चाय दुनिया के लगभग सभी देशों में रहने वाले खास से लेकर आम लोगों के दैनिक जीवन की अहम हिस्सा है। भले ही इसकी शुरुआत ईसा से 2737 साल पहले चीन से हुई हो मगर जब बनारस के संदर्भ में इसका जिक्र होता है तो यह अड़ीबाजी का अहम जरिया, पॉवर हाउस मानी जाती है। विश्व चाय दिवस 21 मई के मौके पर बनारस में चाय की यात्रा का चित्रण लाजमी है।
अंग्रेजों के शासनकाल तक चाय आम भारतीयों के जीवन का हिस्सा नहीं
रही लेकिन आजादी के बाद जैसे चाय को पंख लग गए। शहर बनारस की गलियों से लेकर सभी
प्रमुख चौराहों तक चाय की दुकानों की लंबी फेहरिश्त है। चाय की कुछ दुकानें तो
अड़ीबाजों के लिए सोने में सुहागा बन गईं। किसी जमाने में गोदौलिया का दी
रेस्टूरेंट, जो अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है, चाय के शौकीनों की सबसे पसंदीदा जगह हुआ करती थी। गुजरते वक्त के साथ चाय
की कई अड़ियां शहर में मशहूर हो गईं। अस्सी पर पप्पू और पोई की चाय दुकान से बढ़
कर सोनारपुरा में बाबा, गिरजाघर पर फिरंगी से होते हुए चौक
पर लक्ष्मी की दुकान अड़ीबाजों का स्थायी ठिकाना बनती गई।
सोनारपुरा में बाबा की चाय दुकान पर अड़ी लगाने वाले
सांस्कृतिक समीक्षक पं. अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं कि इन अड़ियों पर साहित्यिक
चर्चा ही नहीं होती बल्कि जबरदस्त राजनीतिक बतकुच्चन भी होता है। चाय की प्यालियों
से कई बड़े तूफान भी निकले। मसलन हिंदी आंदोलन, जेपी मूवमेंट, विश्वनाथ मंदिर सोना चोरी कांड से लेकर दीपा मेहता की फिल्म वाटर के
विरोध में बड़ा जनांदोलन इन्हीं चाय की अड़ियों की देन रहा। बदलते वक्त के साथ चाय
की अड़ियों का अंदाज भी बदलता गया। आज के दौर में पप्पू और पोई की चाय की दुकान
बुजुर्ग अड़ीबाजों तो चितरंजन पार्क पर राजा की दुकान युवा अड़ीबाजों की मनपसंद
जगह है। विदेशी चाय प्रेमियों के लिए पांडेय घाट स्थित पकालू टी स्टाल कौतूहल का
विषय है जहां 35 प्रकार की चाय पर्यटकों को पेश की जाती
है।
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