शिक्षा की
दुनिया में इसे चमत्कार ही कहा जाएगा। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय वर्षों से कहते आ
रहे थे कि ऑनलाइन पढ़ाई उनके लिए सही नहीं है। मगर कोविड-19 की वजह से स्कूलों
ने अपने रुख में तेजी से बदलाव किया है। जिस ऑनलाइन तकनीक को लेकर वे असहज दिख रहे
थे, महज एक पखवाडे़ में
वह अचानक उन्हें स्वीकार्य हो गई, बल्कि अनिवार्य भी। शिक्षा के क्षेत्र में किसी बदलाव या
सुधारों की वकालत करना हमेशा से काफी कठिन रहा है। जैसे, औद्योगिक क्रांति के
दौरान उभरी ‘असेंबली लाइन टीचिंग’ (इसमें सार्वजनिक शिक्षा का लक्ष्य उद्योगों
के अनुकूल बच्चों को तैयार करना है) का खूब मजाक उड़ाया गया। उस वक्त गाने तक लिखे
गए कि कैसे यह स्कूली पढ़ाई सॉसेज फैक्टरी की तरह है, जिसमें हरेक छात्र
इस दीवार की एक ईंट है। मगर वह दीवार अपनी जगह कायम रही, बल्कि आज तक
टिकी हुई है। दरअसल, स्कूलों को जल्द ही एहसास हो गया कि यह उथल-पुथल उनके रुतबे को
खत्म कर सकती है। स्कूली और उच्च शिक्षा दशकों से संघर्ष कर रही थीं। नतीजतन, संस्थाओं ने नई
व्यवस्था में खुद को ढाल लिया। उन्होंने ऐसा उचित ही किया। छात्रों को जितनी उनकी
जरूरत थी, उससे कहीं ज्यादा
उन्हें छात्रों की जरूरत थी। बेशक संस्थान सर्टिफिकेट देकर छात्रों को प्रमाणित कर
रहे थे, लेकिन वास्तव में, छात्रों ने दाखिला
लेकर संस्थानों को मान्यता दी थी।
आज हम वैसी ही उथल-पुथल के शुरुआती महीनों में हैं। दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के छात्र शिक्षा के उद्देश्य पर पहले से ही सवाल उठा रहे हैं। वे फीस में राहत की मांग भी कर रहे हैं। शिक्षण संस्थानों में उनकी निरंतरता को बनाए रखने के लिए शिक्षकों ने उन्हें काम के बोझ से लाद दिया है, अभी ऑनलाइन हो जाने से फीस को लेकर भी दुविधा बनी हुई है। जब तक कोरोना का शारीरिक खतरा बना रहेगा, माता-पिता शायद ही अपने बच्चों को स्कूल भेजना पसंद करेंगे। स्कूल इससे कतई नहीं बच सकते। अभी तो हमने सिर्फ ऑफलाइन की कक्षाओं व सामग्रियों को ऑनलाइन माध्यम पर उपलब्ध कराया है। जल्द ही हम इसमें दक्ष हो जाएंगे, और इसे हर बच्चे तक पहुंचा सकेंगे। दुनिया भर के बेहतरीन शिक्षकों के ऑनलाइन पाठ्यक्रम छात्रों को मुहैया कराए जाएंगे, या उन्हें आभासी या वास्तविक दुनिया के अध्ययन समूहों द्वारा मार्गदर्शन कराया जाएगा। मांग आधारित यह व्यवस्था पुराने तरीके से बेहतर हो सकती है। इसमें किसी को स्कूल आने की जरूरत नहीं होगी। शिक्षक भी ट्यूशन या अन्य शिक्षण केंद्रों द्वारा अपना जादू दिखा सकते हैं। सर्टिफिकेट देने के भार से भी स्कूलों को आजाद किया जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र पिछले कुछ समय से ऐसा कर भी रहा है, स्कॉलैस्टिक असेसमेंट टेस्ट (सेट) स्कूल पर निर्भर नहीं है। छात्र किसी भी बोर्ड, राजकीय और राष्ट्रीय परीक्षा में शामिल हो सकते हैं। हमें परीक्षा के लिए स्कूलों की दरकार ही नहीं होगी। प्रशासनिक व्यवस्था के लिहाज से ही शायद स्कूलों और विश्वविद्यालयों की जरूरत पड़े।
यह सही है कि सामुदायिक व भावनात्मक अध्ययन समुदाय व समूह में पठन-पाठन से संभव होता है। मगर इसके लिए भी किसी खास स्कूली संरचना की जरूरत नहीं है। हां, सिर्फ खेल के लिए स्थानीय सुविधाओं की दरकार होती है। हालांकि कोई छात्र स्कूल में टेस्ट देने या निबंध लिखने की तुलना में किसी वैश्विक प्रतियोगिता में कहीं बेहतर अपनी भागीदारी निभा सकता है। सवाल यह है कि अगर आज स्कूल इन सबमें फिट नहीं बैठ रहा, तो उसे अपने अस्तित्व को लेकर खुद से यह पूछना ही चाहिए कि उसका असली उद्देश्य आखिर क्या है?
चूंकि अन्य तमाम क्षेत्रों में पहले से ही उथल-पुथल मची हुई है, इसलिए शिक्षा भी शायद ही अपवाद साबित हो। जिस तरह से प्राचीन शिक्षण संस्थान खत्म हो गए, वैसा ही फिर से हो सकता है। स्कूल और कॉलेजों की मौजूदा भूमिका खत्म हो सकती है, और छात्र अपने लक्ष्य के अनुरूप शिक्षा अपेक्षाकृत आसानी से हासिल कर सकते हैं। कई छात्रों के लिए स्कूल अत्यधिक सख्त थे, जो उनकी जीवन-यात्रा को ही बाधित कर देते थे। लिहाजा आज हमारा काम इस मूल सवाल का जवाब तलाशना भी है कि स्कूलों का वास्तविक उद्देश्य क्या है? और वह उद्देश्य किस तरह पूरा हो?
आज हम वैसी ही उथल-पुथल के शुरुआती महीनों में हैं। दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के छात्र शिक्षा के उद्देश्य पर पहले से ही सवाल उठा रहे हैं। वे फीस में राहत की मांग भी कर रहे हैं। शिक्षण संस्थानों में उनकी निरंतरता को बनाए रखने के लिए शिक्षकों ने उन्हें काम के बोझ से लाद दिया है, अभी ऑनलाइन हो जाने से फीस को लेकर भी दुविधा बनी हुई है। जब तक कोरोना का शारीरिक खतरा बना रहेगा, माता-पिता शायद ही अपने बच्चों को स्कूल भेजना पसंद करेंगे। स्कूल इससे कतई नहीं बच सकते। अभी तो हमने सिर्फ ऑफलाइन की कक्षाओं व सामग्रियों को ऑनलाइन माध्यम पर उपलब्ध कराया है। जल्द ही हम इसमें दक्ष हो जाएंगे, और इसे हर बच्चे तक पहुंचा सकेंगे। दुनिया भर के बेहतरीन शिक्षकों के ऑनलाइन पाठ्यक्रम छात्रों को मुहैया कराए जाएंगे, या उन्हें आभासी या वास्तविक दुनिया के अध्ययन समूहों द्वारा मार्गदर्शन कराया जाएगा। मांग आधारित यह व्यवस्था पुराने तरीके से बेहतर हो सकती है। इसमें किसी को स्कूल आने की जरूरत नहीं होगी। शिक्षक भी ट्यूशन या अन्य शिक्षण केंद्रों द्वारा अपना जादू दिखा सकते हैं। सर्टिफिकेट देने के भार से भी स्कूलों को आजाद किया जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र पिछले कुछ समय से ऐसा कर भी रहा है, स्कॉलैस्टिक असेसमेंट टेस्ट (सेट) स्कूल पर निर्भर नहीं है। छात्र किसी भी बोर्ड, राजकीय और राष्ट्रीय परीक्षा में शामिल हो सकते हैं। हमें परीक्षा के लिए स्कूलों की दरकार ही नहीं होगी। प्रशासनिक व्यवस्था के लिहाज से ही शायद स्कूलों और विश्वविद्यालयों की जरूरत पड़े।
यह सही है कि सामुदायिक व भावनात्मक अध्ययन समुदाय व समूह में पठन-पाठन से संभव होता है। मगर इसके लिए भी किसी खास स्कूली संरचना की जरूरत नहीं है। हां, सिर्फ खेल के लिए स्थानीय सुविधाओं की दरकार होती है। हालांकि कोई छात्र स्कूल में टेस्ट देने या निबंध लिखने की तुलना में किसी वैश्विक प्रतियोगिता में कहीं बेहतर अपनी भागीदारी निभा सकता है। सवाल यह है कि अगर आज स्कूल इन सबमें फिट नहीं बैठ रहा, तो उसे अपने अस्तित्व को लेकर खुद से यह पूछना ही चाहिए कि उसका असली उद्देश्य आखिर क्या है?
चूंकि अन्य तमाम क्षेत्रों में पहले से ही उथल-पुथल मची हुई है, इसलिए शिक्षा भी शायद ही अपवाद साबित हो। जिस तरह से प्राचीन शिक्षण संस्थान खत्म हो गए, वैसा ही फिर से हो सकता है। स्कूल और कॉलेजों की मौजूदा भूमिका खत्म हो सकती है, और छात्र अपने लक्ष्य के अनुरूप शिक्षा अपेक्षाकृत आसानी से हासिल कर सकते हैं। कई छात्रों के लिए स्कूल अत्यधिक सख्त थे, जो उनकी जीवन-यात्रा को ही बाधित कर देते थे। लिहाजा आज हमारा काम इस मूल सवाल का जवाब तलाशना भी है कि स्कूलों का वास्तविक उद्देश्य क्या है? और वह उद्देश्य किस तरह पूरा हो?