Saturday, June 26, 2021

Swami Sahajanand Saraswati


स्वामी सहजानन्द सरस्वती

22 फ़रवरी, 1889 - 26 जून, 1950

स्वामी सहजानन्द सरस्वती भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। स्वामी जी भारत में 'किसान आन्दोलन' के जनक थे। वे आदि शंकराचार्य सम्प्रदाय के 'दसनामी संन्यासी' अखाड़े के दण्डी संन्यासी थे। वे एक बुद्धिजीवी, लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी, इतिहासकार एवं किसान-नेता थे।
युगद्रष्टा और जननायक का जन्म उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले के देवा गांव में महाशिवरात्रि के दिन सन् 1889 . में हुआ था। स्वामीजी के बचपन का नाम नौरंग राय था। उनके पिता बेनी राय सामान्य किसान थे। बचपन में हीं माँ का साया उठ गया। लालन-पालन चाची ने किया। जलालाबाद के मदरसे में आरंभिक शिक्षा हुई। मेधावी नौरंग राय ने मिडिल परीक्षा में पूरे उत्तर प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त किया। सरकार ने छात्रवृत्ति दी। पढ़ाई के दौरान ही उनका मन अध्यात्म में रमने लगा। घरवालों ने बच्चे की स्थिति भांप कर शादी करा दी। संयोग ऐसा रहा कि पत्नी एक साल बाद ही चल बसीं। परिजनों ने दूसरी शादी की बात निकाली तो वे भाग कर काशी चले गये। काशी प्रवास वहाँ शंकराचार्य की परंपरा के स्वामी अच्युतानन्द से दीक्षा लेकर संन्यासी बन गये। बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थों के भ्रमण और गुरु की खोज में बिताया। 1909 में पुनः काशी पहुंचकर दंडी स्वामी अद्वैतानन्द से दीक्षा ग्रहणकर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने। इसी दौरान उन्हें काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ। दरअसल काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके सन्न्यास पर सवाल उठा दिया। उनका कहना था कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है। स्वामी सहजानंद ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ कर ये प्रमाणित किया कि भूमिहार भी ब्राह्मण ही हैं और हर योग्य व्यक्ति सन्न्यास ग्रहण करने की पात्रता रखता है। काफ़ी शोध के बाद उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण परिचय नामक ग्रंथ लिखा जो आगे चलकर ब्रह्मर्षि वंश विस्तर के नाम से सामने आया। इसके ज़रिये उन्होंने अपनी धारणा को सैद्धांतिक जामा पहनाया। सन्न्यास के तदुपरांत उन्होंने काशी और दरभंगा में कई वर्षो तक संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय और मीमांसा का गहन अध्ययन किया। साथ-साथ देश की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के अध्ययन भी करते रहे। स्वामी सहजानंद के समग्र जीवन पर नजर डालें तो मोटे तौर पर उसे तीन खंडों में बांटा जा सकता है। पहला खंड है जब वे सन्न्यास धारण करते हैं, काशी में रहते हुए धार्मिक कुरीतियों और बाह्यडम्बरों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलते हैं। निज जाति गौरव को प्रतिष्ठापित करने के लिए भूमिहार ब्राह्मण महासभा के आयोजनों में शामिल होते हैं। उनका ये क्रम सन् 1909 से लेकर 1920 तक चलता है। इस दौरान काशी के अलावा उनका कार्यक्षेत्र बक्सर ज़िले का डुमरी, सिमरी और ग़ाज़ीपुर का विश्वम्भरपुर गांव रहता है। काशी से उन्होंने भूमिहार ब्राह्मण नामक पत्र भी निकाला।
किसान आन्दोलन महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेज़ी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में किसान आंदोलन शुरू करने का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को ही जाता है। एक ऐसा दंडी संन्यासी जिसे भगवान का दर्शन भूखे, अधनंगे किसानों की झोपड़ी में होता है, जो परंपारनुपोषित सन्न्यास धर्म का पालन करने की बजाय युगधर्म की पुकार सुन भारत माता को ग़ुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़ता है, लेकिन अन्न उत्पादकों की दशा देख अंग्रेज़ी सत्ता के भूरे दलालों अर्थात देसी ज़मींदारों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष का सूत्रपात करता है। एक ऐसा संन्यासी, जिसने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया।
स्वामीजी के जीवन का दूसरा अध्याय तब शुरू होता है, जब 5 दिसम्बर 1920 को पटना में कांग्रेस नेता मौलाना मजहरुल हक के आवास पर महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात होती है। गांधीजी के अनुरोध पर वे कांग्रेस में शामिल होते हैं। साल के भीतर हीं वे ग़ाज़ीपुर ज़िला कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गये और कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में शामिल हुए। अगले साल उनकी गिरफ्तारी और एक साल की कैद हुई। जेल से रिहा होने के बाद बक्सर के सिमरी और आसपास के गांवों में बड़े पैमाने पर चरखे से खादी वस्त्र का उत्पादन कराया। ब्राह्मणों की एकता और संस्कृत शिक्षा के प्रचार पर उनका ज़ोर रहा। सिमरी में रहते हुए सनातन धर्म के जन्म से मरण तक के संस्कारों पर आधारित 'कर्मकलाप' नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की हिन्दी में रचना की। काशी से कर्मकलाप का प्रकाशन किया। किसान संगठन महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन जब बिहार में गति पकड़ा तो सहजानंद उसके केन्द्र में थे। घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ लोगों को खड़ा किया। इसी दौरान स्वामी जी को लगा कि बिहार के गांवों में ग़रीब लोग अंग्रेज़ों से नहीं वरन् गोरी सत्ता के इन भूरे दलालों से आतंकित हैं। किसानों की हालत ग़ुलामों से भी बदतर है। युवा संन्यासी का मन एक बार फिर से नये संघर्ष की ओर उन्मुख हुआ। वे किसानों को लामबंद करने की मुहिम में जुट गये। 17 नवंबर, 1928 को सोनपुर में उन्हें बिहार प्रांतीय किसान सभा का अध्यक्ष चुना गया। इस मंच से उन्होंने किसानों की कारुणिक स्थिति को उठाया। एक साथ जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और ज़मीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की। अप्रैल, 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में 'अखिल भारतीय किसान सभा' की स्थापना हुई और स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया। स्वामी सहजानंद ने नारा दिया था- "जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो क़ानून बनायेगा ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वहीं चलायेगा।" कारावास के दौरान कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्त कराने का अभियान जारी रखा। उनकी बढ़ती सक्रियता से घबड़ाकर अंग्रेज़ों ने उन्हें जेल में डाल दिया। कारावास के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी चेलों की सुविधाभोगी प्रवृत्ति को देखकर स्वामीजी हैरान रह गये। कांग्रेस के नेता कारावास के दौरान सुविधा हासिल करने के लिए छल-प्रपंच का सहारा ले रहे थे। स्वभाव से हीं विद्रोही स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया। इस दौरान एक और घटना हुई। 1934 में जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया।लेकिन किसानों जमींदारों के अत्याचार से पीड़ित थे। जमींदारों के लठैत किसानों को टैक्स भरने के लिए प्रताड़ित कर रहे थे। पटना में कैंप कर रहे महात्मा गांधी से मिलकर स्वामीजी ने ये हाल सुनाया। कहते हैं कि गांधीजी ने दरभंगा महाराज से मिलकर किसानों के लिए ज़रूरी अन्न का बंदोबस्त करने के लिए स्वामीजी को कहा। ऐसा सुनना था कि स्वामी सहजानंद गुस्से में लाल हो गये और चले गये। जाते-जाते उन्होंने गांधीजी को कह दिया कि अब आपका और मेरा रास्ता अलग-अलग है। स्वामीजी का मानना था कि जो राजे-रजवाड़े और ज़मींदार अंग्रेजों की सरपरस्ती कर रहे हैं, उनसे किसानों का भला नहीं हो सकता है। चाहे वो दरभंगा महाराज ही क्यों न हो। इसी प्रकरण के बाद सहजानंद ने कांग्रेस में अपनी सक्रियता कम कर दी और किसान सभा के कार्य में मन-प्राण से जुट गये।
स्वामीजी के जीवन का तीसरा चरण तब शुरू होता है जब वे कांग्रेस में रहते हुए किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को हीं जीवन का लक्ष्य घोषित करते हैं। उन्होंने नारा दिया- कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा ज़िन्दाबाद । बाद में यहीं नारा किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया। वे कहते थे - अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे। उनका ओजस्वी भाषण किसानों पर गहरा असर डालता था। काफ़ी कम समय में किसान आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया। स्वामीजी का प्रांतीय किसान सभा संगठन के तौर पर खड़ा होने के बजाए आंदोलन बन गया। हर ज़िले और प्रखण्डों में किसानों की बड़ी-बड़ी रैलियां और सभाएँ हुईं। बाद के दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिलाया। सर्वश्री एम जी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी जैसे वामपंथी और समाजवादी नेता किसान आंदोलन के अग्रिम पंक्ति में। आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे तब के कई नामी चेहरे भी किसान सभा से जुड़े थे। वामपंथी रुझान के चलते सीपीआई उन्हें अपना समझती रही और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों में शामिल हुए। आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो नेताजी ने पूरे देश में 'फ़ारवर्ड ब्लॉक' के ज़रिये हड़ताल कराया। स्वामी सहजानंद ने पटना के समीप बिहटा में सीताराम आश्रम स्थापित किया जो किसान आंदोलन का केन्द्र बना। वहीं से वे पूरे आंदोलन को संचालित करते रहे। संघर्ष के साथ-साथ स्वामी जी सृजन के भी प्रतीक पुरुष थे। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद स्वामीजी ने सृजन का कार्य जारी रखा। दो दर्जन से ज़्यादा पुस्तकों की रचना की। मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी लिखी।
जमींदारी प्रथा के ख़िलाफ़ लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून ,1950 को मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये। आज़ादी मिलने के साथ ही सरकार ने क़ानून बनाकर ज़मींदारी राज को खत्म कर दिया। मरणोपरांत ही सही स्वामी जी की सबसे बड़ी मांग पूरी हो गयी, लेकिन किसानों को सुखी-समृद्ध और खुशहाल देखने की उनकी इच्छा पूरी न हो सकी। वैश्वीकरण की आंधी ने तो अब किसानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर छोड़ दिया है। किसान पहले से कहीं ज़्यादा असंगठित हैं और कर्ज़ के बोझ तले दबकर आत्महत्या करने को विवश हैं। देश में किसानों के संगठन कई हैं, लेकिन एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो किसानों में सर्वमान्य हो और जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो। ऐसे समय में स्वामी सहजानंद और ज़्यादा याद आते हैं, जिन्होंने किसान को संगठित और शोषण मुक्त बनाने में अपना सम्पूर्ण जीवन बलिदान कर दिया। उनके निधन के साथ हीं भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में दलितों का संन्यासी चला गया। स्वामीजी द्वारा प्रज्जवलित ज्योति की लौ मद्धिम ज़रूर पड़ी है, बुझी नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे किसान-मज़दूर आंदोलन इसके उदाहरण हैं।

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