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Friday, May 21, 2021

21 मई : अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस, वाराणसी से


चाय दुनिया के लगभग सभी देशों में रहने वाले खास से लेकर आम लोगों के दैनिक जीवन की अहम हिस्सा है। भले ही इसकी शुरुआत ईसा से 2737 साल पहले चीन से हुई हो मगर जब बनारस के संदर्भ में इसका जिक्र होता है तो यह अड़ीबाजी का अहम जरिया, पॉवर हाउस मानी जाती है। विश्व चाय दिवस 21 मई के मौके पर बनारस में चाय की यात्रा का चित्रण लाजमी है।

अंग्रेजों के शासनकाल तक चाय आम भारतीयों के जीवन का हिस्सा नहीं रही लेकिन आजादी के बाद जैसे चाय को पंख लग गए। शहर बनारस की गलियों से लेकर सभी प्रमुख चौराहों तक चाय की दुकानों की लंबी फेहरिश्त है। चाय की कुछ दुकानें तो अड़ीबाजों के लिए सोने में सुहागा बन गईं। किसी जमाने में गोदौलिया का दी रेस्टूरेंट, जो अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है, चाय के शौकीनों की सबसे पसंदीदा जगह हुआ करती थी। गुजरते वक्त के साथ चाय की कई अड़ियां शहर में मशहूर हो गईं। अस्सी पर पप्पू और पोई की चाय दुकान से बढ़ कर सोनारपुरा में बाबा, गिरजाघर पर फिरंगी से होते हुए चौक पर लक्ष्मी की दुकान अड़ीबाजों का स्थायी ठिकाना बनती गई।

सोनारपुरा में बाबा की चाय दुकान पर अड़ी लगाने वाले सांस्कृतिक समीक्षक पं. अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं कि इन अड़ियों पर साहित्यिक चर्चा ही नहीं होती बल्कि जबरदस्त राजनीतिक बतकुच्चन भी होता है। चाय की प्यालियों से कई बड़े तूफान भी निकले। मसलन हिंदी आंदोलन, जेपी मूवमेंट, विश्वनाथ मंदिर सोना चोरी कांड से लेकर दीपा मेहता की फिल्म वाटर के विरोध में बड़ा जनांदोलन इन्हीं चाय की अड़ियों की देन रहा। बदलते वक्त के साथ चाय की अड़ियों का अंदाज भी बदलता गया। आज के दौर में पप्पू और पोई की चाय की दुकान बुजुर्ग अड़ीबाजों तो चितरंजन पार्क पर राजा की दुकान युवा अड़ीबाजों की मनपसंद जगह है। विदेशी चाय प्रेमियों के लिए पांडेय घाट स्थित पकालू टी स्टाल कौतूहल का विषय है जहां 35 प्रकार की चाय पर्यटकों को पेश की जाती है।

साभार

Tuesday, May 18, 2021

उत्तर प्रदेश : कोविशील्ड की दूसरी डोज का शेड्यूल बदला

 


कोरोना टीकाकरण के तहत कोविशील्ड वैक्सीन लगवाने वालों के लिए दूसरी डोज लगवाने की नई तारीख का कार्यक्रम जारी कर दिया गया है।

एक अप्रैल या इसके बाद कोविशील्ड वैक्सीन लगवाने वालों के लिए अब नई तारीख 12 सप्ताह बाद की दी गई है। अभी तक यह तारीख छह सप्ताह बाद की थी।

पहले से सूचना न होने की वजह से सोमवार को अपनी दूसरी डोज लेने पहुंचे लोगों को काफी समस्या हुई। उनको बताया गया कि अब उनको 84 दिन के हिसाब से ही आना है।

टीकाकरण केंद्र पर पहुंचे लाभार्थियों ने हेल्पलाइन व कोविड कमांड सेंटर पर फोन करके भी इस बारे में जानकारी मांगी वहां से भी नए शेड्यूल के हिसाब से आने को कहा गया।

उनको बताया गया कि यह बदलाव पोर्टल में पहले ही किया जा चुका है। इसलिए वे कुछ नहीं कर सकते। दूसरी डोज के लिए अब लंबा इंतजार करना होगा।

स्वास्थ्य विभाग ने अचानक वैक्सीनेशन के शेड्यूल में बदलाव कर दिया। इसे लेकर दिन भर बहस चली कि बगैर की पूर्व सूचना के टीकाकरण कार्यक्रम में बदलाव क्यों किया गया।

 

इसके बाद देर शाम स्वास्थ्य विभाग ने नया कार्यक्रम जारी कर दिया। जिन लोगों ने 1 अप्रैल को कोविशील्ड की पहली डोज ली है उन्हें दूसरी खुराक के लिए 24 जून तक इंतजार करना होगा।

इसी प्रकार 1 मई वाले 24 जुलाई को दूसरी डोज लगवा सकेंगे। अगली सभी तारीख पर पहली डोज लेने वालों की तारीखें क्रमबद्ध तरीके से आगे बढ़ती रहेंगी।

यह परिवर्तन केवल कोविशील्ड वैक्सीन के लिए किया गया है। जबकि कोवाक्सिन पूर्व की भांति लगाई जाती रहेगी।

जानिए कब लगी और कब लगेगी

पहली डोज दूसरी डोज

1 अप्रैल 24 जून

2 अप्रैल 25 जून

3 अप्रैल 26 जून

4 अप्रैल 27 जून

5 अप्रैल 28 जून

6 अप्रैल 29 जून

7 अप्रैल 30 जून

8 अप्रैल 1 जुलाई

9 अप्रैल 2 जुलाई

10 अप्रैल 3 जुलाई

11 अप्रैल 4 जुलाई

12 अप्रैल 5 जुलाई

13 अप्रैल 6 जुलाई

14 अप्रैल 7 जुलाई

15 अप्रैल 8 जुलाई

16 अप्रैल 9 जुलाई

17 अप्रैल 10 जुलाई

18 अप्रैल 11 जुलाई

19 अप्रैल 12 जुलाई

20 अप्रैल 13 जुलाई

21 अप्रैल 14 जुलाई

22 अप्रैल 15 जुलाई

23 अप्रैल 16 जुलाई

24 अप्रैल 17 जुलाई

25 अप्रैल 28 जुलाई

26 अप्रैल 19 जुलाई

27 अप्रैल 20 जुलाई

28 अप्रैल 21 जुलाई

29 अप्रैल 22 जुलाई

30 अप्रैल 23 जुलाई

1 मई 24 जुलाई

2 मई 25 जुलाई

3 मई 26 जुलाई

4 मई 27 जुलाई

5 मई 28 जुलाई

6 मई 29 जुलाई

7 मई 30 जुलाई

8 मई 31 जुलाई

9 मई 1 अगस्त

10 मई 2 अगस्त

11 मई 3 अगस्त

12 मई 4 अगस्त

13 मई 5 अगस्त

14 मई 6 अगस्त

15 मई 7 अगस्त

16 मई 8 अगस्त

17 मई 9 अगस्त

18 मई 10 अगस्त

19 मई 11 अगस्त

20 मई 12 अगस्त

21 मई 13 अगस्त

22 मई 14 अगस्त

23 मई 15 अगस्त

24 मई 16 अगस्त

25 मई 17 अगस्त

26 मई 18 अगस्त

27 मई 19 अगस्त

28 मई 20 अगस्त

29 मई 21 अगस्त

30 मई 22 अगस्त

31 मई 23 अगस्त

स्लॉट बुक होने के बावजूद वैक्सीन न लगने पर हंगामा

राजेंद्र नगर यूएचसी पर स्लॉट मिलने के बावजूद टीका नहीं लगने पर सोमवार को लोगों ने हंगामा किया। हंगामा बढ़ने पर पुलिस को व्यवस्था संभालनी पड़ी। अस्पताल प्रशासन का कहना था कि वैक्सीन खत्म हो गई है। वहीं लोगों का कहना था कि वैक्सीन के हिसाब से ही स्लॉट मिलता है। वैक्सीन खत्म होने की बात कहना गलत है। इसके बाद अस्पताल प्रशासन ने लोगों को मंगलवार के लिए पर्ची लिखकर दी तब जाकर मामला शांत हुआ।

15637 लोगों ने टीका लगवाया

सोमवार को टीकाकरण के प्रतिशत में बढ़ोतरी दर्ज की गई। एक दिन में 15637 लोगों ने टीका लगवाया। वैक्सीनेशन में युवाओं का उत्साह सबसे अधिक रहा। 45 साल से कम उम्र की श्रेणी में 9748 लोगों ने टीका लगवाया। सोमवार को टीकाकरण केन्द्रों पर कुछ गहमा गहमी भी रही। वैक्सीन की दूसरी डोज लगवाने आए 45 साल से ऊपर के लोगों को बताया गया कि नियमों में बदलाव कर दिया गया है। जिन लोगों को 6 से 8 सप्ताह के बाद वैक्सीन की दूसरी खुराक लगनी थी वह अब 12-16 सप्ताह बाद लगेगी। इससे लोग काफी नाराज हुए कर्मियों से भिड़ गए। मामला अफसरों तक पहुंचा तो उन्होंने बताया कि यह पोर्टल से किया गया है। केवल कोवाक्सिन लगवाने वालों को ही दूसरी डोज दी गई।



साभार 

Saturday, May 16, 2020

दुनिया भर में बदलेगा अब स्कूली शिक्षा का स्वरूप


शिक्षा की दुनिया में इसे चमत्कार ही कहा जाएगा। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय वर्षों से कहते आ रहे थे कि ऑनलाइन पढ़ाई उनके लिए सही नहीं है। मगर कोविड-19 की वजह से स्कूलों ने अपने रुख में तेजी से बदलाव किया है। जिस ऑनलाइन तकनीक को लेकर वे असहज दिख रहे थे, महज एक पखवाडे़ में वह अचानक उन्हें स्वीकार्य हो गई, बल्कि अनिवार्य भी। शिक्षा के क्षेत्र में किसी बदलाव या सुधारों की वकालत करना हमेशा से काफी कठिन रहा है। जैसे, औद्योगिक क्रांति के दौरान उभरी असेंबली लाइन टीचिंग’ (इसमें सार्वजनिक शिक्षा का लक्ष्य उद्योगों के अनुकूल बच्चों को तैयार करना है) का खूब मजाक उड़ाया गया। उस वक्त गाने तक लिखे गए कि कैसे यह स्कूली पढ़ाई सॉसेज फैक्टरी की तरह है,  जिसमें हरेक छात्र इस दीवार की एक ईंट है। मगर वह दीवार अपनी जगह कायम रही,  बल्कि आज तक टिकी हुई है। दरअसल, स्कूलों को जल्द ही एहसास हो गया कि यह उथल-पुथल उनके रुतबे को खत्म कर सकती है। स्कूली और उच्च शिक्षा दशकों से संघर्ष कर रही थीं। नतीजतन, संस्थाओं ने नई व्यवस्था में खुद को ढाल लिया। उन्होंने ऐसा उचित ही किया। छात्रों को जितनी उनकी जरूरत थी, उससे कहीं ज्यादा उन्हें छात्रों की जरूरत थी। बेशक संस्थान सर्टिफिकेट देकर छात्रों को प्रमाणित कर रहे थे, लेकिन वास्तव में, छात्रों ने दाखिला लेकर संस्थानों को मान्यता दी थी।
आज हम वैसी ही उथल-पुथल के शुरुआती महीनों में हैं। दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के छात्र शिक्षा के उद्देश्य पर पहले से ही सवाल उठा रहे हैं। वे फीस में राहत की मांग भी कर रहे हैं। शिक्षण संस्थानों में उनकी निरंतरता को बनाए रखने के लिए शिक्षकों ने उन्हें काम के बोझ से लाद दिया है, अभी ऑनलाइन हो जाने से फीस को लेकर भी दुविधा बनी हुई है। जब तक कोरोना का शारीरिक खतरा बना रहेगा, माता-पिता शायद ही अपने बच्चों को स्कूल भेजना पसंद करेंगे। स्कूल इससे कतई नहीं बच सकते। अभी तो हमने सिर्फ ऑफलाइन की कक्षाओं व सामग्रियों को ऑनलाइन माध्यम पर उपलब्ध कराया है। जल्द ही हम इसमें दक्ष हो जाएंगे, और इसे हर बच्चे तक पहुंचा सकेंगे। दुनिया भर के बेहतरीन शिक्षकों के ऑनलाइन पाठ्यक्रम छात्रों को मुहैया कराए जाएंगे, या उन्हें आभासी या वास्तविक दुनिया के अध्ययन समूहों द्वारा मार्गदर्शन कराया जाएगा। मांग आधारित यह व्यवस्था पुराने तरीके से बेहतर हो सकती है। इसमें किसी को स्कूल आने की जरूरत नहीं होगी। शिक्षक भी ट्यूशन या अन्य शिक्षण केंद्रों द्वारा अपना जादू दिखा सकते हैं। सर्टिफिकेट देने के भार से भी स्कूलों को आजाद किया जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र पिछले कुछ समय से ऐसा कर भी रहा है, स्कॉलैस्टिक असेसमेंट टेस्ट (सेट) स्कूल पर निर्भर नहीं है। छात्र किसी भी बोर्ड, राजकीय और  राष्ट्रीय परीक्षा में शामिल हो सकते हैं। हमें परीक्षा के लिए स्कूलों की दरकार ही नहीं होगी। प्रशासनिक व्यवस्था के लिहाज से ही शायद स्कूलों और विश्वविद्यालयों की जरूरत पड़े।
यह सही है कि सामुदायिक व भावनात्मक अध्ययन समुदाय व समूह में पठन-पाठन से संभव होता है। मगर इसके लिए भी किसी खास स्कूली संरचना की जरूरत नहीं है। हां, सिर्फ खेल के लिए स्थानीय सुविधाओं की दरकार होती है। हालांकि कोई छात्र स्कूल में टेस्ट देने या निबंध लिखने की तुलना में किसी वैश्विक प्रतियोगिता में कहीं बेहतर अपनी भागीदारी निभा सकता है। सवाल यह है कि अगर आज स्कूल इन सबमें फिट नहीं बैठ रहा, तो उसे अपने अस्तित्व को लेकर खुद से यह पूछना ही चाहिए कि उसका असली उद्देश्य आखिर क्या है?
चूंकि अन्य तमाम क्षेत्रों में पहले से ही उथल-पुथल मची हुई है, इसलिए शिक्षा भी शायद ही अपवाद साबित हो। जिस तरह से प्राचीन शिक्षण संस्थान खत्म हो गए, वैसा ही फिर से हो सकता है। स्कूल और कॉलेजों की मौजूदा भूमिका खत्म हो सकती है, और छात्र अपने लक्ष्य के अनुरूप शिक्षा अपेक्षाकृत आसानी से हासिल कर सकते हैं। कई छात्रों के लिए स्कूल अत्यधिक सख्त थे, जो उनकी जीवन-यात्रा को ही बाधित कर देते थे।   लिहाजा आज हमारा काम इस मूल सवाल का जवाब तलाशना भी है कि स्कूलों का वास्तविक उद्देश्य क्या है? और वह उद्देश्य किस तरह पूरा हो?

Wednesday, April 29, 2020

घर में बंद छोटे बच्चों की पढ़ाई और स्ट्रेस मैनेजमेंट के 5 यूनिसेफ टिप्स



कोरोना वायरस लॉकडाउन की स्थिति में हर कोई घर में कैद है। बच्चों के स्कूल कई दिनों से बंद हैं। लॉकडाउन होने के चलते वह न तो दोस्तों संग बाहर खेलने जा सकते हैं और न ही आप उन्हें कहीं घूमाने के लिए लेकर जा सकते हैं। इस स्थिति में घर में बच्चों को संभालना एक चुनौती हो गया है क्योंकि वह घर में बोर होने लगते हैं। पेरेंट्स की इस मुश्किल को हल करने के लिए यूनिसेफ ने कुछ टिप्स सुझाए हैं। यूनिसेफ बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा आदि के लिए कार्य करती है। 
यूनिसेफ ने अपने ट्विटर हैंडल @UNICEF पर एक वीडियो शेयर किया है जिसमें यूनिसेफ के ग्लोबल चीफ ऑफ एजुकेशन रॉबर्ट जेन्किन्स बता रहे हैं कि कोरोना वायरस महामारी के चलते अधिकांश जगहों पर लॉकडाउन हैं। पेरेंट्स घर पर रहकर अपने ऑफिस का काम भी कर रहे हैं और बच्चों को पढ़ा भी रहे हैं। ऐसे में उनके लिए चैलेंजेज़ बढ़ गए हैं।
रॉबर्ट जेन्किन्स ने पेरेंट्स की मुश्किल को आसान बनाने के लिए ये 5 टिप्स सुझाए हैं- 
1.
बच्चों के साथ मिलकर रूटीन बनाएं- 
बच्चों के साथ मिलकर एक ऐसा रूटीन बनाएं जिसमें उनकी पढ़ाई-लिखाई, सीखने, खेलने, मनोरंजन की चीजें सब शामिल हों। 
2. अपना भी समय लीजिए
शॉर्ट लर्निंग सेशन से शुरुआत करें। धीरे धीरे उन्हें बढ़ाएं। अगर आप बच्चे की 30 से 40 मिनट की क्लास लेना चाहते हैं तो 10 मिनट की क्लास से शुरुआत करें। सेशन के दौरान ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरह की पढ़ाई करें। 
3. बच्चों के साथ खुलकर बातचीत करें
बच्चों को प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करें। उनकी भावनाओं को समझें। ध्यान रखें कि दबाव की स्थिति में बच्चों की प्रतिक्रिया कुछ अलग हो सकती है। इसलिए उन्हें समझें और सहनशील बन रहें। बच्चों से किसी मुद्दे पर बात करें और जानें उन्हें उसके बारे में कितना पता है। और फिर उसकी जानकारी को बढ़ाएं। उन्हें बताएं कि हाथ कैसे धोने चाहिए और यह कितना जरूरी है। यह भी बताएं कि हाथों को चेहरे पर न लगाएं।
4. ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर बच्चों की सुरक्षा
इंटरनेट से बच्चों को काफी ज्ञान मिलता है। उन्हें काफी सीखने को मिलता है। लेकिन पेरेंट्स को सुरक्षा के लिहाज से ध्यान रखना चाहिए कि उसका गलत इस्तेमाल न हों। सायबर सिक्योरिटी बेहद जरूरी है। पेरेंट्स कुछ वेबसाइट ब्लॉक कर सकते हैं। बच्चों के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। इसपर नियंत्रण रखें। 
5. अपने बच्चों के स्कूल के संपर्क में रहें
स्कूल की टीचरों से बात करते रहें। गाइडेंस लेते रहें। होम स्कूलिंग में पेरेंट्स ग्रुप भी काफी मददगार होते हैं इसलिए अन्य बच्चों के पेरेंट्स से लगातार बातचीत करते रहें।

Monday, March 23, 2020

भगत सिंह की शहादत पर पेरियार और आंबेडकर ने क्या कहा था



भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत के समय उस दौर के दो प्रसिद्ध बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट पेरियार और डॉ. आंबेडकर ने अपनी पत्रिकाओं में क्या लिखा, इसे जानना इनकी विचार प्रक्रिया को समझने में मददगार साबित होगा.
साढ़े तेईस वर्ष की उम्र में 23 मार्च 1931 को भगत सिंह ( 28 सितम्बर 1907 – 23 मार्च 1931) को ब्रिटिश सरकार ने फांसी पर चढ़ा दिया. उनके साथ सुखदेव और राजगुरु को भी फांसी दी गई. ई वी रामासामी ‘पेरियार’ और डॉ. आंबेडकर ने अपने-अपने समाचार पत्रों में इस फांसी पर अपनी राय रखी.
भगत सिंह की फांसी के 6 छठें दिन 29 मार्च 1931 को पेरियार ने अपने समाचार-पत्र कुदी अरासुमें इस विषय पर भगत सिंहशीर्षक से संपादकीय लेख लिखा. डॉ. आंबेडकर ने अपने अखबार जनता में 13 अप्रैल 1931 को इन तीन युवाओं की शहादत पर तीन बलिदानशीर्षक से संपादकीय लेख लिखा. पेरियार की पत्रिका तमिल भाषा में निकलती थी. जबकि जनताडॉ. आंबेडकर के संपादन में निकलने वाला एक मराठी पाक्षिक पत्र था.

पेरियार का भगत सिंह के प्रति सम्मान

ये दोनों संपादकीय इस तथ्य की गवाही देते हैं कि देश एवं समाज के लिए जीने और मरने वाले भगत सिंह जैसे लोगों के प्रति पेरियार और आंबेडकर के मनोभाव क्या थे. सबसे पहले पेरियार के संपादकीय को लेते हैं. संपादकीय की पहली ही पंक्ति इन शब्दों से शुरू होती है- शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने भगत सिंह को दी गई फांसी की सजा पर दुख व्यक्त न किया हो. न ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जिसने उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचाने के लिए सरकार की निंदा न की हो.’ (कुदी आरसु, 1931)
अपना दुख प्रकट करने के बाद पेरियार भगत सिंह की फांसी के संदर्भ में गांधी और ब्रिटिश शासन के बीच खुले और गुप्त संवाद की चर्चा करते हुए, इस पूरे संदर्भ में भारतीय जनता की प्रतिक्रिया का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि कैसे जनता का एक हिस्सा इस फांसी के लिए गांधी को भी जिम्मेदार मानते हुए उनके खिलाफ नारे लगा रहा है. फिर वे भगत सिंह के व्यक्तित्व की महानता और अपने उद्देश्यों के प्रति उनके समर्पण की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि हम दावे के साथ कह सकते हैं कि वे ईमानदार शख्सियत थे. हम जोर देकर, पूरे विश्वास के साथ कहना चाहेंगे कि भारत को भगत सिंह के आदर्शों की ही आवश्यकता है. जहां तक हम जानते हैं, वे समधर्म (बहुआयामी समानता) और साम्यवाद के आदर्श में विश्वास रखते थे.
इसके बाद पेरियार भगत सिंह का एक चर्चित उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, जिसके माध्यम से वे बताते हैं कि भगत सिंह का आदर्श सबके लिए समता और साम्यवाद के आदर्श की स्थापना था. वे भगत सिहं को कोट करते हैं- हमारी लड़ाई उस समय तक जारी रहेगी, जब तक साम्यवादी दल सत्ता में नहीं आ जाते और लोगों के जीवन-स्तर और समाज में जो असमानता है, वह पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती. यह लड़ाई हमारी मौत के साथ समाप्त होने वाली नहीं है. यह प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से लगातार चलती रहेगी.
इसके बाद पेरियार विस्तार से धर्म, ईश्वर, असमानता, गरीबी और अछूत समस्या पर भगत सिंह के विचारों की चर्चा करते हुए उनके पक्ष में खड़े होते हैं. वे उनके द्वारा समता और साम्यवाद हासिल करने के तरीके से पूरी तरह सहमत न होते हुए भी उनके आदर्शों की प्रशंसा करते हैं. संपादकीय के अंत में वे भगत सिंह के व्यक्तित्व का इन खूबसूरत शब्दों में चित्रांकन करते हैं- भगत सिंह ने उत्कृष्ट, असाधारण और गौरवशाली मौत अपने लिए चुनी थी, जिसे साधारण इंसान आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता. इसलिए हम हाथ उठाकर, अपने सभी शब्द-सामर्थ्य के साथ और मन की गहराइयों से उनकी प्रशंसा करते हैं.

भगत सिंह के बारे में डॉ. आंबेडकर के विचार

अपने पाक्षिक अखबार जनता में 13 अप्रैल 1931 को लिखे संपादकीय में डॉ. आंबेडकर भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को बलिदान के रूप में रेखांकित करते हैं और अपने संपादकीय को तीन बलिदानशीर्षक देते हैं. पूरी संपादकीय का निष्कर्ष है ये तीनों व्यक्तित्व ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति के शिकार बने. इसी कारण से वे कहते हैं कि यह न्याय नहीं था, बल्कि न्याय हुआ.
वे लिखते हैं- गर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है या न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती हैऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी है, क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्याय देवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी को भी यकीन नहीं है. खुद सरकार भी इस समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है. फिर बाकियों को भी इसी न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है? न्याय देवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कन्जर्वेटिव/राजनीतिक रूढिवादी/पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ दुनिया भी जानती है.

भगत सिंह के साहस को नमन

संपादकीय की शुरूआत में डॉ. आंबेडकर उन आरोपों का जिक्र करते हैं, जिनके तहत इन तीन लोगों को फांसी दी गई. फिर वे इन तीनों की बहादुरी की चर्चा करते हुए कहते हैं, फांसी की जगह गोली से उड़ा देने की भगत सिंह की अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं की गई. वे लिखते हैं- हमारी जान बख्श देंऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी. हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए, ऐसी इच्छा भगत सिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं. मगर उनकी इस आखिरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया.
इस संपादकीय में विस्तार से डॉ. आंबेडकर भगत सिंह की फांसी के संदर्भ में भारत और ब्रिटेन में हुई खुली और गुप्त राजनीति की चर्चा करते हैं और इसमें गांधी और उस समय के वायसराय लार्ड इर्विन की भूमिकाओं पर बात करते हैं. डॉ. आंबेडकर की राय में गांधी और इर्विन भगत सिंह की फांसी को आजीवन कारावास में बदलने के हिमायती थे. इर्विन से गांधी जी ने ये वादा भी लिया था. लेकिन ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति और ब्रिटेन की जनता को खुश करने लिए इन तीनों को फांसी दी गई. वे अपनी संपादकीय के अंत में लिखते हैं- लुब्बोलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इर्विन समझौते का क्या होगा, इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढ़िवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगत सिंह आदि की बलि चढ़ायी गई. यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए.
ई वी रामासामी पेरियारऔर डॉ. आंबेडकर के भगत सिंह की फांसी पर संपादकीय उनकी गहरी संवेदनशीलता और व्यापक मनुष्यता को समेटने वाली वैचारिकता का उत्कृष्ट नमूना है.

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