत गुरु रविदास के जीवन से शिक्षा
भले ही महान संत गुरु रविदास जी आज हमारे समाज के बीच
नही है लेकिन उनके द्वारा बताये गये उपदेश और भक्ति की भावना हमे समाज कल्याण का
मार्ग दिखाते है महान संत गुरु रविदास ने अपने जीवन के व्यवहारों से यह प्रमाणित
कर दिया था की इन्सान चाहे किसी भी कुल या जाति में जन्म ले ले लेकिन वह अपने जाति
और जन्म के आधार पर कभी भी महान नही बनता है जब इन्सान दुसरो के प्रति श्रद्धा और
भक्ति का भाव रखते हुए लोगो के प्रति अपना जीवन न्योछावर कर दे वही इन्सान सच्चे
अर्थो में महान होता है
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