करतार
सिंह सराभा
24 मई, 1896, - 16 नवम्बर, 1915
करतार
सिंह सराभा भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में से एक थे। उन्हें अपने शौर्य, साहस, त्याग एवं बलिदान के लिए हमेशा याद किया
जाता रहेगा। महाभारत के
युद्ध में जिस प्रकार वीर अभिमन्यु ने किशोरावस्था में ही कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु का आलिंगन किया था, उसी प्रकार सराभा ने भी अभिमन्यु की भाँति केवल उन्नीस वर्ष की आयु में ही
हँसते-हँसते देश के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया। उनके शौर्य एवं बलिदान की
मार्मिक गाथा आज भी भारतीयों को प्रेरणा देती है और देती रहेगी। यदि आज के युवक
सराभा के बताये हुए मार्ग पर चलें, तो न केवल अपना, अपितु देश का मस्तक भी ऊँचा कर सकते हैं।
करतार
सिंह सराभा का जन्म पंजाब के लुधियाना ज़िले के 'सराबा' नामक ग्राम में 'माता साहिब कौर' के गर्भ से हुआ था। उनके पिता का नाम मंगल सिंह था, जिनके दो भाई थे- उनमें
से एक उत्तर प्रदेश में
इंस्पेक्टर के पद पर प्रतिष्ठित था तथा दूसरा भाई उड़ीसा में वन विभाग के अधिकारी के पद पर कार्यरत था। सराभा की एक छोटी बहन भी थी, जिसका नाम धन्न कौर था। उस समय उड़ीसा, बंगाल राज्य के अंतर्गत आता था। बाल्यावस्था में ही सराभा के पिता का स्वर्गवास
हो गया था। उनके दादा बदन सिंह ने उनका तथा छोटी बहन का लालन-पालन किया था। सराभा
ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा लुधियाना में ही प्राप्त की थी। नवीं कक्षा पास करने के
पश्चात् वे अपने चाचा के पास उड़ीसा चले गये और वहीं से हाई स्कूल की परीक्षा पास
की।
क्रांति
का प्रभाव
1905 ई. के 'बंगाल विभाजन' के विरुद्ध क्रांतिकारी आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका था, जिससे प्रभावित होकर करतार सिंह सराभा क्रांतिकारियों में सम्मिलित हो
गये। यद्यपि उन्हें बन्दी नहीं बनाया गया, तथापि
क्रांतिकारी विचार की जड़ें उनके हृदय में गहराई तक पहुँच चुकी थीं।
लाला हरदयाल का साथ
1911 ई. में सराभा अपने कुछ सम्बन्धियों के साथ अमेरिका चले गये। वे 1912 में सेन फ़्राँसिस्को
पहुँचे। वहाँ पर एक अमेरिकन अधिकारी ने उनसे पूछा "तुम यहाँ क्यों आये हो?" सराभा ने उत्तर देते हुए कहा, "मैं उच्च शिक्षा
प्राप्त करने के उद्देश्य से आया हूँ।" किन्तु सराभा उच्च शिक्षा प्राप्त
नहीं कर सके। वे हवाई जहाज बनाना एवं चलाना सीखना चाहते थे। अत: इस उद्देश्य की
पूर्ति हेतु एक कारखाने में भरती हो गये। इसी समय उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हुआ, जो अमेरिका में रहते हुए भी भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील दिखे। उन्होंने सेन फ़्राँसिस्को में
रहकर कई स्थानों का दौरा किया और भाषण दिये। सराभा हमेशा उनके साथ रहते थे और
प्रत्येक कार्य में उन्हें सहयोग देते थे।
साहस की प्रतिमूर्ति
करतार
सिंह सराभा साहस की प्रतिमूर्ति थे। देश की आज़ादी से सम्बन्धित किसी भी कार्य में
वे हमेशा आगे रहते थे। 25 मार्च, 1913 ई. में ओरेगन प्रान्त में भारतीयों की एक बहुत बड़ी सभा हुई, जिसके मुख्य वक्ता लाला हरदयाल थे। उन्होंने सभा में भाषण देते हुए कहा था,
"मुझे ऐसे युवकों की आवश्यकता है, जो
भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दे सकें।" इस पर सर्वप्रथम करतार सिंह
सराभा ने उठकर अपने आपको प्रस्तुत किया। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लाला हरदयाल
ने सराभा को अपने गले से लगा लिया।
सम्पादन कार्य
इसी
सभा में 'गदर' नाम से एक समाचार पत्र निकालने का निश्चय किया गया, जो भारत की
स्वतंत्रता का प्रचार करे। इसे कई भाषाओं में प्रकाशित किया जाये और जिन-जिन देशों
में भारतवासी रहते हैं, उन सभी में इसे भेजा जाये। फलत: 1913 ई. में 'गदर' प्रकाशित
हुआ। इसके पंजाबी संस्करण के
सम्पादक का कार्य सराभा ही करते थे।
योजना की असफलता
1914 ई. में जब 'प्रथम विश्व युद्ध' प्रारम्भ हुआ, तो अंग्रेज़ युद्ध में बुरी तरह फँस गये। ऐसी स्थिति में 'ग़दर
पार्टी' के कार्यकर्ताओं ने सोचा और योजना बनाई कि यदि
इस समय भारत में विद्रोह हो जाये, तो भारत को आज़ादी
मिल सकती है। अत: अमेरिका में रहने वाले चार हज़ार भारतीय इसके लिए तैयार हो गये।
उन्होंने अपना सब कुछ बेचकर गोला-बारूद और पिस्तोलें ख़रीदीं और जहाज में बैठकर
भारत के लिए रवाना हो गये। उन लोगों में से एक सराभा भी थे। लेकिन कार्य पूर्ण
होने से पूर्व ही भेद खुल जाने के कारण बहुत से लोगों को गोला-बारूद सहित मार्ग में
एवं कुछ को भारत के समुद्री
तट के किनारे पर पहुँचने से पूर्व ही बन्दी बना लिया गया। सराभा अपने साथियों के
साथ किसी प्रकार से बच निकलने में सफल रहे। अब पंजाब पहुँचकर उन्होंने गुप्त रूप से विद्रोह के लिए तैयारियाँ आरम्भ कर दीं।
क्रांतिकारियों से भेंट
सराभा
ने गुप्त रूप से क्रांतिकारियों से मिलने का निश्चय किया, ताकि
भारत में विप्लव की आग जलाई जा सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रासबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि क्रांतिकारियों से
भेंट की। उनके प्रयत्नों से जालंधर की एक बगीची में एक गोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें पंजाब के सभी क्रांतिकारियों ने भाग लिया। इस
समय सराभा की आयु मात्र 19 वर्ष की थी। इस गोष्ठी
में पंजाब के क्रांतिकारियों ने यह सुझाव दिया कि रासबिहारी बोस को पंजाब में आकर
क्रांतिकारियों का संगठन बनाना चाहिए। फलत: रासबिहारी बोस ने पंजाब आकर सैनिकों का
संगठन बनाया। इसी समय उन्होंने विद्रोह के लिए एक योजना भी बनाई। इस योजना के
अनुसार समस्त भारत में फौजी छावनियाँ एक ही दिन और एक ही समय में अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध विद्रोह करेंगी।
सराभा
ने लाहौर, फ़िरोजपुर, लायलपुर एवं अमृतसर आदि
छावनियों में घूम-घूमकर पंजाबी सैनिकों को संगठित करके उन्हें विप्लव करने हेतु
प्रेरित किया। वस्तुत: सराभा ने पंजाब की समस्त फौजी छावनियों में विप्लव की अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी थी।
पुन: असफलता
रासबिहारी बोस छद्म वेश में लाहौर में एक मकान में रहते थे। सराभा उनके पास मिलने के लिए
आते-जाते रहते थे। योजना के अनुसार 21 फ़रवरी, 1915 ई. का दिन समस्त भारत में क्रांति के लिए निश्चित किया गया था। पर 15 फ़रवरी को ही भेद खुल गया। हुआ यह कि एक
गुप्तचर क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो गया था। उसे जब 21 फ़रवरी को समस्त भारत में क्रांति होने के बारे में जानकारी मिली, तो उसने 16 फ़रवरी को उस भेद को ब्रिटिश सरकार के समक्ष प्रकट कर दिया। फलत: चारों ओर जोरों
से गिरफ्तारियाँ होने लगीं। बंगाल तथा पंजाब में तो
गिरफ्तारियों का तांता लग गया। रासबिहारी बोस किसी प्रकार लाहौर से वाराणसी होते हुए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गये और वहाँ से छद्म नाम से पासपोर्ट बनवाकर जापान चले गये।
गिरफ्तारी
रासबिहारी बोस ने लाहौर छोड़ने से
पूर्व सराभा को क़ाबुल चले
जाने का परामर्श दिया था। अत: उन्होंने क़ाबुल के लिए प्रस्थान कर दिया। जब वे
वजीराबाद पहुँचे, तो उनके मन में यह विचार आया कि इस
तरह छिपकर भागने से अच्छा है कि वे देश के लिए फाँसी के फंदे पर चढ़कर अपने प्राण
निछावर कर दें। किसी ने ठीक ही लिखा है-
वीर
मृत्यु से कभी न डरते,
हँस कर गले लगाते हैं,
फूलों की कोमल शैया समझ,
सूली पर सो जाते हैं।
हँस कर गले लगाते हैं,
फूलों की कोमल शैया समझ,
सूली पर सो जाते हैं।
सराभा के मन में ऐसा विचार आते ही वे वजीराबाद की फौजी छावनी में चले गये
और वहाँ उन्होंने फौजियों के समक्ष भाषण देते हुए कहा, "भाइयों, अंग्रेज़ विदेशी
हैं। हमें उनकी बात नहीं माननी चाहिए। हमें आपस में मिलकर अंग्रेज़ी शासन को
समाप्त कर देना चाहिए।" सराभा ने गिरफ्तार होने के लिए ही ऐसा भाषण दिया था।
फलत: उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इस अवसर पर उन्होंने बड़े गर्व के साथ स्वीकार
किया कि वे अंग्रेज़ी शासन को समाप्त करने के लिए सैनिक विद्रोह करना चाहते थे।
मुकदमा
करतार
सिंह सराभा पर हत्या, डाका, शासन को
उलटने का अभियोग लगाकर 'लाहौर षड़यन्त्र' के नाम से मुकदमा चलाया गया। उनके साथ 63 दूसरे
आदमियों पर भी मुकदमा चलाया गया था। सराभा ने अदालत में अपने अपराध को स्वीकार
करते हुए ये शब्द कहे, "मैं भारत में क्रांति लाने का समर्थक हूँ और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अमेरिका से यहाँ आया हूँ। यदि मुझे मृत्युदंड
दिया जायेगा, तो मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझूँगा, क्योंकि पुनर्जन्म के
सिद्धांत के अनुसार मेरा जन्म फिर से भारत में होगा और मैं मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए काम कर सकूँगा।" जज
ने उन 63 व्यक्तियों में से 24 को फाँसी की सज़ा सुनाई। जब इसके विरुद्ध अपील की गई, तो सात व्यक्तियों की फाँसी की सज़ा पूर्ववत् रखी गई थी। उन सात
व्यक्तियों के नाम थे- करतार सिंह सराभा, विष्णु पिंगले, काशीराम, जगतसिंह, हरिनाम
सिंह, सज्जन सिंह एवं बख्शीश सिंह। फाँसी पर झूलने से
पूर्व सराभा ने यह शब्द कहे-
हे
भगवान मेरी यह प्रार्थना है कि मैं भारत में उस समय तक जन्म लेता रहूँ, जब
तक कि मेरा देश स्वतंत्र न हो जाये।
फाँसी
16 नवम्बर, 1915 ई. को सराभा हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये। जज ने उनके मुकदमे का
निर्णय सुनाते हुए कहा था, "इस युवक ने अमेरिका से लेकर
हिन्दुस्तान तक अंग्रेज़ शासन
को उलटने का प्रयास किया। इसे जब और जहाँ भी अवसर मिला, अंग्रेज़ों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न किया। इसकी अवस्था बहुत कम है, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के लिए बड़ा भयानक है।"
भाई परमानन्द का वर्णन
भाई परमानन्द जी ने सराभा के जेल के जीवन का वर्णन करते हुए
लिखा है, "सराभा को कोठरी में भी हथकड़ियों और बेड़ियों
से युक्त रखा जाता था। उनसे सिपाही बहुत डरते थे। उन्हें जब बाहर निकाला जाता था, तो सिपाहियों की बड़ी टुकड़ी उनके आगे-पीछे चलती थी। उनके सिर पर मृत्यु
सवार थी, किन्तु वे हँसते-मुस्कराते रहते थे।" भाई परमानन्द जी ने सराभा के सम्बन्ध में आगे और लिखा है, "मैंने
सराभा को अमेरिका में देखा था। वे ग़दर पार्टी के कार्यकर्ताओं में मुख्य थे। वे बड़े साहसी और वीर थे। जिस काम को कोई
भी नहीं कर सकता था, उसे करने के लिए सराभा सदा तैयार
रहते थे। उन्हें कांटों की राह पर चलने में सुख मालूम होता था, मृत्यु को गले लगाने में आनन्द प्राप्त होता था।"
सराभा
जब अमेरिका से जहाज में बैठकर भारत आ रहे थे, तब
रास्ते में ही उनके बहुत से साथी गिरफ्तार कर लिये गये थे, पर वे किसी भी तरह बचकर पंजाब आ गये और कुछ ही समय में अपनी देशभक्ति एवं वीरता के कारण प्रसिद्धि
प्राप्त कर ली। उन्होंने पंजाब के क्रांतिकारियों को संगठित किया और चारों ओर
घूम-घूमकर फौजियों को विद्रोह करने हेतु प्रेरित किया। यदि भेद न खुलता, तो सारे भारत में एक
साथ क्रांति की अग्नि की लपटों में ब्रिटिश शासन जल कर राख हो जाता। सराभा भी भारत माँ के एक ऐसे लाल थे, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए असंख्य कष्ट सहे और यहाँ तक कि अपने
प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। ऐसे वीर सपूत का नाम भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में हमेशा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा।