Wednesday, June 12, 2019

मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा


किसानों, मछुआरों, बुनकरों और गरीबों के लिए कुछ राहत या धन देने की बात तो एक कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारियों के तहत समझ आती है, लेकिन दिल्ली की केजरीवाल सरकार का यह प्रस्ताव समझ से परे है कि मेट्रो और डीटीसी की बसों में सभी महिलाओं को मुफ्त यात्र की सुविधा दी जाएगी। पहले इस बात का जवाब तलाशते हैं कि किसानों के लिए ऐसी कोई राहत क्यों जरूरी है-चाहे वह पीएम-किसान के नाम पर हो या ओडिशा की कालिया योजना या तेलंगाना की रैयतबंधु योजना के नाम पर। चूंकि किसानों की कर्ज माफी या रियायती बिजली की लगातार आलोचना होती रहती है लिहाजा इसका जवाब सिर्फ यही है कि यदि किसान, मजदूर गांव छोड़कर शहरों, महानगरों में पहुंचने को विवश हो गया तो शहरी मध्य वर्ग की सारी सुविधाएं हवा हो जाएंगी। ध्यान रहे कि शहरों पर ग्रामीण आबादी के पलायन के चलते बहुत दबाव है।
ऐसे में किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार की ओर से जितनी भी रियायत दी जा सकें, दी जानी चाहिए। वास्तव में यदि किसानों को उनकी उपज का उचित दाम मिले और बिचौलिए उनका शोषण न कर सकें तो इस देश का किसान कभी भी खैरात की बदौलत जिंदा नहीं रहना चाहेगा। इस दूसरे विकल्प पर ध्यान देने की जरूरत है। यदि किसानों को वाजिब दाम मिलेगा तो उनके साथ काम करने वाले मजदूरों को भी सही मजदूरी मिलनी संभव होगी। इससे एक स्वावलंबी कृषि व्यवस्था धीरे-धीरे पनपने लगेगी, लेकिन वोट की होड़ में दिल्ली की महिलाओं को मेट्रो और डीटीसी की बसों में मुफ्त यात्र की सुविधा देने का विचार तो सरासर गलत है। इसमें यदि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालीं महिलाएं, बच्चियां शामिल हों तो एक बार को बात समझ में आती है, लेकिन सरकारी उपक्रमों, बैंकों, स्कूलों, कॉलेजों में कार्यरत और ठीक-ठाक वेतन/पेंशन पा रहीं महिलाओं को यह खैरात क्यों? समर्थ और संपन्न तबके से तो और अधिक किराया वसूला जाना चाहिए। समर्थ वर्ग को मुफ्त यात्र जैसी सुविधा असमानता को और बढ़ावा ही देगी।
दिल्ली जैसे महानगर में मुफ्तखोरी के ऐसे और भी कई कार्यक्रम पिछले दो-तीन दशक से पनपे हैं। बतौर उदाहरण सौ-दो सौ घरों कीकॉलोनी को अपने पार्क के रखरखाव के लिए हर साल एकाध लाख रुपये सरकार देती है। है न आश्चर्य की बात। वर्षो से यह चल रहा है। तथाकथित प्रबंधन समितियों के सदस्यों के चेहरे ऐसे पैसों से खिल उठते हैं। आश्चर्य की बात है कि इन कॉलोनियों में वह बुद्धिजीवी भी रहता है जो गरीबों के लिए सबसे अधिक आंसू बहाता है। सरकार को लूटने के लिए ऐसे कई मुखौटे इस शहर में ईजाद किए गए हैं। जाहिर है कि यदि आवासीय कॉलोनियों को पैसा दिया जा रहा है तो उन्हें कुछ सार्थक कामों जैसे कि भूमिगत जल संरक्षण और सौर ऊर्जा के उपयोग के लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह काम एक नियमित कड़े निरीक्षण के तहत किया जाना चाहिए। दिल्ली की सत्ता में बैठे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की लगभग बीस प्रतिशत आबादी को आज भी केवल एक वक्त का खाना ही नसीब हो पाता है।
देश में गरीबी के ऐसे-ऐसे विवरण हैं जिन्हें सुनकर आत्मा कांप उठे। ओडिशा के उन लोगों को भूला नहीं जा सकता जो आम की गुठलियां खाकर जिंदा रहते हैं। वहां की एक 11 वर्षीय बच्ची का बयान था कि आर्थिक तंगी के कारण उसने कभी कोई सब्जी नहीं खाई। नमक-चावल या चावल के पानी से ही उसका जीवन चलता रहा है। दिल्ली की महिलाओं को मुफ्त यात्र की सुविधा देने वाले कर्णधारों को यह समझना होगा कि महानगरों से बाहर भी देश है। यदि सरकारी खजाने में कुछ पैसा है तो अस्पताल बनवाओ, टूटे स्कूलों की मरम्मत करवाओ, उन सड़कों को ठीक करवाओ जिन पर चलना मुश्किल है। दिल्ली की बात करें तो यहां न तो गरीब बस्तियां कम हैं और न गरीब। दिल्ली में स्कूल-कॉलेजों की भी उतनी ही कमी है। इस सबको देखते हुए मेट्रो और डीटीसी की बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्र का प्रस्ताव तो अनैतिक ही है।
यदि दिल्ली सरकार वाकई आधी आबादी यानी महिलाओं के प्रति संवेदनशील है तो उसे उनकी प्रमुख समस्या पर ध्यान देना चाहिए अर्थात उनकी सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए, इस पर विचार करना चाहिए। हालांकि इस संबंध में निर्भया कांड से लेकर अब तक कई कानून बने हैं, लेकिन बावजूद इसके दिल्ली महिलाओं के लिए असुरक्षित शहर माना जाता है। महिलाओं की इन चिंताओं को दूर करने के लिए पुलिस के समानांतर भी कोई व्यवस्था करनी पड़े तो राज्य सरकार को करनी चाहिए। हर सर्वे में दिल्ली महिलाओं की सुरक्षा के मामले में मुंबई, चेन्नई और कोलकाता के मुकाबले पीछे दिखती है। नि:संदेह दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से तीन गुनी और देश में सबसे अधिक है। इसके बढ़ते राजस्व का कारण अनेक प्रकार के भू-संपदा कर, राष्ट्रीय राजधानी को मिलने वाली रियायतें और बिक्री कर आदि हैं, लेकिन दिल्ली सरकार को याद रखना चाहिए कि यह भारी-भरकम राजस्व ऐसे ही अनुत्पादक कार्यो पर उड़ाने के लिए नहीं है। यह सही है कि दुनिया के कुछ देशों ने इसी तरह के प्रयोग किए हैं, लेकिन इससे वहां कारों की खरीद पर कोई असर नहीं पड़ा। हम इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि भारत उन यूरोपीय देशों की तरह संपन्न देश नहीं है जहां महिलाओं के लिए मुफ्त यात्र की सुविधा देने के प्रयोग किए गए हैं।
एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में मेट्रो और डीटीसी की बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्र की सुविधा देने से सरकारी कोष पर सालाना करीब आठ सौ करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। क्या यह छोटी राशि है? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि डीटीसी की बसों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। एक समय डीटीसी के बेड़े में छह हजार से अधिक बसें थी। आज उनकी संख्या चार हजार से भी कम रह गई है। एक तथ्य यह भी है कि दिल्ली सरकार ने पिछले चार साल से यानी 2015 से कोई बस नहीं खरीदी है। यह धारणा सही नहीं कि महिलाओं को मेट्रो और डीटीसी की बसों में मुफ्त यात्र की सुविधा देने से दिल्ली में कारों की खरीद में कमी आ जाएगी और उसके चलते प्रदूषण की रोकथाम होगी। ऐसा होने के कहीं कोई आसार नहीं, फिर भी ऐसे कथित सर्वेक्षण आ रहे हैं कि दिल्ली सरकार के प्रस्ताव पर अधिकांश लोग खुश हैं। इससे भी कई तरह के सवाल खड़े होते हैं।

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