मोहनदास करमचन्द गांधी
2 अक्टूबर 1869 - 30 जनवरी 1948
मोहनदास करमचन्द गांधी भारत एवं भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं
आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की
नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति
आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया
था
उन्हें बापू (गुजराती भाषा में बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से
मनाया जाता है।
सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु
सत्याग्रह करना शुरू किया। 1915में उनकी भारत वापसी हुई।[21] उसके बाद
उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को
अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद
उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के
अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व
आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति
दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार
द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो
आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण
अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।
गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे।
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी
भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर नामक स्थान पर 2
अक्टूबर सन् 1869 को हुआ था। उनके पिता
करमचन्द गान्धी सनातन
धर्म की पंसारी जाति
से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश
राज के
समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान
मन्त्री थे। गुजराती
भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी जबकि हिन्दी
भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर
कहा जाता है। उनकी माता
पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं।
पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं
थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण
युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिसने आगे चलकर महात्मा
गांधी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में शामिल थे दुर्बलों
में जोश की भावना, शाकाहारी
जीवन, आत्मशुद्धि
के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों
के लोगों के बीच सहिष्णुता।
मई 1883 में साढे 13 साल की आयु पूर्ण
करते ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूर
बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता
द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल
विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। लेकिन उस क्षेत्र में यही रीति
थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना
पड़ता था। 1885 में जब गान्धी जी 15 वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया।
लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी साल उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल
बसे। मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं जो सभी पुत्र थे। हरीलाल गान्धी 1888 में, मणिलाल गान्धी 1892 में, रामदास
गान्धी 1897 में और देवदास
गांधी 1900 में जन्मे। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया।
दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर वह एक औसत छात्र रहे। मैट्रिक के बाद की परीक्षा
उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से
कुछ परेशानी के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका
परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था।
अपने 19वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पहले ही 4 सितम्बर 1888 को गांधी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर
बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस,
शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को
दिए गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी लंदन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया
जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन
द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों
की ओर इशारा किया। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढा था उसे
सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता से शाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंने शाकाहारी समाज की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया
जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ गठित करने
में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछ थियोसोफिकल
सोसायटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना
१८७५ में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था।
उन्हों लोगों ने गांधी जी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों .के बारे में पढ़ने से पहले गांधी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखायी। इंग्लैंड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु बम्बई में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल
शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर
उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को ही अपना
स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की मूर्खता के कारण उन्हें यह
कारोबार भी छोड़ना पड़ा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल
कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिस वजह से उन्होंने सन् 1893 में एक
भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में, जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का
कारोवार स्वीकार कर लिया।
दक्षिण
अफ्रीका में गान्धी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें
प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से
इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष
यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी।
उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का सामना किया। अफ्रीका में कई
होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह
भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी
उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गान्धी के जीवन
में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं
तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में
भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए गान्धी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत
अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये
1906 में, ज़ुलु (Zulu) दक्षिण अफ्रीका में नए चुनाव कर के लागू करने के बाद दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला गया। बदले में अंग्रेजों ने जूलू के खिलाफ युद्ध
छेड़ दिया। गांधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को
सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनका तर्क था अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा
पहनाने के लिए भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए। तथापि, अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से इंकार कर दिया था।
इसके बावजूद उन्होने गांधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि भारतीय घायल अंग्रेज
सैनिकों को उपचार के लिए स्टेचर पर लाने के लिए स्वैच्छा पूर्वक कार्य कर सकते
हैं। इस कोर की बागडोर गांधी ने थामी। 21 जुलाई 1906 को गांधी जी ने भारतीय जनमत इंडियन ओपिनिय (Indian Opinion) में
लिखा कि 23 भारतीय निवासियों के
विरूद्ध चलाए गए आप्रेशन के संबंध में प्रयोग द्वारा नेटाल सरकार के कहने पर एक
कोर का गठन किया गया है।दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों
से इंडियन ओपिनियन में
अपने कॉलमों के माध्यम से इस युद्ध में शामिल होने के लिए आग्रह किया और कहा, यदि सरकार केवल यही महसूस करती हे कि आरक्षित बल बेकार हो रहे हैं तब वे
इसका उपयोग करेंगे और असली लड़ाई के लिए भारतीयों का प्रशिक्षण देकर इसका अवसर
देंगे।
गांधी की राय में, 1906 का मसौदा अध्यादेश भारतीयों की
स्थिति में किसी निवासी के नीचे वाले स्तर के समान लाने जैसा था। इसलिए उन्होंने सत्याग्रह (Satyagraha), की तर्ज पर
"काफिर (Kaffir)s
" .का उदाहरण देते हुए भारतीयों से अध्यादेश का विरोध करने का
आग्रह किया। उनके शब्दों में, " यहाँ तक कि आधी जातियां
और काफिर जो हमसे कम आधुनिक हैं ने भी सरकार का विरोध किया है। पास का नियम उन पर
भी लागू होता है किंतु वे पास नहीं दिखाते हैं।
गांधी 1945 में दक्षिण अफ्रीका से
भारत में रहने के लिए लौट आए। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों पर अपने विचार व्यक्त किए,
लेकिन उनके विचार भारत के मुख्य मुद्दों, राजनीति
तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल
कृष्ण गोखले पर ही आधारित थे जो एक सम्मानित नेता थे।
गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि 1918 में चम्पारन सत्याग्रह और खेड़ा सत्याग्रह में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाए नील (indigo) नकद पैसा देने वाली खाद्य
फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की
ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक
गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर (unhygienic); और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए
अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। यह स्थिति
निराशजनक थी। खेड़ा (Kheda), गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम (ashram) बनाया जहाँ उनके बहुत
सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया। उन्होंने गांवों
का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के
भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था
को भी शामिल किया गया था। ग्रामीणों में विश्वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना
कार्य गांवों की सफाई करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए
और उपरोक्त वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण
नेतृत्व प्रेरित किया।
लेकिन इसके प्रमुख प्रभाव उस समय देखने को मिले जब
उन्हें अशांति फैलाने के लिए पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें प्रांत छोड़ने के
लिए आदेश दिया गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए ओर जेल, पुलिस
स्टेशन एवं अदालतों के बाहर रैलियां निकालकर गांधी जी को बिना शर्त रिहा करने की
मांग की। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों को का
नेतृत्व किया जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के मार्गदर्शन में उस क्षेत्र के गरीब
किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति मंजूर करने तथा खेती पर नियंत्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक समझौते पर
हस्ताक्षर किए। इस संघर्ष के दौरान ही, गांधी जी को जनता ने बापू पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित
किया। खेड़ा में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया जिसमें
अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया था।
इसके परिणामस्वरूप, गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई।
गांधी जी ने असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के खिलाफ़ शस्त्र के रूप में उपयोग
किया। पंजाब में अंग्रेजी फोजों
द्वारा भारतीयों पर जलियावांला नरसंहार जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है ने देश को भारी आघात
पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। गांधीजी ने ब्रिटिश
राज तथा
भारतीयों द्वारा प्रतिकारात्मक रवैया दोनों की की। उन्होंने ब्रिटिश नागरिकों तथा
दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की तथा पार्टी के आरंभिक विरोध के
बाद दंगों की भंर्त्सना की। गांधी जी के भावनात्मक भाषण के बाद अपने सिद्धांत की
वकालत की कि सभी हिंसा और बुराई को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। किंतु ऐसा इस
नरसंहार और उसके बाद हुई हिंसा से गांधी जी ने अपना मन संपूर्ण सरकार आर भारतीय
सरकार के कब्जे वाली संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण लाने पर केंद्रित था जो जल्दी
ही स्वराज अथवा संपूर्ण व्यक्तिगत, आध्यात्मिक एवं राजनैतिक
आजादी में बदलने वाला था।
दिसम्बर 1921 में गांधी जो भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस.का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया
गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को स्वराज.के नाम वाले एक नए उद्देश्य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता
सांकेतिक शुल्क का भुगताने पर सभी के लिए खुली थी। पार्टी को किसी एक कुलीन संगठन
की न बनाकर इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिए इसके अंदर अनुशासन में
सुधार लाने के लिए एक पदसोपान समिति गठित की गई। गांधी जी ने अपने अहिंसात्मक मंच
को स्वदेशी नीति —
में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर
अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का कहना था कि
सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा
हाथ से बनाई गई खादी पहनें। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन को सहयोग देने के
लिएपुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन खादी के लिए सूत कातने में समय बिताने के लिए कहा। यह अनुशासन और समर्पण लाने
की ऐसी नीति थी जिससे अनिच्छा और महत्वाकाक्षा को दूर किया जा सके और इनके स्थान
पर उस समय महिलाओं को शामिल किया जाए जब ऐसे बहुत से विचार आने लगे कि इस प्रकार
की गतिविधियां महिलाओं के लिए सम्मानजनक नहीं हैं। इसके अलावा गांधी जी ने ब्रिटेन
की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा
सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान (honours)
को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।
असहयोग को दूर-दूर से अपील और
सफलता मिली जिससे समाज के सभी वर्गों की जनता में जोश और भागीदारी बढ गई। फिर जैसे
ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर पहुंचा वैसे फरवरी 1922 में इसका अंत चौरी-चोरा, उत्तरप्रदेश में भयानक द्वेष के रूप में अंत हुआ। आंदोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने
के डर को ध्यान में रखते हुए और इस पर विचार करते हुए कि इससे उसके सभी कार्यों
पर पानी फिर जाएगा, गांधी जी ने व्यापक असहयोग के इस आंदोलन को
वापस ले लिया। गांधी पर गिरफ्तार किया गया 10 मार्च, 1922 को राजद्रोह के लिए गांधी जी
पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाकर जैल भेद दिया गया। 18 मार्च, 1922 से लेकर उन्होंने केवल
2 साल ही जैल में बिताए थे कि उन्हें फरवरी 1924 में आंतों
के ऑपरेशन के लिए रिहा कर दिया गया।
गांधी जी के एकता वाले व्यक्तित्व के बिना इंडियन नेशनल
कांग्रेस उसके जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बंटने लगी जिसके एक दल
का नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले चित्त रंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले चक्रवर्ती
राजगोपालाचार्य और सरदार वल्लभ
भाई पटेल ने किया। इसके अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अहिंसा आंदोलन की चरम सीमा पर पहुंचकर सहयोग
टूट रहा था। गांधी जी ने इस खाई को बहुत से साधनों से भरने का प्रयास किया जिसमें
उन्होंने 1924 की बसंत में सीमित सफलता दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी
शामिल था।
गांधी जी सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और 1920 की
अधिकांश अवधि तक वे स्वराज पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच खाई को भरने
में लगे रहे और इसके अतिरिक्त वे अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता
और गरीबी के खिलाफ आंदोलन छेड़ते भी रहे। उन्होंने पहले 1928 में लौटे .एक साल
पहले अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक नया संवेधानिक सुधार आयोग
बनाया जिसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। इसका परिणाम भारतीय राजनैतिक दलों
द्वारा बहिष्कार निकला। दिसम्बर 1928 में गांधी जी ने कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के एक अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें भारतीय
साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा गया था अथवा ऐसा न करने के बदले अपने
उद्देश्य के रूप में संपूर्ण देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के
लिए तैयार रहें। गांधी जी ने न केवल युवा वर्ग सुभाष चंद्र
बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जैसे पुरूषों द्वारा तत्काल आजादी की मांग के विचारों को फलीभूत किया
बल्कि अपनी स्वयं की मांग को दो साल की बजाए एक साल
के लिए रोक दिया। अंग्रेजों ने कोई जवाब नहीं दिया। 31 दिसम्बर 1929, भारत का झंडा फहराया गया था
लाहौर में है।26 जनवरी 1930 का दिन लाहौर में
भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मनाया। यह दिन लगभग
प्रत्येक भारतीय संगठनों द्वारा भी मनाया गया। इसके बाद गांधी जी ने मार्च 1930 में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नया सत्याग्रह चलाया जिसे 12 मार्च से 6 अप्रेल तक नमक आंदोलन के याद में 400 किलोमीटर (148 मील) तक का सफर अहमदाबाद से
दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा
सके। समुद्र की ओर इस यात्रा में हजारों की संख्या में भारतीयों ने भाग लिया।
भारत में अंग्रेजों की पकड़ को विचलित करने वाला यह एक सर्वाधिक सफल आंदोलन था
जिसमें अंग्रेजों ने 80000 से अधिक लोगों को जेल भेजा।
लार्ड एडवर्ड इरविन द्वारा प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने
गांधी जी के साथ विचार विमर्श करने का निर्णय लिया। यह इरविन गांधी की
संधि मार्च 1931 में हस्ताक्षर किए थे। सविनय
अवज्ञा आंदोलन को बंद करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा
करने के लिए अपनी रजामंदी दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी को भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित होने वाले
गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन गांधी जी और
राष्ट्रीयवादी लोगों के लिए घोर निराशाजनक रहा, इसका कारण
सत्ता का हस्तांतरण करने की बजाय भारतीय कीमतों एवं भारतीय अल्पसंख्यकों पर
केंद्रित होना था। इसके अलावा, लार्ड इरविन के उत्तराधिकारी
लार्ड विलिंगटन, ने राष्ट्रवादियों के आंदोलन को नियंत्रित
एवं कुचलने का एक नया अभियान आरंभ करदिया। गांधी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और
सरकार ने उनके अनुयाईयों को उनसे पूर्णतया दूर रखते हुए गांधी जी द्वारा प्रभावित
होने से रोकने की कोशिश की। लेकिन, यह युक्ति सफल नहीं थी।
1932 में, दलित नेता और प्रकांड विद्वान डॉ॰ बाबासाहेब
अम्बेडकर के चुनाव प्रचार के माध्यम से, सरकार ने अछूतों को एक नए संविधान के अंतर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया।
इसके विरोध में दलित हतों के विरोधी गांधी जी ने सितंबर 1932 में छ: दिन का अनशन
ले लिया जिसने सरकार को सफलतापूर्वक दलित से राजनैतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा
की गई मध्यस्ता वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। अछूतों के जीवन को
सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की शुरूआत थी। गांधी जी ने इन
अछूतों को हरिजन का नाम दिया जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। 8 मई 1933 को गांधी जी ने हरिजन
आंदोलन में मदद करने के
लिए आत्म शुद्धिकरण का 21 दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान दलितों को पसंद नहीं आया तथापि वे एक प्रमुख नेता बने रहे। डॉ॰ अम्बेडकर ने गांधी जी द्वारा हरिजन शब्द का उपयोग करने की स्पष्ट निंदा की, कि दलित
सामाजिक रूप से अपरिपक्व हैं और सुविधासंपन्न जाति वाले भारतीयों ने पितृसत्तात्मक
भूमिका निभाई है। अम्बेडकर और उसके सहयोगी दलों को भी महसूस हुआ कि गांधी जी
दलितों के राजनीतिक अधिकारों को कम आंक रहे हैं। हालांकि गांधी जी एक वैश्य जाति
में पैदा हुए फिर भी उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि वह डॉ॰ अम्बेडकर जैसे दलित मसिहा
के होते हुए भी वह दलितों के लिए आवाज उठा सकता है। भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दुस्तान की
सामाजिक बुराइयों में में छुआछूत एक प्रमुख बुराई थी जिसके के विरूद्ध महात्मा
गांधी और उनके अनुयायी संघर्षरत रहते थे। उस समय देश के प्रमुख मंदिरों में
हरिजनों का प्रवेश पूर्णतः प्रतिबंधित था। केरल राज्य का जनपद त्रिशुर दक्षिण भारत
की एक प्रमुख धार्मिक नगरी है। यहीं एक प्रतिष्ठित मंदिर है गुरुवायुर मंदिर, जिसमें कृष्ण भगवान के बालरूप के दर्शन कराती
भगवान गुरूवायुरप्पन की मूर्ति स्थापित है। आजादी से पूर्व अन्य मंदिरों की भांति
इस मंदिर में भी हरिजनों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था।
केरल के गांधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा की आज्ञा
से इस प्रथा के विरूद्ध आवाज उठायी और अंततः इसके लिये सन् 1933 ई0 में
सविनय अवज्ञा प्रारंभ की गयी। मंदिर के ट्रस्टियों को इस बात की ताकीद की गयी कि
नये वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात 1 जनवरी 1934 को अंतिम निश्चय दिवस के रूप में
मनाया जायेगा और इस तिथि पर उनके स्तर से कोई निश्चय न होने की स्थिति मे महात्मा
गांधी तथा श्री केलप्पन द्वारा आन्दोलनकारियों के पक्ष में आमरण अनशन किया जा सकता
है। इस कारण गुरूवायूर मंदिर के ट्रस्टियो की ओर से बैठक बुलाकर मंदिर के उपासको की
राय भी प्राप्त की गयी। बैठक मे 77 प्रतिशत उपासको के द्वारा दिये गये बहुमत के
आधार पर मंदिर में हरिजनों के प्रवेश को स्वीकृति दे दी गयी और इस प्रकार 1 जनवरी
1934 से केरल के श्री गुरूवायूर मंदिर में किये गये निश्चय दिवस की सफलता के रूप
में हरिजनों के प्रवेश को सैद्वांतिक स्वीकृति मिल गयी। गुरूवायूर मंदिर जिसमें आज
भी गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है तथापि कई धर्मों को मानने वाले भगवान भगवान
गुरूवायूरप्पन के परम भक्त हैं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से जनवरी माह के प्रथम
दिवस को निश्चय दिवस के रूप में मनाया गया और किये गये निश्चय को प्राप्त किया
गया। 1934 की गर्मियों में,
उनकी जान लेने के लिए उन पर तीन असफल प्रयास किए गए थे।
जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के लिए चुना और
संघीय योजना के अंतर्गत सत्ता स्वीकार की तब गांधी जी ने पार्टी की सदस्यता से
इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया। वह पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे किंतु
महसूस करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तब भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता
पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी जो अब तक कम्यूनिसटों, समाजवादियों,
व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान
थी। इससे इन सभी को अपनी अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा। गांधी जी
राज के लिए किसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए प्रचार द्वारा कोई ऐसा लक्ष्य सिद्ध
नहीं करना चाहते थे जिसे राज के साथ अस्थायी
तौर पर राजनैतिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।
गांधी जी नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर
अधिवेशन के साथ ही 1936 में भारत लौट आए। हालांकि गांधी की पूर्ण इच्छा थी कि वे
आजादी प्राप्त करने पर अपना संपूर्ण ध्यान केंद्रित करें न कि भारत के भविष्य के
बारे में अटकलों पर। उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्य के रूप में
अपनाने से नहीं रोका। 1938 में पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुने गए सुभाष बोस के साथ
गांधी जी के मतभेद थे। बोस के साथ मतभेदों में गांधी के मुख्य बिंदु बोस की
लोकतंत्र में प्रतिबद्धता की कमी तथा अहिंसा में विश्वास की कमी थी। बोस ने गांधी
जी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल की किंतु कांग्रेस को उस समय छोड़
दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गांधी जी द्वारा
लागू किए गए सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया गया।
द्वितीय विश्व
युद्ध 1939 में जब छिड़ने नाजी जर्मनी आक्रमण पोलैंड.आरंभ में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग
देने का पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के
प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध किया।
कांग्रेस के सभी चयनित सदस्यों ने सामूहिक तौर पर अपने पद से
इस्तीफा दे दिया। लंबी चर्चा के बाद, गांधी ने घोषणा की कि
जब स्वयं भारत को आजादी से इंकार किया गया हो तब लोकतांत्रिक आजादी के लिए बाहर से
लड़ने पर भारत किसी भी युद्ध के लिए पार्टी नहीं बनेगी। जैसे जैसे युद्ध बढता गया
गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग को अंग्रेजों को भारत छोड़ो
आन्दोलन नामक विधेयक देकर तीव्र कर दिया। यह
गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक स्पष्ट विद्रोह था जो भारत देश से अंग्रेजों को
खदेड़ने पर लक्षित था।
गांधी जी के दूसरे नंबर पर बैठे जवाहरलाल नेहरू की
पार्टी के कुछ सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनैतिक भारतीय दलों ने आलोचना की जो
अंग्रेजों के पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही विश्वास रखते थे। कुछ का मानना था कि
अपने जीवन काल में अथवा मौत के संघर्ष में अंग्रेजों का विरोध करना एक नश्वर कार्य
है जबकि कुछ मानते थे कि गांधी जी पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहे हैं। भारत
छोड़ो इस संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें
व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई। पुलिस की
गोलियों से हजारों की संख्या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए
और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी और उनके समर्थकों ने स्पष्ट कर दिया कि वह
युद्ध के प्रयासों का समर्थन तब तक नहीं देंगे तब तक भारत को तत्काल आजादी न दे
दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बार भी यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा यदि हिंसा
के व्यक्तिगत कृत्यों को मूर्त रूप दिया जाता है। उन्होंने कहा कि उनके चारों ओर
अराजकता का आदेश असली अराजकता से भी बुरा है। उन्होंने सभी कांग्रेसियों और
भारतीयों को अहिंसा के साथ करो या मरो (अंग्रेजी में डू ऑर डाय) के द्वारा अन्तिम स्वतन्त्रता के लिए अनुशासन
बनाए रखने को कहा।
गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों
को अंग्रेजों द्वारा मुबंई में 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को पुणे के आंगा खां महल में दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। यही वह समय था जब गांधी जी को उनके
निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनका 50 साल पुराना सचिव महादेव देसाई 6 दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गए और गांधी जी के 18 महीने जेल में
रहने के बाद 22 फरवरी 1944 को उनकी पत्नी कस्तूरबा
गांधी का देहांत हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद गांधी जी को भी मलेरिया का भयंकर
शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्य और जरूरी उपचार के कारण 6 मई 1944 को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया। राज उन्हें जेल
में दम तोड़ते हुए नहीं देखना चाहते थे जिससे देश का क्रोध बढ़ जाए। हालांकि भारत
छोड़ो आंदोलन को अपने उद्देश्य में आशिंक सफलता ही मिली लेकिन आंदोलन के निष्ठुर
दमन ने 1943 के अंत तक भारत को संगठित कर दिया। युद्ध के अंत में, 1943 ब्रिटिश ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि संत्ता का हस्तांतरण कर उसे
भारतीयों के हाथ में सोंप दिया जाएगा। इस समय गांधी जी ने आंदोलन को बंद कर दिया
जिससे कांग्रेसी नेताओं सहित लगभग 100000 राजनैतिक बंदियों
को रिहा कर दिया गया।
गांधी जी ने 1946 में कांग्रेस को ब्रिटिश केबीनेट मिशन
(British Cabinet
Mission) के प्रस्ताव को ठुकराने का परामर्श दिया क्योकि
उसे मुस्लिम बाहुलता वाले प्रांतों के लिए प्रस्तावित समूहीकरण के प्रति उनका गहन संदेह होना था
इसलिए गांधी जी ने प्रकरण को एक विभाजन के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा। हालांकि
कुछ समय से गांधी जी के साथ कांग्रेस द्वारा मतभेदों वाली घटना में से यह भी एक
घटना बनी (हालांकि उसके नेत्त्व के कारण नहीं) चूंकि नेहरू और पटेल जानते थे कि
यदि कांग्रेस इस योजना का अनुमोदन नहीं करती है तब सरकार का नियंत्रण मुस्लिम लीग के पास चला जाएगा। 1948 के बीच लगभग 5000 से भी अधिक लोगों को हिंसा के
दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। गांधी जी किसी भी ऐसी योजना के खिलाफ थे जो भारत
को दो अलग अलग देशों में विभाजित कर दे। भारत में रहने वाले बहुत से हिंदुओं और
सिक्खों एवं मुस्लिमों का भारी बहुमत देश के बंटवारे[तथ्य
वांछित] के पक्ष में था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद अली
जिन्ना, मुस्लिम लीग के नेता ने, पश्चिम पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पूर्वी बंगाल[तथ्य
वांछित] में व्यापक सहयोग का परिचय दिया।
व्यापक स्तर पर फैलने वाले हिंदु मुस्लिम लड़ाई को रोकने के लिए ही कांग्रेस
नेताओं ने बंटवारे की इस योजना को अपनी मंजूरी दे दी थी। कांगेस नेता जानते थे कि
गांधी जी बंटवारे का विरोध करेंगे और उसकी सहमति के बिना कांग्रेस के लिए आगे बझना
बसंभव था चुकि पाटर्ठी में गांधी जी का सहयोग और संपूर्ण भारत में उनकी स्थिति
मजबूत थी। गांधी जी के करीबी सहयोगियों ने बंटवारे को एक सर्वोत्तम उपाय के रूप
में स्वीकार किया और सरदार पटेल ने गांधी जी को समझाने का प्रयास किया कि नागरिक अशांति वाले युद्ध को
रोकने का यही एक उपाय है। मज़बूर गांधी ने अपनी अनुमति दे दी।
उन्होंने उत्तर भारत के साथ-साथ बंगाल में भी मुस्लिम और हिंदु समुदाय के नेताओं के साथ गर्म रवैये को शांत करने
के लिए गहन विचार विमर्श किया। 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के
बावजूद उन्हें उस समय परेशान किया गया जब सरकार ने पाकिस्तान को विभाजन परिषद
द्वारा बनाए गए समझौते के अनुसार 55 करोड़ रू. न देने का निर्णय लियाथा। सरदार पटेल जैसे नेताओं को डर था कि पाकिस्तान इस धन का उपयोग भारत के खिलाफ़ जंग
छेड़ने में कर सकता है। जब यह मांग उठने लगी कि सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजा
जाए और मुस्लिमों और हिंदु नेताओं ने इस पर असंतोष व्यक्त किया और एक दूसरे के साथ समझौता
करने से मना करने से गांधी जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन आरंभ किया जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को सभी के
लिए तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 55 करोड़ रू. का भुगतान करने के लिए कहा गया था। गांधी जी को डर था कि पाकिस्तान में
अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जाएगा तथा सीमा पर
हिंसा फैल जाएगी। उन्हें आगे भी डर था कि हिंदु और मुस्लिम अपनी शत्रुता को फिर से
नया कर देंगे और उससे नागरिक युद्ध हो जाने की आशंका बन सकती है। जीवन भर गांधी जी
का साथ देने वाले सहयोगियों के साथ भावुक बहस के बाद गांधी जी ने बात का मानने से
इंकार कर दिया और सरकार को अपनी नीति पर अडिग रहना पड़ा तथा पाकिस्तान को भुगतान
कर दिया। हिंदु मुस्लिम और सिक्ख समुदाय के नेताओं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि
वे हिंसा को भुला कर शांति लाएंगे। इन समुदायों में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा शामिल थे। इस प्रकार गांधी जी ने संतरे का जूस पीकर अपना अनशन
तोड़ दिया।
30 जनवरी, 1948, गांधी की उस समय नाथूराम गोडसे द्वारा गोली
मारकर हत्या कर दी गई जब वे नई
दिल्ली के बिड़ला भवन (बिरला हाउस के मैदान में रात चहलकदमी कर रहे थे। गांधी का हत्यारा नाथूराम
गौड़से हिन्दू राष्ट्रवादी थे जिनके कट्टरपंथी हिंदु
महासभा के साथ संबंध थे जिसने गांधी जी को पाकिस्तान को भुगतान करने
के मुद्दे को लेकर भारत को कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। गोड़से और
उसके उनके सह षड्यंत्रकारी नारायण
आप्टे को बाद में केस चलाकर सजा दी गई तथा 15 नवंबर 1949 को इन्हें फांसी दे दी गई। राज घाट, नई
दिल्ली, में
गांधी जी के स्मारक पर "देवनागरी में हे राम " लिखा हुआ है। ऐसा व्यापक तौर पर माना जाता है कि जब गांधी
जी को गोली मारी गई तब उनके मुख से निकलने वाले ये अंतिम शब्द थे। हालांकि इस कथन
पर विवाद उठ खड़े हुए हैं।जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित किया