राम प्रसाद 'बिस्मिल'
11 जून 1897-19
दिसम्बर 1927
“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाजूएँ कातिल में है।”
देशभक्ति की भावना
से भरी हुई, हमेशा क्रान्तिकारी स्वतंत्रता सेनानियों के द्वारा दोहरायी
जाने वाली इन पंक्तियों के रचयिता, राम प्रसाद बिस्मिल, उन महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे जो देश की आजादी के लिये अंग्रेजी
शासन से संघर्ष करते हुये शहीद हो गये। ये एक महान लेखक व कवि थे। इन्होंने वीर रस
से भरी हुई, लोगों के हृदय को जोश से भर देने वाली अनेक कविताएं लिखी।
इन्होंने अनेक भावविहल कर देने वाली गद्य रचनाएं भी लिखी। इनकी क्रान्तिकारी
गतिविधियों के कारण सरकार द्वारा इन पर मुकदमा चलाकर फाँसी की सजा दे दी गयी थी।
इन्होंने अपने देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिये अपना सब कुछ
न्यौछावर कर दिया।देखना है ज़ोर कितना बाजूएँ कातिल में है।”
महान क्रान्तिकारी
और प्रसिद्ध लेखक रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर गाँव में हुआ था।
इनका जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था जो हिन्दू धर्म की सभी मान्यताओं का अनुसरण
करता थे। इनके पिता मुरलीधर कचहरी में सरकारी स्टॉम्प बेचा करते थे और इनकी माता
मूलमति एक कुशल गृहणी थी।
इनके माता-पिता के
इनसे पहले एक और बेटे का जन्म हो चुका था, लेकिन जन्म के कुछ
महीने के बाद ही किसी अज्ञात बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गयी थी, जिससे इनके जन्म के समय से ही इनकी दादी बहुत सतर्क हो गयी। वो हर जगह इनकी
सलामती के लिये मन्नते माँगती थी। जब राम प्रसाद केवल 2 महीने के थे, इनका स्वास्थ्य भी अपने
स्वर्गवासी भाई की तरह ही गिरने लगा। इन्हें किसी भी दवा से कोई फायदा नहीं होता
था। अतः किसी ने सलाह दी कि इनके ऊपर से सफेद खरगोश का उतारा करके उसे छोड़ दिया
जाये यदि कोई परेशानी होगी तो यह खरगोश मर जायेगा। ऐसा ही किया गया और सबको यह
देखकर आश्चर्य हुआ कि थोड़ी दूर जाने के बाद ही वह खरगोश मर गया और इसके तुरन्त
बाद से इनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक होने लगा।
रामप्रसाद बिस्मल के
दादा जी मूल रुप से ग्वालियर राज्य से थे। इनका पैतृक क्षेत्र ब्रिटिश शासनकाल में
चम्बल नदी के किनारे तोमरघार प्रान्त के नाम से जाना जाता था। इस प्रदेश के निवासी
निर्भीक, साहसी और अंग्रेजों से सीधे रुप से चुनौती देने वाले थे।
यहाँ लोगों का जब मन करता वो अपनी बन्दूकें लेकर नदी पार करके उस क्षेत्र के
ब्रिटिश अधिकारियों को धमकी देकर वापस अपने गाँव लौट आते। इस प्रान्त के जमींदारों
का ये हाल था कि वो अपनी मनमर्जी से माल गुजारी (लगान) देते थे। मन न होने की
स्थिति में वो अपना सारा सामान लेकर चम्बल के बीहड़ों में छुप जाते थे और लगान
नहीं देते थे।
रामप्रसाद में भी
यहीं का पैतृक खून था जिसका प्रमाण उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्तिकारी
गतिविधियों को कार्यान्वित करके दिया। बिस्मिल के दादाजी नारायणलाला को पारिवारिक
झगड़ों के कारण अपना गाँव छोड़ना पड़ा। नारायण लाल अपने दोनों पुत्रों मुरलीधर
(बिस्मिल के पिता) और कल्याणमल को लेकर शाहजहाँपुर आ गये और यहीं रहने लगे।
इनके दादाजी ने
शाहजहाँपुर आकर एक दवा बेचने वाले की दुकान पर 3 रुपये/- महीने की नौकरी की। नारायण लाल के यहाँ आने के समय इस क्षेत्र में
भीषण अकाल पड़ रहा था। ऐसे समय में इनकी दादी ने बड़ी कुशलता के साथ अपनी गृहस्थी
को संभाला। कुछ समय बाद ही इनकी दादी ने आर्थिक तंगी को दूर करने के लिये 3-4 घरों में जाकर पिसाई का काम करना शुरु कर दिया और काम से वापस आकर अपने बच्चों
के लिये खाना बनाती थी। इन्होंने इतने कठिन समय में बहुत साहस के साथ अपने पति व
दोनों बच्चों का पालन-पोषण किया।
इनके परिवार ने
मुसीबतों का सामना करके अनेक कष्टों के बाद स्वंय को स्थापित करके समाज में अपनी
प्रतिष्ठित जगह बनायी। इनके दादाजी ने कुछ समय बाद नौकरी छोंड़कर पैसे, दुअन्नी, चवन्नी आदि बेचने की दुकान शुरु कर दी जिससे अच्छी आमदनी
होने लगी। नारायणलाल ने अपने बड़े बेटे को थोड़ी बहुत शिक्षा दिला दी और जी-जान से
मेहनत करके एक मकान भी खरीद लिया। बिस्मिल के पिता, मुरलीधर के विवाह योग्य होने पर इनकी दादी ने अपने मायके में इनका विवाह करा
दिया। मुरलीधर अपने परिवार के साथ कुछ समय अपने ननिहाल में रहने के बाद अपने परिवार
और पत्नि को विदा करा कर शाहजहाँपुर आ गये।
रामप्रसाद के जन्म
के समय तक इनका परिवार पूरी तरह से समाज में एक प्रतिष्ठित व सम्पन्न परिवारों में
गिना जाने लगा था। इनके पिता ने विवाह के बाद नगर पालिका में 15/-रुपये महीने की नौकरी कर ली और जब वो इस नौकरी से ऊब गये तो इन्होंने वो नौकरी
छोड़कर कचहरी में सरकारी स्टॉम्प बेचने का कार्य शुरु कर दिया। इनके पिता मुरलीधर
सच्चे दिल के और स्वभाव से ईमानदार थे। इनके सरल स्वभाव के कारण समाज में इनकी
प्रतिष्ठा स्वंय ही बढ़ गयी।
बिस्मल के दादा जी
नारायण लाल इनसे बहुत प्रेम करते थे। उन्हें गाय पालने का बहुत शौक था इसलिये खुद
ग्वालियर जाकर बड़ी-बड़ी गाय खरीद कर लाते थे। रामप्रसाद से स्वभाविक प्रेम होने
के कारण अपने साथ बड़े प्रेम से रखते थे। इन्हें खूब दूध पिलाते और व्यायम कराते
थे और जब शाम को पूजा करने के लिये मंदिर जाते थे तो रामप्रसाद को अपने कंधों पर बिठाकर
अपने साथ ले जाते थे। रामप्रसाद बिस्मिल पर अपने पारिवारिक परिवेश और पैतृक गाँव
का प्रभाव बहुत अधिक पड़ा जो उनके चरित्र में मृत्यु के समय तक भी परिलक्षित होता
था।
बिस्मिल को 6 वर्ष की आयु में पढ़ने के लिये बैठा दिया गया। इनके पिता इनकी पढ़ाई पर विशेष
ध्यान देते थे क्योंकि वो पढ़ाई का वास्तिवक महत्व बहुत अच्छे से समझते थे। उनके
पिता को पता था कि अगर वो थोड़ी सी पढ़ाई भी नहीं कर पाते तो जिस प्रतिष्ठित स्थान
पर वो थे इस तक कभी न पहुँच पाते। अतः वो बिस्मिल की पढ़ाई को लेकर बहुत सख्त रहते
और इनके द्वारा द्वारा जरा सी लापरवाही होने पर बहुत कठोरता से व्यवहार करते और
इन्हें बहुत बुरी तरह से पीटते थे।
रामप्रसाद की
आत्मकथा के तथ्यों से ज्ञात होता है कि एक बार इनके पिता इन्हें पढ़ा रहे थे, उनके द्वारा बार-बार प्रयास कराये जाने पर भी ये ‘उ’ नहीं लिख पा रहे थे। कचहरी जाने का समय हो जाने के कारण
इनके पिता इन्हें ‘उ’ लिखने का अभ्यास करने के
लिये कह गये। उनके जाने के साथ ही बिस्मिल भी खेलने के लिये चले गये। शाम को इनके
पिता ने कचहरी से आने के बाद ‘उ’ लिखकर दिखाने के लिये कहा। बहुत बार प्रयास करने के बाद भी ये सही ढंग से ‘उ’ नहीं बना पाये। इस पर इनके पिता ने नाराज होकर इतनी पिटाई
लगाई कि जिस छड़ से उन्होंने पीटा था वो लोहे की छड़ भी टेड़ी हो गयी।
सात साल की आयु में
इन्हें उर्दू की शिक्षा प्राप्त करने के लिये मौलवी के पास भेजा गया। जिनसे
इन्होंने उर्दू सीखा। इसके बाद इन्हें स्कूल में भर्ती कराया गया। लगभग 14 वर्ष की आयु में बिस्मिल ने चौथी कक्षा को उत्तीर्ण किया। इन्होंने कम उम्र
में ही उर्दू, हिन्दी और इंग्लिश की शिक्षा प्राप्त की। अपनी कुछ
पारिवारिक परिस्थितियों के कारण इन्होंने आठवीं के आगे पढ़ाई नहीं की।
कुमार अवस्था (14 साल की उम्र) में पहुँचते ही रामप्रसाद को उर्दू के उपन्यास पढ़ने का शौक लग
गया। नये-नये उपन्यास खरीदने के लिये इन्हें रुपयों की आवश्यकता होने लगी। यदि वो
उपन्यासों के लिये अपने पिता से धन मांगते तो बिल्कुल न मिलता इसलिये इन्होंने
अपने पिता के संदूक से पैसे चुराने शुरु कर दिये। इसके साथ ही इन्हें नशा करने और
सिगरेट पीने की भी लत लग गयी। जिस पुस्तक विक्रेता से बिस्मिल उपन्यास खरीदकर
पढ़ते थे वो इनके पिता का परिचित था। उसने इस बात की शिकायत इनके पिता से कर दी
जिससे घर में इनकी हरकतों पर नजर रखी जाने लगी। इस पर इन्होंने उस पुस्तक विक्रेता
से पुस्तक खरीदना छोड़ दिया और किसी और से पुस्तकें खरीदकर पढ़ने लगे।
लेकिन कहते हैं कि
झूठ और चोरी को लोग चाहे किताना भी क्यों न छिपा ले छुपाये नहीं छुप पाता। यह कहावत
बिस्मिल पर पूरी तरह से चरितार्थ हुई। एक दिन ये नशे की हालत में अपने पिता के
संदूक से पैसे चुरा रहे थे। होश में न होने के कारण इनसे संदूक खटक गयी और आवाज को
सुनकर इनकी मां जाग गयी और उन्होंने इन्हें चोरी करते देख लिया। इससे इनके सारे
राज खुल गये। जब इनकी तलाशी ली गयी तो इनके पास से बहुत से उपन्यास और पैसे मिले।
रामप्रसाद की सच्चाई
पर से पर्दा उठने के बाद संदूक का ताला बदल दिया गया और उनके पास से मिले
उपन्यासों को जलाने के साथ ही इनकी हरेक छोटी-छोटी हरकतों पर नजर रखी जाने लगी।
अपनी इन्हीं गलत हरकतों के कारण ही वो लगातार मिडिल परीक्षा में दो बार फेल भी
हुये। कठोर प्रतिबंधों के कारण इनकी आदतें छूटी नहीं लेकिन बदल जरुर गयी।
रामप्रसाद बिस्मल के
आत्मसुधार के प्रयासों पर इनकी दादी और इनकी माँ के स्वभाव का बहुत अधिक प्रभाव
पड़ा। इन्होंने अपनी दादी की साहसिक प्रवृत्ति को सुना, देखा और महसूस किया था साथ ही इनकी माँ विद्वान और बुद्धिमान थी, जिससे इन्हें बुरी प्रवृतियों से छुटाकारा पाने में बहुत हद तक सहायता मिली।
उसी समय इनके घर के पास के ही मन्दिर में एक विद्वान पंडित आकर रहने लगे। बिस्मिल
उनके चरित्र से प्रभावित हुये और उनके साथ रहने लगे। उस पुजारी के सानिध्य में
रहते हुये इन्हें स्वंय ही अपने दुर्व्यसनों से नफरत होने लगी। दूसरी तरफ स्कूल
में इनकी मुलाकात सुशील चन्द्र सेन से हुई। ये उनके घनिष्ट मित्र बन गये। सेन के
सम्पर्क में आकर इन्होंने सिगरेट पीना भी छोड़ दिया।
मंदिर के पुजारी के
साथ रहते हुये बिस्मिल ने देव-पूजा करने की पारंपरिक रीतियों को सीख लिया। वो दिन
रात भगवान की पूजा करने लगे। इन्होंने व्यायाम भी करना शुरु कर दिया जिससे इनका
शरीर मजबूत होने लगा। इस प्रकार की कठिन साधना शक्ति से बिस्मिल का मनोबल बढ़ गया
और किसी भी काम को करने के लिये दृढ़ संकल्प करने की प्रवृति भी विकसित हुई।
रामप्रसाद बिस्मिल
अब नियम पूर्वक मंदिर में प्रतिदिन पूजा करते थे। एक दिन मुंशी इंद्रजीत ने इन्हें
पूजा करते हुये देखा और इनसे बहुत अधिक प्रभावित हुये। वो इनसे मिले और इन्हें ‘संध्या-वंदना’ करने की सलाह दी। इस पर
बिस्मिल ने उनसे “संध्या क्या है?” ये पूछा। मुंशी जी ने इन्हें आर्य समाज के कुछ उपदेश देते हुये इन्हें संध्या
करने की विधि बतायी साथ ही स्वामी दयानंद द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने के
लिये दी।
बिस्मिल अपनी दैनिक
दिनचर्या को करने के साथ ही सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करने लगे। इसमें बताये गये
स्वामी जी के उपायों से बिस्मिल बहुत अधिक प्रभावित हुये। पुस्तक में स्वामी जी
द्वारा बताये गये ब्रह्मचर्य के नियमों का पूरी तरह से पालन करने लगे। इन्होंने
चारपायी को छोड़कर तख्त या जमीन पर सिर्फ एक कम्बल बिछाकर सोना शुरु कर दिया। रात
का भोजन करना छोड़ दिया, यहाँ तक कि कुछ समय के लिये
इन्होंने नमक खाना भी छोड़ दिया। रोज सुबह 4 बजे उठकर व्यायाम
आदि करते। इसके बाद स्नान आदि करके 2-3 घंटो तक भगवान की पूजा करने लगे। इस तरह ये पूरी तरह से स्वस्थ्य हो गये।
स्वामी दयानंद जी की
बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को
पूरी तरह से अनुसरण करने लगे और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य
समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी
सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें
अपनाने की पूरी कोशिश करते।
रामप्रसाद बिस्मिल
को प्रणायाम सीखने का बहुत शौक था। अतः जब भी कोई सन्यासी आता, ये उसकी पूरी तरह समर्पित होकर सेवा करते। जब ये सातवीं कक्षा में थे, उस समय इनके क्षेत्र में सनातन धर्म का अनुसरण करने वाले पंडित जगत प्रसाद जी
आये। उन्होंने आर्य समाज की आलोचना करते हुये इस धर्म का खंडन करना शुरु कर दिया।
इसका आर्य समाज के समर्थकों ने विरोध किया। अपने-अपने धर्म को ज्यादा श्रेष्ठ
साबित करने के लिये सनातन-धर्मी पं. जगत प्रसाद और आर्य समाजी स्वामी अखिलानंद के
बीच शास्त्रार्थ (वाद-विवाद) हुआ। उनकी पूरी शास्त्रार्थ (डिबेट) संस्कृत में हुई।
जिसका जनसमूह पर अच्छा प्रभाव पड़ा।
आर्य समाज में आस्था होने के कारण रामप्रसाद बिस्मिल ने स्वामी अखिलानंद की सेवा
की। लेकिन दोनों धर्मों में एक दूसरे से खुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ लगी
हुई थी, जिसका प्रमाण अपने धर्म के अनुयायियों की संख्या में वृद्धि
करके ही दिया जा सकता था। जिससे किसी सनातन धर्मी ने इनके पिता को बिस्मिल के आर्य
समाजी होने की सूचना दे दी।
बिस्मिल का परिवार
सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर सनातन धर्मी थे। उन्हें
किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को
बड़ा अपमानित महसूस किया। क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से
अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। समाज की
ऊँच-नीच के बारे में बताया। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर
उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को
और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा –
इस पर बिस्मिल ने
अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और अपने पिता के पैर
छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये। इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय
के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक
रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत
से हरे चने तोड़कर खा लिये।
दूसरी तरफ इनके घर
से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने
पर अपनी गलती का अहसास हुआ और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब
ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे इनके पिता दो
व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।
बिस्मिल के इस तरह
घर से चले जाने की घटना के बाद से इनके पिता ने इनका ज्यादा विरोध करना बन्द दिया।
ये जो भी काम करते वो चुपचाप सहन कर लेते। इस तरह इन्होंने अपने सिद्धान्तों पर
चलते हुये अपना सारा ध्यान समाज की सेवा के कार्यों और अपनी पढ़ाई पर लगा दिया।
इन्होंने अपनी क्लास में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इनका यह क्रम आठवीं क्लास तक
जारी रहा।
रामप्रसाद बिस्मिल
को अपने दादा-दादी जी से साहस व विद्रोह और माता-पिता से दृढ़ता एंव बुद्धिमत्ता
विरासत में मिली थी। इसके साथ ही मंदिर के पुजारी के सम्पर्क में रहने से मन का
संकल्प व शान्ति की प्रेरणा को ग्रहण कर लिया था। अब केवल एक महान व्यक्तित्व को
प्रतिबिम्बित करने वाली एक ही भावना शेष रह गयी थी, वह थी अपने देश के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की भावना (देश-भक्ति की
भावना)। इसके लिये एक उच्चकोटि के गुरु की आवश्यकता थी। इनकी ये जरुरत भी शीघ्र ही
पूरी हो गयी क्योंकि इनकी मुलाकात स्वामी सोम देव जी से हो गयी।
स्वामी सोम देव आर्य
समाज के प्रचार के लिये बिस्मिल के गाँव के पास वाले गाँव में आये थे लेकिन वहाँ
की जलवायु स्वामी जी के स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद नहीं थी। अतः उन्होंने इनके
गाँव शाहजहाँपुर के आर्य समाज के मंदिर में रहना शुरु कर दिया।
बिस्मिल इनके व्यक्तित्व
से बहुत अधिक प्रभावित हुये और पूरे मन से इनकी सेवा करने लगे। ये स्वामी जी के
प्रवचनों को बहुत ध्यान से सुनते और अपने गुरु के बताये मार्ग पर चलने का हर सम्भव
प्रयास करते। उनके बताये गये सिद्धान्तों को समाज के हित में प्रयोग करते। स्वामी
जी के सानिध्य में रहने के बाद ये पूरी तरह से सत्यवादी बन गये। किसी भी परिस्थिति
में इनके मुँह से केवल सत्य ही निकलता।
परमानंद को फाँसी की
सजा का बिस्मिल के व्यक्तित्व पर प्रभाव
आचार्य सोमदेव
प्रत्येक क्षेत्र में उच्चकोटि का ज्ञान रखते थे। उनके अर्जित ज्ञान के कारण ही वो
लोगों को शीघ्र ही अपने व्यक्तित्व से आकर्षित कर लेते थे। उनके परामर्श के लिये
लाला हरदयाल उनसे सम्पर्क करते रहते थे। राजनीति में स्वामी जी के ज्ञान की कोई
सीमा नहीं थी। वो अक्सर बिस्मिल को धार्मिक व राजनीतिक उपदेश देते थे। लेकिन
रामप्रसाद से राजनीति में अधिक खुलकर बात नहीं करते थे। वो बस केवल इन्हें देश की
राजनीति के सम्बंध में जानकारी रखने के लिये कहते और इन्हें तत्कालीन परिस्थितियों
के सन्दर्भ में व्याख्यान देने के साथ ही अलग-अलग राजनीतिज्ञों की पुस्तकों का
अध्ययन करने की सलाह देते थे।
इस तरह रामप्रसाद में
धीरे-धीरे देश के लिये कुछ कर गुजरने की इच्छा जाग्रत होने लगी। उन्हीं के
प्रोत्साहन पर इन्होंने लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। 1916 में लाहौर षड़यन्त्र के अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया जा रहा था। बिस्मिल इस
मुकदमें से संबंधित प्रत्येक खबर को बड़ी गहराई से पढ़ते थे। क्योंकि ये इस
मुकदमें के मुख्य अभियुक्त भाई परमानंद द्वारा लिखित पुस्तक ‘तावारीख हिन्द’ को पढ़कर इनके विचारों से
बहुत अधिक प्रभावित हो गये थे।
मुकदमें के अन्त में
जब परमानंद को फाँसी की सजा सुनायी गयी तो उस समय बिस्मिल बहुत आहत हुये। इन्होंने
महसूस किया कि अंग्रेज बहुत अत्याचारी है। इनके शासन काल में भारतियों के लिये कोई
न्याय नहीं है। अतः इन्होंने प्रतिज्ञा की कि-
“मैं इसका बदला जरुर लूंगा। जीवन भर अंग्रेजी राज्य को विध्वंस करने का प्रयत्न
करता रहूंगा।”
इस तरह प्रतिज्ञा
करने के बाद वो स्वामी सोम देव के पास गये। उन्हें परमानंद को फाँसी की सजा के
फैसले का समाचार सुनाने के बाद अपनी प्रतिज्ञा के बारे में बताया। इस पर स्वामी जी
ने कहा कि प्रतिज्ञा करना आसान है पर उसे निभा पाना बहुत मुश्किल। इस पर बिस्मिल
ने कहा कि यदि गुरुदेव का आशीर्वाद उनके साथ रहा तो वो पूरी शिद्दत के साथ अपनी
प्रतिज्ञा को पूरा करेंगे। इसके बाद से स्वामी जी खुलकर इनसे राजनीतिक मुद्दों पर
बात करने लगे साथ ही इन्हें राजनीति की शिक्षा भी देने लगे। इस घटना के बाद से
इनके क्रान्तिकारी जीवन का प्रारम्भ हुआ।
1916 में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन था जिसमें शामिल होने के लिये बाल गंगाधर
तिलक आ रहे थे। जब ये सूचना क्रांन्तिकारी विचारधारा के समर्थकों को मिली तो वो सब
बहुत उत्साह से भर गये। लेकिन जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि तिलक जी का स्वागत केवल
स्टेशन पर ही किया जायेगा तो उन सब के उत्साह पर पानी फिर गया।
रामप्रसाद बिस्मिल
को जब ये सूचना मिली तो वो भी अन्य प्रशंसकों की तरह लखनऊ स्टेशन पहुँच गये।
इन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर परामर्श किया कि जैसे एक राष्ट्र के नेता
का स्वागत होना चाहिये उसी तरह से तिलक का भी स्वागत बहुत भव्य तरीके से किया जाना
चाहिये। दूसरे दिन लोकमान्य तिलक स्टेशन पर स्पेशल ट्रेन से पहुँचे। उनके आने का
समाचार मिलते ही स्टेशन पर उनके प्रशसकों की बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गयी। ऐसा लग
रहा था जैसे पूरा लखनऊ उन्हें एक बार देखने के लिये उमड़ पड़ा हो।
लोकमान्य तिलक जी के
स्टेशन पर उतरते ही कांग्रेस की स्वागत-कारिणी के सदस्यों ने उन्हें घेर कर गाड़ी
में बैठा लिया और पूरा स्टेशन “लोकमान्य तिलक की जय, भारत माता की जय” के नारों से गूँज उठा। तिलक
भारी जन समूह से घिरे मुस्कुरा रहे थे।
रामप्रसाद बिस्मिल
उनके स्वगात के लिये खुद बहुत उत्साहित थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में वर्णन करते
हुये लिखा है कि -
“जब कांग्रेस की स्वागत-कारिणी के सदस्यों एंव स्वंयसेवकों ने घेरा बनाकर
लोकमान्य को मोटर में बिठाया, मैं तथा एक एम. ए. का विद्यार्थी मोटर के आगे लेट गये। सब कुछ समझाया गया, मगर किसी की एक न सुनी। हम लोगों की देखा-देखी और कई नवयुवक भी मोटर के सामने
आकर बैठ गये। इस समय मेरे उत्साह का ये हाल था कि मुंह से एक बात नहीं निकलती थी, केवल रोता था और कहता था – ‘मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ, मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ।’ लोकमान्य ने बहुत समझाया कि ऐसा मत करों! परन्तु वहाँ सुनता कौन?”
इनके मित्रों ने एक
दूसरी गाड़ी की व्यवस्था की। उस गाड़ी के घोड़ों को खोल दिया और तिलक को उसमें
बैठा कर स्वंय अपने हाथों से गाड़ी खींचकर जुलूस को निकाला। पूरे रास्ते इन पर
पुष्प वर्षा की गयी।
रामप्रसाद बिस्मिल
लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने गये। यहाँ इनकी मुलाकात कांग्रेस के
उन सदस्यों से हुई जो कांग्रेस के अन्दर क्रान्तिकारी गतिविधियों को कार्यान्वित
करने के लिये गुप्त समिति का निर्माण कर रहे थे। बिस्मिल के अन्दर जो क्रान्तिकारी
विचार उमड़ रहे थे अब उन्हें क्रियान्वित करने का समय आ गया था। ये बाहर से ही इस
समिति के सदस्यों के कार्यों में मदद करने लगे। इनकी लगन को देखकर गुप्त समिति के
सदस्यों ने इनसे सम्पर्क किया और इन्हें कार्यकारिणी समिति का सदस्य बना लिया।
गुप्त समिति के पास
बहुत कम कोष था और क्रान्तिकारी गतिविधियों को जारी रखने के लिये अस्त्र-शस्त्रों
(हथियारों) की आवश्यकता थी। समिति की धन की आवश्यकता को पूरी करने के लिये
रामप्रसाद बिस्मिल ने पुस्तक प्रकाशित करके उसके धन को समिति के कोष में जमा करके
लक्ष्यों की प्राप्ति करने का विचार प्रस्तुत किया। इससे दोहरे उद्देश्यों की
प्राप्ति की जा सकती थी। एक तरफ किताब को बेचकर धन प्राप्त किया जा सकता था, दूसरी तरफ लोगों में क्रान्तिकारी विचारों को जगाया जा सकता था।
बिस्मिल ने अपनी मां
से दो बार 200-200 रुपये लिये और “अमेरिका को आजादी
कैसे मिली? (1916)” पुस्तक का प्रकाशन किया। पुस्तक की बिक्री हो जाने
के बाद इन्होंने अपनी माँ से लिये रुपये वापस कर दिये और सारे हिसाब करने के बाद
में 200 रुपये बच गये जिससे इन्होंने हथियार खरीदे। पूरी
किताबें अभी बिक नहीं पायी थी कि इन्होंने 1918 में ‘देशवासियों के नाम संदेश’ नाम से पर्चें छपवाये। संयुक्त प्रान्त की सरकार ने इनकी किताब और पर्चें
दोनों पर बैन लगा दिया।
28 जनवरी 1918 को रामप्रसाद बिस्मिल ने लोगों में क्रान्तिकारी
विचारों को जागृत करने के लिये “देशवासियों के नाम संदेश” के शीर्षक से पर्चें छपवाकर अपनी कविता “मैनपुरी की
प्रतिज्ञा” के साथ बाँटा। इनकी किताब पर सरकार ने बेचने के लिये रोक
लगा दी जिस पर इन्होंने अपने साथियों की मदद से कांग्रेस अधिवेशन के दौरान बची हुई
प्रतियों को बेचने की योजना बनायी।
1918 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन के दौरान शाहजहाँपुर सेवा समिति की ओर से
स्वंयसेवकों का एक दल एम्बुलेंस से गया। इस दल के साथ बिस्मिल और इनके कुछ साथी गये।
स्वंयसेवकों का दल होने के कारण पुलिस ने इनकी कोई तलाशी नहीं ली और वहाँ पहुँचकर
इन्होंने खुले रुप से पुस्तकों को बेचना शुरु कर दिया। पुलिस ने शक होने पर आर्य
समाज द्वारा बेची जा रही किताबों की जाँच करना शुरु कर दिया। इतने में बिस्मिल बची
हुई प्रतियों को एकत्र करके दल के साथ वहाँ से फरार हो गये।
मैनपुरी षड़यंत्र (1918)
स्वामी सोम देव
रामप्रसाद बिस्मिल के विचारों और कार्यों से जान चुके थे कि ये अपने देश के लिये
कुछ भी कर गुजरने के लिये तैयार है। इनके इन्हीं विचारों को परिपक्वता देने के साथ
ही कार्यरुप में बदलने के लिये आचार्य गेंदा लाल दीक्षित से मिलने की सलाह दी।
गेंदा लाल दीक्षित
उत्तर प्रदेश में औरैया जिले की डीएवी पाठशाला में अध्यापक थे। बिस्मिल ने इनके
साथ मिलकर ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया। इस
समिति के माध्यम से इन्होंने इटावा, मैनपुरी आगरा और
शाहजहाँपुर के युवाओं का एक संगठन बनाया। इस संगठन के लोग शिवाजी की तरह छापेमारी
करके ब्रिटिश शासन में डकैतियाँ करते थे। अपने इन कार्यों के माध्यम से ब्रिटिश
अधिकारियों के मन में भारतियों का खौफ पैदा करना चाहते थे।
जब बिस्मिल अपने दल
के साथ मिलकर दिल्ली और आगरा के बीच एक और लूट की योजना बना रहे थे उसी समय पुलिस
ने शक के आधार पर इस क्षेत्र की तलाशी शुरु कर दी। पुलिस द्वारा अपना पीछा किये
जाने पर ये यमुना नदी में कूद गये, जिस पर इन्हें मरा
हुआ समझ कर पुलिस ने इन्हें खोजना बंद कर दिया। लेकिन इस तलाशी में इनके संगठन के
प्रमुख नेतृत्व-कर्ता गेंदा लाल को अन्य साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया।
पुलिस ने इन सभी के
ऊपर सम्राट के विरुद्ध साजिश करने का मुकदमा दायर कर दिया। साथ ही इस मुकदमें को “मैनपुरी षड़यन्त्र” का नाम दिया। जेल में
गेंदालाल को अन्य सरकारी गवाह रामनारायण के साथ रखा गया। गेंदालाल भी पुलिस को
चकमा देकर रामनारयण के साथ जेल से फरार हो गये। पुलिस ने बहुत छानबीन की लेकिन वो
इन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी। बाद में मजिस्ट्रेट ने मुख्य आरोपी गेंदालाल और
रामप्रसाद बिस्मिल को फरार घोषित करके मुकदमें का फैसला सुना दिया।
मैनपुरी षड़यन्त्र
के मुख्य आरोपी के रुप में फरार होते समय इन्होंने यमुना में छलांग लगायी थी, जिससे इनका कुर्ता नदी में बह गया था और ये तैरकर सुरक्षित नदी के दूसरे
किनारे पर चले गये। इनके कुर्तें को नदी में देखकर पुलिस को लगा कि शायद गोली लगने
से इनकी मौत हो गयी है। अतः इन्हें मृत मान लिया गया। वहीं जब रामप्रसाद को ये
ज्ञात हुआ कि इन्हें मृत घोषित कर दिया गया है तो इन्होंने मैनपुरी षड़यन्त्र पर
फैसले होने तक स्वंय को प्रत्यक्ष न करने का निर्णय किया। ये 1919 से 1920 के बीच में भूमिगत होकर कार्य करने लगे। इस बीच
इन्होंने अपने किसी भी करीबी से कोई भी सम्पर्क नहीं किया।
1919-20 में भूमिगत रहते हुये राम प्रसाद बिस्मिल उत्तर प्रदेश के कई गाँवों में रहे।
कुछ समय के लिये रामपुर जहाँगीर गाँव में रहे, जो वर्तमान समय में
ग्रेटर नोएडा के गौतम बुद्ध जिले में आता है, कुछ दिनों के लिये
मैनपुरी जिले के कोसमा गाँव में और आगरा जिले के बाह और पिन्नहट गाँवों में रहे।
ये अपनी माँ से कुछ धन उधार लेने के लिये अपने पैतृक गाँव भी गये।
बिस्मिल ने भूमिगत
रहते हुये अनेक पुस्तकें लिखी। जिनमें से उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
- मन की लहर (कविताओं का
संग्रह)।
- बोल्वेशिक की करतूत (एक
क्रान्तिकारी उपन्यास)।
- योगिक साधन (आत्मचिंतन
के लिये योगा को परिभाषित किया गया है)।
- स्वाधीनता की देवी या
कैथरीन (रुसी क्रान्ति की ग्रांड मदर कैथरीन लिये समर्पित आत्मकथा)।
1920 में सरकार ने अपनी उदारता की नीति के कारण मैनपुरी षड़यन्त्र मुकदमें के
आरोपियों को मुक्त करने की घोषणा कर दी। इस घोषणा के बाद रामप्रसाद बिस्मिल अपने
गाँव शाहजहाँपुर वापस लौट आये और अपने जिले के अधिकारियों से आकर मिले। उन
अधिकारियों ने इनसे एक शपथ पत्र लिया जिस पर ये लिखवाया गया कि वो आगे से किसी भी
क्रान्तिकारी गतिविधि में भाग नहीं लेंगें। इनके इस प्रकार का शपथ पत्र देने पर
इन्हें अपने गाँव में शान्तिपूर्वक रहने की अनुमति मिल गयी।
शाहजहाँपुर आने के
बाद बिस्मिल ने आम आदमी का जीवन जीना शुरु कर दिया। ये कुछ दिनों के लिये भारत
सिल्क निर्माण कम्पनी में प्रबंधक के रुप में कार्यरत रहे। लेकिन बाद में इन्होंने
बनारसी दास के साथ मिलकर साझेदारी में अपना खुद का सिल्क बनाने का उद्योग स्थापित
कर लिया। रामप्रसाद ने कम समय में ही स्वंय को इस व्यवसाय में स्थापित करके काफी
धन अर्जित कर लिया। इतना सब कुछ करने पर भी इन्हें आत्मिक शान्ति नहीं मिल रही थी, क्योंकि अभी तक ये ब्रिटिश सरकार को भारत से बाहर करने की अपनी प्रतिज्ञा को
पूरी नहीं कर पाये थे।
जिस समय रामप्रसाद
बिस्मिल आम नागरिक के रुप में जीवन जी रहे थे, उस समय देश में
अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आन्दोलन चल रहा था। गाँधी जी से प्रेरित होकर ये
शाहजहाँपुर के स्वंय सेवक दल के साथ अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में गये। इनके
साथ कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य प्रेमकृष्ण खन्ना और अशफ़ाक उल्ला खाँ भी थे।
इन्होंने एक अन्य कांग्रेस सदस्य मौलाना हसरत मौहानी के साथ पूर्ण स्वराज्य की
भूमिका वाले प्रस्ताव को पास कराने में सक्रिय भूमिका भी निभाई।
कांग्रेस के अधिवेशन
से लौटने के बाद इन्होंने संयुक्त प्रान्त के युवाओं को असहयोग आन्दोलन में भाग
लेने के लिये प्रेरित किया। ये सभाओं को आयोजित करके उनमें भाषण देते। इनके उग्र
भाषणों और कविताओं से लोग बहुत प्रभावित हुये और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अहसहयोग
आंदोलन में भाग लेने लगे। इन कार्यों के कारण ये ब्रिटिश सरकार के शत्रु बन गये।
इनकी अधिकांश पुस्तकों और लेखों को सरकार ने प्रकाशित करने व बेचने पर प्रतिबंध
लगा दिया।
1922 में गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन को वापस लेने के कारण रामप्रसाद बिस्मिल ने
अपने नेतृत्व में संयुक्त प्रान्त के युवाओं को संगठित करके क्रान्तिकारी दल का
निर्माण किया। गदर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल की सहमति से 1923 में पार्टी के संविधान को बनाने के लिये ये इलाहबाद गये। पार्टी के मुख्य
लक्ष्यों और उद्देश्यों को पीले रंग के कागज पर लिखा गया। इसके कारण इस पार्टी को “पीला कागज संविधान” भी कहा जाता था। पार्टी की
स्थापना और उद्देश्यों के निर्माण में बिस्मिल के साथ-साथ शचीन्द्र नाथ सान्याल, जय गोपाल मुखर्जी आदि शामिल थे।
क्रान्तिकारी पार्टी
के सदस्यों की पहली सभा का आयोजन 3 अक्टूबर 1923 को कानपुर में किया गया। इस सभा में बंगाल प्रान्त के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी
शचीन्द्र सान्याल को पार्टी का चैयरमैन चुना गया। रामप्रसाद बिस्मिल को शाहजहाँपुर
जिले के नेतृत्व के साथ ही साथ शस्त्र विभाग का प्रमुख नियुक्त किया गया। सभा में
समिति ने सबकी सहमति से पार्टी के नाम को बदल कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोशिएशन
रख दिया।
काकोरी कांड
हिन्दुस्तान
रिपब्लिकन एसोशिएशन के सदस्यों ने अपने संगठन के उद्देश्यों को लोगों तक पहुँचाने
के लिये 1925 में “द रिव्युनरी” के नाम से 4 पेजों का घोषणा पत्र छापकर पूरे
भारत में इसे बाँटा। इस पत्र में अंग्रेजों से क्रान्तिकारी गतिविधियों के द्वारा
भारत को आजाद कराने की घोषणा के साथ ही गाँधी जी की नीतियों की आलोचना की और
युवाओं को इस संगठन से जुड़ने का निमंत्रण दिया था। इस घोषणा पत्र के जारी होते ही
ब्रिटिश सरकार की पुलिस बंगाल के क्रान्तिकारियों की गिरफ्तारी करने लग गयी। पुलिस
ने शचीन्द्र नाथ सान्याल को इस घोषणा पत्र की बहुत सारी प्रतियों के साथ गिरफ्तार कर
लिया। शीर्ष नेता की गिरफ्तारी के बाद संगठन की सारी जिम्मेदारी बिस्मिल पर आ गयी।
संगठन के कार्यों के लिये ये ही कर्ता-धर्ता बन गये।
एच.आर.ए. के सामने
एक साथ दोहरा संकट आ गया। एक ओर तो अनुभवशाली नेताओं का गिरफ्तार होना दूसरी तरफ
संगठन के सामने आर्थिक समस्या। जिन क्रान्तिकारी उद्देश्यों के लिये संगठन को
स्थापित किया गया उन्हें संचालित करने के लिये धन की आवश्यकता थी। इसके लिये संगठन
की बैठक बुलायी गयी और उसमें डकैती कर धन इकट्ठा करने का निर्णय लिया गया। लेकिन
गाँवों में डाले गये डाकों से संगठन के लिये पर्याप्त हथियार खरीदने के लिये धन
एकत्र नहीं हो पाता, जिससे की अंग्रेजों के खिलाफ
क्रान्तिकारी गतिविधियों को कार्यरुप में परिणित किया जा सके। अतः सभी सदस्यों ने
मिलकर सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनायी।
इस बैठक में
रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, अशफ़ाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह, रामकृष्ण खत्री, शचीन्द्र नाथ बख्शी, चन्द्रशेखर आजाद आदि ने भाग लिया। इसमें ये निर्णय लिया गया कि सभी डकैतियों
का नेतृत्व बिस्मिल करेंगें। 9 अगस्त 1925 की शाम को ट्रेन से सरकारी धन लूटने की योजना पर अशफ़ाक को छोड़कर सबने सहमति
दे दी और डकैती की योजना बना ली गयी। इस डकैती की योजना में 10 सदस्यों ने भाग लिया और नेतृत्व का सारा भार इनके ऊपर था।
9 अगस्त 1925 की शाम को दल के सदस्यों ने शाहजहाँपुर से लखनऊ जाने वाली ट्रेन की दूसरे
दर्जें की चार टिकटें ली गयी, जिसमें शचीन्द्र बख्शी, राजेन्द्र लाहिड़ी, अशफ़ाक उल्ला खाँ और बिस्मिल
बैठ गये और बाकि 6 साथी जिसमें चन्द्रशेखर आजाद
व रोशन सिंह आदि शामिल थे तीसरे दर्जें में साधारण यात्रियों के रुप में बैठ गये।
लखनऊ स्टेशन पर
पहुँचने से पहले काकोरी नामक स्थान पर गाड़ी को चैन खींच कर रोका गया। बिस्मिल के
निर्देशानुसार बख्शी ने गाड़ी के गार्ड को कब्जें में लिया, ये स्वंय गार्ड के दर्जे से खजाने का सन्दूक निकालने के लिये गये, 2 सदस्य गाड़ी से दूर खड़े होकर 5-5 मिनट के अन्तराल पर फायर करते, ताकि गाड़ी में बैठे
पुलिस वालों और यात्रियों को लगे की गाड़ी चारों तरफ से घिरी हुई है।
बाकि साथी भी
सतर्कता से गाड़ी में बैठे यात्रियों के साथ-साथ ब्रिटिश पुलिसकर्मियों की निगरानी
के कार्य को करने लगे। अशफ़ाक ने हथाड़े से तिजोरी का ताला तोड़कर सारा धन लूट
लिया। लूट के कार्य की समाप्ति की सूचना अपने साथियों को देने के लिये बिस्मिल ने
अपनी बन्दूक से लगातार दो फायर किये और सभी सदस्य पास के ही जंगलों में झाड़ियों
में छुपकर फरार हो गये।
ये सारी योजना बहुत
ही सावधानी से बनाकर कार्यान्वित की गयी थी। लेकिन फिर भी कुछ कमी रह गयी। घटना
स्थल पर पुलिस को सुराग के रुप में एक चादर और बन्दूक का एक खोल मिला। लूट के अगले
ही दिन सभी अखबारों की सुर्खियों में इसी की खबर थी। लूट की यह घटना पूरे देश में
एक आग की तरह फैल गयी।
ब्रिटिश सरकार को भी
जाँच द्वारा ये ज्ञात हो गया कि इस डकैती के पीछे क्रान्तिकारियों का हाथ है जो
अंग्रेजों के खिलाफ कोई बड़ा षड़यन्त्र करने वाले है। इसके अगली सुबह ही जगह-जगह
छापेमारी करके बहुत बड़ी संख्या में क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार किया गया। इस केस
के सिलसिले में पूरे भारत वर्ष से लगभग 40 क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार करके इन पर मुकदमा चलाया गया।
एच.आर.ए. के 28 सदस्यों पर षड़यंत्र मे शामिल होने का मुकदमा दर्ज किया गया। बिस्मिल, अशफ़ाक और आजाद के गिरफ्तारी के वारंट निकाले गये। लेकिन चन्द्रशेखर आजाद को
पुलिस जीते जी नहीं पकड़ पायी। गिरफ्तारियों की शुरुआत में तो अशफ़ाक भी फरार होने
में सफल रहे लेकिन बाद में उन्हें भी कैद कर लिया गया। बिस्मिल पुलिस को चकमा देकर
कुछ समय के लिये दिल्ली में भूमिगत रहे। बाद में अपने एक मित्र के यहाँ छुपे रहे। जनवरी की कड़ाके की ठंड में रात के समय ये अपने घर आये। इनके घर आने की सूचना
पुलिस को गुप्तचरों के माध्यम से उसी रात मिल गयी। अगली सुबह इन्हें भी गिरफ्तार
कर लिया गया।
सभी तरफ से सबूत
जुटाने के बाद पुलिस ने करीब एक साल जेल में रखने के बाद काकोरी षड़यन्त्र के
अभियुक्तों पर 29 मई 1927 से सेशन कोर्ट में मुकदमा चलना शुरु हुआ। मि. हैमिल्टन इस केस के विशेष जज
नियुक्त किये गये। सरकारी वकील के रुप में जगनारायण मुल्ला को रखा गया। दूसरी ओर
अभियुक्तों की ओर से पं. हरक नारायण ने मुकदमें की पैरवी की जिसमें कलकत्ते से
चौधरी, मोहनलाल सक्सेना, चन्द्रभानु गुप्त और
कृपाशंकर गुप्त भी अभियुक्तों की पैरवी में सहयोग करने लगे।
मुकदमें की पैरवी के
दौरान बिस्मिल को जब ये ज्ञात हुआ कि उनकी पार्टी के ही दो सदस्यों ने दल की योजना
के बारे में पुलिस को सूचना दी है तो इन्हें बहुत गहरा आघात लगा। एच.आर.ए. के 28 सदस्यों पर मुकदमा दर्ज था जिसमें से 2 व्यक्तियों पर बिना
कोई स्पष्ट कारण दिये मुकदमा हटा दिया गया, 2 अभियुक्तों को सरकारी गवाह बनाकर उनकी सजा को माफ कर दिया और मुकदमें के सेशन
के समय सेठ चम्पालाल की तबीयत बहुत ज्यादा खराब होने के कारण उन्हें कोर्ट में पेश
नहीं किया गया। अन्त में केवल 20 व्यक्तियों को कोर्ट में जज
के सामने पेश करके मुकदमा चलाया गया और इनमें से भी शचीन्द्र नाथ विश्वास व
हरगोबिन्द को सेशन अदालत ने मुक्त कर दिया। बाकि 18 बचे व्यक्तियों को सजा सुनायी गयी।
इन सभी अभियुक्तों
पर सेशन कोर्ट में भारतीय कानून की धारा 121 ए, 120 बी. और 369 के तहत मुकदमा दायर किया गया था। मुकदमें के दौरान 18 अभियुक्तों को सजा सुनायी गयी जो निम्नलिखित हैः-
- रामप्रसाद बिस्मिल और
राजेन्द्र लाहिड़ी – पहली दो धाराओं आजीवन
काला पानी व तीसरी धारा में फाँसी की सजा।
- रोशन सिंह – पहली दो धाराओं में 5-5 साल की कैद और तीसरी
धारा में फाँसी।
- शचीन्द्र सान्याल – आजीवन काला पानी की सजा।
- मन्मथ नाथगुप्त व
गोविंद चरण सिंह – दोनों को 14-14 साल की सख्त सजा।
- रामकृष्ण खत्री, मुकुंदी लाल, योगोश चटर्जी व
रामकुमार सिन्हा – प्रत्येक को 10 वर्ष की सख्त कैद।
- सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य
– 7 साल की सख्त कैद की सजा।
- विष्णु शरण दुबलिस, प्रणवेश चटर्जी, प्रेमकिशन खन्ना, रामदुलारे त्रिवोदी व रामनाथ पाण्डेय – सभी को 5-5 साल की सख्त सजा।
- भूपेन्द्र सान्यास व
बनवारीलाल (दोनों इकबाली गवाह) – प्रत्येक धारा में 5-5 साल की कैद की सजा।
अशफ़ाक उल्ला खाँ
अभी तक फरार थे। किसी मुखबिर की सूचना पर उन्हें दिल्ली के एक होटल से गिरफ्तार
करके बिस्मिल के लेफ्टीनेंट के रुप में मुकदमा दर्ज करके चलाया गया। इनके ऊपर 5 धाराओं में केस दर्ज किया गया, जिसमें से पहली 3 धाराओं में फाँसी की सजा और शेष दो धाराओं में आजीवन काले पानी की सजा सुनायी
गयी थी।
इस तरह काकोरी केस
में 4 अभियुक्तों को फाँसी की सजा दी गयी। साथ ही ये भी कहा गया
कि फाँसी के दंड की स्वीकृति अवध के चीफ कोर्ट से ली जायेगी और अपील एक सप्ताह के
भीतर ही हो सकेगी। 6 अप्रैल 1927 को सेशन जज ने अपना अन्तिम फैसला सुनाया जिसके बाद 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई, जिसके परिणामस्वरुप कुछ सजायें कम हुई और कुछ बढ़ा दी गयी।
रामप्रसाद बिस्मिल
ने अपील करने से पहले संयुक्त प्रान्त के गर्वनर को सजा माफी के सन्दर्भ में एक
मेमोरियल भेजा था। इस मेमोरियल में इन्होंने ये प्रतिज्ञा की थी कि अब वो भविष्य
में कभी भी किसी भी क्रान्तिकारी दल से कोई संबंध नहीं रखेंगे। इस मेमोरियल का जिक्र
इन्होंने अपनी अन्तिम दया की अपील में की और उसकी एक प्रति भी चीफ कोर्ट को भेजी।
लेकिन चीफ कोर्ट के जजों ने इनकी कोई भी प्रार्थना स्वीकर नहीं की।
चीफ कोर्ट में अपील
की बहस के दौरान इन्होंने स्वंय की लिखी बहस भेजी जिसका बाद में प्रकाशन भी किया
गया। इनकी लिखी बहस पर चीफ कोर्ट के जजों को विश्वास ही नहीं हुआ कि ये बहस
इन्होंने स्वंय लिखी है। साथ ही इन जजों को ये भी भरोसा हो गया कि यदि बिस्मिल को
स्वंय ही इस केस की पैरवी करने की अनुमति दे दी गयी तो ये कोर्ट के सामने अपने पेश
किये गये तथ्यों के द्वारा सजा माफ कराने में सफल हो जायेगें। अतः इनकी हरेक अपील
को खारिज कर दिया गया। कोर्ट ने इन्हें ‘निर्दयी हत्यारे’ और ‘भंयकर षड़यन्त्रकारी’ आदि नाम दिये गये।
कोर्ट की 18 महीने तक चली लम्बी प्रक्रिया के बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन
सिंह की फाँसी की सजा को बरकरार रखा गया। 19 दिसम्बर 1927 को ब्रिटिश सरकार ने रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर
की जेल में सुबह 8 बजे फाँसी दे दी। बिस्मिल के
साथ ही अशफ़ाक को फैजाबाद जेल में और रोशन सिंह को इलाहबाद के नैनी जेल में फाँसी
दी गयी। जबकि राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी की निश्चित तिथि से 2 दिन पहले 17 दिसम्बर को, गोंडा जेल में फाँसी
दे दी गयी।
रामप्रसाद बिस्मिल
की फाँसी की सूचना के साथ ही लोग लाखों की संख्या में उनकी जेल के बाहर इकट्ठा हो
गये। इतनी बड़ी संख्या में भीड़ को देखकर ब्रिटिश जेल के अधिकारी डर गये। उन्होंने
जेल का मुख्य द्वार बन्द कर दिया। इस पर भीड़ ने जेल की दीवार तोड़ दी और रामप्रसाद
बिस्मिल के पार्थिव शरीर को सम्मान के साथ उनके माता-पिता के सामने लाये।
शहर के लोगों को
बिस्मिल के अन्तिम दर्शन के लिये उनके पार्थिव शरीर को गोरखपुर के घन्टाघर पर रखा
गया था। इसके बाद क्रान्ति के इस महान पुजारी के शरीर को पूरे सम्मान के साथ
राप्ति नदी के किनारे अन्तिम संस्कार के लिये लेकर गये। इनके शोक सम्मेलन के जूलुस
में हिन्दी साहित्य के महान लेखक होने के साथ ही कल्याण हनुमान प्रसाद पोद्दार के
संस्थापक महावीर प्रसाद द्विवेदी और राजनीतिज्ञ गोविन्द बल्लभ पन्त भी शामिल हुये
थे। वो दोनों अंतिम संस्कार की अन्तिम विधि होने तक वहाँ उपस्थित रहे थे।
‘क्रान्ति की देवी’ के पुजारी खुद तो देश के लिये शहीद हो गये लेकिन अपनी शहादत के साथ ही युवा
क्रान्तिकारियों के एक नयी फौज के निर्माण के मार्ग को भी प्रशस्त कर गये।
रामप्रसाद बिस्मिल
के साहित्यिक कार्य
बिस्मिल एक महान क्रान्तिकारी
तो थे ही लेकिन साथ ही महान देशभक्ति कविताओं को लिखने वाले कवि भी थे। इन्होंने न
केवल पद्य में बल्कि गद्य साहित्य में भी अनेक रचनाएँ की। इन्होंने अपने 11 साल के क्रान्तिकारी जीवन में 11 किताबों की रचना की। इनमें से इनके कुछ प्रसिद्ध उल्लेखनीय कार्य निम्नलिखित
हैः
- सरफ़रोशी की तमन्ना
(भाग-1) – बिस्मिल के व्यक्तित्व और साहित्यिक कार्यों
का आलोचनात्मक अध्ययन।
- सरफ़रोशी की तमन्ना
(भाग-2) – सन्दर्भ और व्याकरण सम्बंधी प्रशंसा के साथ
बिस्मिल द्वारा लिखी गयी लगभग 200 कविताएँ।
- सरफ़रोशी की तमन्ना
(भाग-3) – इस भाग में बिस्मिल द्वारा लिखी गयी 4 किताबों का संग्रह है। ये 4 किताबें है: निज जीवन कथा (मूल आत्मकथा), अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास, कैथरीन – स्वाधीनता की देवी
(अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवादित) और यौगिक साधन (बंग्ला से हिन्दी में
अनुवादित)।
- सरफ़रोशी की तमन्ना
(भाग-4) – क्रान्तिकारी जीवन पर एक किताब और इसके साथ ही
कुछ लेख जो विभिन्न पत्रों और पत्रिकाओं में अलग-अलग नामों से प्रकाशित किये
गये।
- मन की लहर – ब्रिटिश शासन काल में लिखी गयी कविताओं का संग्रह।
- बोल्वेशिक की करतूत – क्रान्तिकारी उपन्यास।
- क्रान्ति गीतांजलि – कविता संग्रह।
रामप्रसाद बिस्मिल
की देश भक्ति कविताओं के कुछ अंश
- “मिट गया जब मिटने वाला
फिर सलाम आया तो क्या! दिल की बर्बादी के बाद उनका पैगाम आया तो क्या!
मिट गईं जब सब
उम्मीदें मिट गए जब सब ख़्याल, उस घड़ी गर नामावर लेकर
पैगाम आया तो क्या!
ऐ दिले-नादान मिट जा
तू भी कू-ए-यार में, फिर मेरी नाकामियों के बाद
काम आया तो क्या!
काश! अपनी जिंदगी
में हम वो मंजर देखते, यूँ सरे-तुर्बत कोई
महशर-खिराम आया तो क्या!
आख़िरी शब्दीद के
काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प, सुबह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या!”
- “सरफ़रोशी की तमन्ना अब
हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना
बाजुए-क़ातिल में है!
वक़्त आने दे बता
देंगे तुझे ऐ आसमाँ! हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है!
खींच कर लाई है हमको
क़त्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट
कूच-ए-क़ातिल में है!
ऐ
शहीदे-मुल्के-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का
चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है!
अब न अगले बल्वले
हैं और न अरमानों की भीड़, सिर्फ मिट जाने की हसरत अब
दिले-'बिस्मिल' में है!”
- “मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;
अदालत के अदब से हम
यहाँ तशरीफ लाए हैं।
पलट देते हैं हम
मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;
कि हमने आँधियों में
भी चिराग अक्सर जलाये हैं।”