Monday, March 23, 2020

भगत सिंह की शहादत पर पेरियार और आंबेडकर ने क्या कहा था



भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत के समय उस दौर के दो प्रसिद्ध बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट पेरियार और डॉ. आंबेडकर ने अपनी पत्रिकाओं में क्या लिखा, इसे जानना इनकी विचार प्रक्रिया को समझने में मददगार साबित होगा.
साढ़े तेईस वर्ष की उम्र में 23 मार्च 1931 को भगत सिंह ( 28 सितम्बर 1907 – 23 मार्च 1931) को ब्रिटिश सरकार ने फांसी पर चढ़ा दिया. उनके साथ सुखदेव और राजगुरु को भी फांसी दी गई. ई वी रामासामी ‘पेरियार’ और डॉ. आंबेडकर ने अपने-अपने समाचार पत्रों में इस फांसी पर अपनी राय रखी.
भगत सिंह की फांसी के 6 छठें दिन 29 मार्च 1931 को पेरियार ने अपने समाचार-पत्र कुदी अरासुमें इस विषय पर भगत सिंहशीर्षक से संपादकीय लेख लिखा. डॉ. आंबेडकर ने अपने अखबार जनता में 13 अप्रैल 1931 को इन तीन युवाओं की शहादत पर तीन बलिदानशीर्षक से संपादकीय लेख लिखा. पेरियार की पत्रिका तमिल भाषा में निकलती थी. जबकि जनताडॉ. आंबेडकर के संपादन में निकलने वाला एक मराठी पाक्षिक पत्र था.

पेरियार का भगत सिंह के प्रति सम्मान

ये दोनों संपादकीय इस तथ्य की गवाही देते हैं कि देश एवं समाज के लिए जीने और मरने वाले भगत सिंह जैसे लोगों के प्रति पेरियार और आंबेडकर के मनोभाव क्या थे. सबसे पहले पेरियार के संपादकीय को लेते हैं. संपादकीय की पहली ही पंक्ति इन शब्दों से शुरू होती है- शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने भगत सिंह को दी गई फांसी की सजा पर दुख व्यक्त न किया हो. न ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जिसने उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचाने के लिए सरकार की निंदा न की हो.’ (कुदी आरसु, 1931)
अपना दुख प्रकट करने के बाद पेरियार भगत सिंह की फांसी के संदर्भ में गांधी और ब्रिटिश शासन के बीच खुले और गुप्त संवाद की चर्चा करते हुए, इस पूरे संदर्भ में भारतीय जनता की प्रतिक्रिया का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि कैसे जनता का एक हिस्सा इस फांसी के लिए गांधी को भी जिम्मेदार मानते हुए उनके खिलाफ नारे लगा रहा है. फिर वे भगत सिंह के व्यक्तित्व की महानता और अपने उद्देश्यों के प्रति उनके समर्पण की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि हम दावे के साथ कह सकते हैं कि वे ईमानदार शख्सियत थे. हम जोर देकर, पूरे विश्वास के साथ कहना चाहेंगे कि भारत को भगत सिंह के आदर्शों की ही आवश्यकता है. जहां तक हम जानते हैं, वे समधर्म (बहुआयामी समानता) और साम्यवाद के आदर्श में विश्वास रखते थे.
इसके बाद पेरियार भगत सिंह का एक चर्चित उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, जिसके माध्यम से वे बताते हैं कि भगत सिंह का आदर्श सबके लिए समता और साम्यवाद के आदर्श की स्थापना था. वे भगत सिहं को कोट करते हैं- हमारी लड़ाई उस समय तक जारी रहेगी, जब तक साम्यवादी दल सत्ता में नहीं आ जाते और लोगों के जीवन-स्तर और समाज में जो असमानता है, वह पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती. यह लड़ाई हमारी मौत के साथ समाप्त होने वाली नहीं है. यह प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से लगातार चलती रहेगी.
इसके बाद पेरियार विस्तार से धर्म, ईश्वर, असमानता, गरीबी और अछूत समस्या पर भगत सिंह के विचारों की चर्चा करते हुए उनके पक्ष में खड़े होते हैं. वे उनके द्वारा समता और साम्यवाद हासिल करने के तरीके से पूरी तरह सहमत न होते हुए भी उनके आदर्शों की प्रशंसा करते हैं. संपादकीय के अंत में वे भगत सिंह के व्यक्तित्व का इन खूबसूरत शब्दों में चित्रांकन करते हैं- भगत सिंह ने उत्कृष्ट, असाधारण और गौरवशाली मौत अपने लिए चुनी थी, जिसे साधारण इंसान आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता. इसलिए हम हाथ उठाकर, अपने सभी शब्द-सामर्थ्य के साथ और मन की गहराइयों से उनकी प्रशंसा करते हैं.

भगत सिंह के बारे में डॉ. आंबेडकर के विचार

अपने पाक्षिक अखबार जनता में 13 अप्रैल 1931 को लिखे संपादकीय में डॉ. आंबेडकर भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को बलिदान के रूप में रेखांकित करते हैं और अपने संपादकीय को तीन बलिदानशीर्षक देते हैं. पूरी संपादकीय का निष्कर्ष है ये तीनों व्यक्तित्व ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति के शिकार बने. इसी कारण से वे कहते हैं कि यह न्याय नहीं था, बल्कि न्याय हुआ.
वे लिखते हैं- गर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है या न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती हैऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी है, क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्याय देवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी को भी यकीन नहीं है. खुद सरकार भी इस समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है. फिर बाकियों को भी इसी न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है? न्याय देवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कन्जर्वेटिव/राजनीतिक रूढिवादी/पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ दुनिया भी जानती है.

भगत सिंह के साहस को नमन

संपादकीय की शुरूआत में डॉ. आंबेडकर उन आरोपों का जिक्र करते हैं, जिनके तहत इन तीन लोगों को फांसी दी गई. फिर वे इन तीनों की बहादुरी की चर्चा करते हुए कहते हैं, फांसी की जगह गोली से उड़ा देने की भगत सिंह की अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं की गई. वे लिखते हैं- हमारी जान बख्श देंऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी. हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए, ऐसी इच्छा भगत सिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं. मगर उनकी इस आखिरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया.
इस संपादकीय में विस्तार से डॉ. आंबेडकर भगत सिंह की फांसी के संदर्भ में भारत और ब्रिटेन में हुई खुली और गुप्त राजनीति की चर्चा करते हैं और इसमें गांधी और उस समय के वायसराय लार्ड इर्विन की भूमिकाओं पर बात करते हैं. डॉ. आंबेडकर की राय में गांधी और इर्विन भगत सिंह की फांसी को आजीवन कारावास में बदलने के हिमायती थे. इर्विन से गांधी जी ने ये वादा भी लिया था. लेकिन ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति और ब्रिटेन की जनता को खुश करने लिए इन तीनों को फांसी दी गई. वे अपनी संपादकीय के अंत में लिखते हैं- लुब्बोलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इर्विन समझौते का क्या होगा, इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढ़िवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगत सिंह आदि की बलि चढ़ायी गई. यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए.
ई वी रामासामी पेरियारऔर डॉ. आंबेडकर के भगत सिंह की फांसी पर संपादकीय उनकी गहरी संवेदनशीलता और व्यापक मनुष्यता को समेटने वाली वैचारिकता का उत्कृष्ट नमूना है.

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