प्रार्थना समाज भारतीय नवजागरण के दौर में धार्मिक और सामाजिक सुधारों के लिए स्थापित समुदाय है। इसकी स्थापना बंबई में 31 मार्च 1867
में की गई
प्रार्थना समाज की स्थापना वर्ष 1867 ई. में बम्बई में आचार्य केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से महादेव गोविन्द रानाडे, डॉ. आत्माराम पांडुरंग, चन्द्रावरकर
आदि द्वारा की गई थी। जी.आर. भण्डारकर प्रार्थना समाज के अग्रणी नेता थे।
प्रार्थना समाज का मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-पुरुष
विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा-विवाह, स्त्री शिक्षा आदि को प्रोत्साहन प्रदान करना
था।
प्रार्थनासमाज की पृष्ठभूमि 19वीं शती के प्रारंभ अथवा उससे भी पहले 18वीं शती में हुई कई घटनाओं से बन चुकी थी। अंग्रेजी शिक्षा का प्रवेश और
ईसाई मिशनरियों के कार्य, ये दो घटनाएँ उस पृष्ठभूमि के
निर्माण में विशेष सहायक बनीं। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से शिक्षित भारतीयों में
अपने सामाजिक और आर्थिक विश्वासों तथा रीति रिवाजों के दोषों और त्रुटियों के
प्रति चेतना जगी। ईसाई मिशनरियों ने अनेकानेक लोगों, विशेषतया
हिंदुओं, का धर्मपरिवर्तन कर उन्हें ईसाई बना लिया, इससे भी लोगों की आँखें खुल गईं। फिर मिशनरियों ने अपनी कठोर प्रहारी
आलोचना द्वारा भी धर्मपरिवर्तन के अनिच्छुक लोगों के विचारों में बड़ा परिवर्तन ला
दिया। हिंदू दर्शन के उन नेताओं ने जो इन तत्वों के प्रभाव का अनुभव कर रहे थे और
नवीन ज्ञान से भी परिचित हो रहे थे, सांस्कृतिक मूल्यों के
आधार पर हिंदू समाज के बौद्धिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान के कार्य का श्रीगणेश
किया। हिंदू विचारधारा के इन्हीं नेताओं में से कुछ ने प्रार्थनासमाज की स्थापना
की।
प्रार्थनासमाज के आंदोलन ने, राजा राममोहन राय द्वारा बंगाल में स्थापित ब्रह्मसमाज (1828)
से प्रेरणा ग्रहण की और व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के स्वस्थ सुधार
के लिए अपनी सारी शक्ति धार्मिक शिक्षा के प्रचार में अर्पित कर दी। बंबई के
पश्चात् धीरे-धीरे इसका विस्तार पूना, अहमदाबाद, सतारा और अहमदनगर आदि स्थानों में भी हुआ।
प्रार्थनासमाज के प्रमुख प्रकाशस्तंभों में आत्माराम पांडुरंग, वासुदेव बाबाजी नौरंगे, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर,
महादेव गोविंद रानडे, वामन अबाजी मोदक और
नारायण गणेश चंदावरकर थे। प्रार्थनासमाज के आलोचकों द्वारा किए गए असत्य प्रचार को
मिटाने के लिए इन नेताओं को बहुत संघर्ष करना पड़ा। असत्य प्रचार के अंतर्गत यह
कहा जाता था कि प्रार्थनासमाज ईसाई धर्म के अनुकरण पर आधृत है और यह देश के
प्राचीन धर्म के विरुद्ध है।
प्रार्थना समाज के मुख्य नियम और
सिद्धांत निम्नलिखित हैं :
·
ईश्वर ही इस ब्रह्मांड का रचयिता है।
·
ईश्वर की आराधना से ही इस संसार और दूसरे संसार में
सुख प्राप्त हो सकता है।
·
ईश्वर के प्रति प्रेम और श्रद्धा, उसमें अनन्य
आस्था-प्रेम, श्रद्धा, और आस्था की
भावनाओं सहित आध्यात्मिक रूप से उसकी प्रार्थना और उसका कीर्तन, ईश्वर को अच्छे लगनेवाले कार्यों को करना--यह ही ईश्वर की सच्ची आराधना
है। मूर्तियों अथवा अन्य मानव सृजित वस्तुओं की पूजा करना, ईश्वर
की आराधना का सच्चा मार्ग नहीं है।
·
ईश्वर अवतार नहीं लेता और कोई भी एक पुस्तक ऐसी नहीं
है, जिसे स्वयं ईश्वर ने
रचा अथवा प्रकाशित किया हो, अथवा जो पूर्णतः दोषरहित हो।
प्रार्थनासमाज का उद्देश्य प्रार्थना और सेवा द्वारा ईश्वर की
पूजा करना था। ब्रह्मसमाज की भाँति उपनिषदों और भगवद्गीता की शिक्षाएँ उद्देश्य के
आधार हैं किंतु एक बात में यह ब्रह्मसमाज से भिन्न है, इसमें भारत के, विशेषतया महाराष्ट्र के, मध्यकालीन संतों -
ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम
- की शिक्षाओं को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है।
प्रार्थनासमाज ने रानाडे के नेतृत्व में जाति प्रथा, बाल-विवाह, मूर्ति पूजा तथा हिन्दू समाज की अन्य
कुरीतियों के विरुद्ध आदोलन किया। उसने 19वीं शती के नवें दशक में नारीजागरण की योजनाओं का आरंभ किया।
आर्य-महिला-समाज की स्थापना (1882) उन्हीं योजनाओं का फल है।
1878
में प्रार्थनासमाज द्वारा स्थापित पहला रात्रिविद्यालय जनशिक्षा और
प्रौढ़शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहा। वासुदेव बाबाजी नौरंगे बालकाश्रम की
स्थापना लालशंकर उमाशंकर द्वारा पंढरपुर में 1875 में हुई यह
बालकाश्रम बाद में प्रार्थनासमाज के संरक्षण में आ गया। यह अपने ढंग की सर्वाधिक
प्राचीन और बड़ी संस्था है और यह 1975 में अपनी शताब्दी पूरी
करेगी। प्रार्थनासमाज के संरक्षण में दो बलकाश्रम और चलते हैं - एक विले पार्ले
(बंबई) में डी.एन. सिरूर होम और दूसरा सतारा जिले के वाई नामक स्थान में है।
"दि डिप्रेस्ड क्लास मिशन सोसायटी ऑव इंडिया" नाम की संस्था, जो अछूतोद्धार के लिए प्रसिद्ध है, प्रार्थनासमाज के
एक कार्यकर्ता बिट्ठल रामजी शिंदे द्वारा स्थापित हुई।
1917
में प्रार्थनासमाज ने राममोहन अंग्रेजी विद्यालय की स्थापना की। अब
इसके संरक्षण से दस से अधिक विद्यालय बंबई और उसके आस पास चल रहे हैं।
ब्रह्मसमाजियों के विपरीत प्रार्थना समाज के सदस्य अपने को हिन्दू मानते थे। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते
थे और महाराष्ट्र के तुकारामतथा गुरु रामदास जैसे
महान् संतों की परम्परा के अनुयायी थे। प्रार्थना समाजियों ने अपना मुख्य ध्यान हिन्दुओं में समाज सुधार के
कार्यों, जैसे सहभोज, अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, अछूतोद्धार
आदि में लगाया। प्रार्थना समाज ने बहुत से समाज सुधारकों को अपनी ओर आकर्षित किया,
जिसमें जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे भी थे। मुख्य रूप से जस्टिस
महादेव गोविन्द रानाडे के प्रयत्न से प्रार्थना समाज की ओर से 'दक्कन एजुकेशन सोसाइटी' (दक्षिण शिक्षा समिति) जैसी
लोकोपकारी संस्थाओं की स्थापना की गई। प्रार्थना
समाज संस्था के सहयोग से दलित जाति मंडल, समाज सेवा संघ तथा दक्कन शिक्षा
सभा की स्थापना हुई। पंजाब में इस समाज के प्रचार-प्रसार में दयाल
सिंह के प्रन्यास ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। दक्षिण भारत में विश्वनाथ मुदलियर के नेतृत्व में ‘वेद समाज’ का नाम बदल कर ‘दक्षिण
भारत ब्रह्मसमाज’ रखा गया।