बाजीराव पेशवा प्रथम
18 अगस्त 1700 - 28 अप्रैल 1740
बाजीराव पेशवा प्रथम महान सेनानायक थे। वे 1720 से 1740 तक मराठा साम्राज्य के चौथे
छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा
(प्रधानमन्त्री) रहे। इनको 'बाजीराव बल्लाल' तथा 'थोरले बाजीराव' के नाम से
भी जाना जाता है। इन्हें प्रेम से लोग अपराजित हिन्दू सेनानी सम्राट भी कहते थे।
इन्होंने अपने कुशल नेतृत्व एवं रणकौशल के बल पर मराठा साम्राज्य का
विस्तार (विशेषतः उत्तर भारत में) किया। इसके कारण ही उनकी मृत्यु के 20 वर्ष बाद
उनके पुत्र के शासनकाल में मराठा साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच सका। बाजीराव
प्रथम को सभी 9 महान पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
इनके पिता बालाजी विश्वनाथ पेशवा
भी शाहूजी महाराज के पेशवा थे। बचपन से बाजीराव को
घुड़सवारी करना, तीरंदाजी, तलवार भाला,
बनेठी, लाठी आदि चलाने का शौक था। 13-14 वर्ष
की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ घूमते थे। उनके साथ घूमते हुए वह दरबारी चालों व रीतिरिवाजों को आत्मसात करते रहते
थे।यह क्रम 19-20 वर्ष की आयु तक चलता रहा। जब बाजीराव के पिता का अचानक निधन हो
गया तो मात्र बीस वर्ष की आयु के बाजीराव को शाहूजी महाराज ने पेशवा बना दिया।
जब महाराज शाहू ने 1720 में बालाजी विश्वनाथ के मृत्यूपरांत उसके 19 वर्षीय ज्येष्ठपुत्र बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया तो पेशवा पद वंशपरंपरागत बन
गया। अल्पवयस्क होते हुए भी बाजीराव ने असाधारण योग्यता प्रदर्शित की। पेशवा बनने
के बाद अगले बीस वर्षों तक बाजीराव मराठा साम्राज्य को बढ़ाते रहे। उनका
व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था; तथा उनमें जन्मजात नेतृत्वशक्ति थी। अपने अद्भुत
रणकौशल, अदम्य साहस और अपूर्व संलग्नता से, तथा प्रतिभासंपन्न अनुज श्रीमान चिमाजी साहिब अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र
ही उसने मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान् बना दिया। इसके लिए उन्हें अपने दुश्मनों से लगातार लड़ाईयाँ करना पड़ी। अपनी वीरता,
अपनी नेतृत्व क्षमता व युद्ध-कौशल योजना द्वारा यह महान वीर हर
लड़ाई को जीतता गया। विश्व इतिहास में महान श्रीमंतबाजीराव पेशवा एकमात्र ऐसे
योद्धा है जो कभी नहीं हारे। छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह बहुत ही कुशल
घुड़सवार थे। घोड़े पर बैठे-बैठे भाला चलाना, बनेठी घुमाना,
बंदूक चलाना उनके बाएँ हाथ का खेल था। घोड़े पर बैठकर
श्रीमंतबाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वाला घुड़सवार अपने
घोड़े सहित घायल हो जाता था।
इस समय भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों
के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। ये भारत के देवस्थान तोड़ते, जबरन धर्म परिवर्तन करते, महिलाओं व बच्चों को मारते
व भयंकर शोषण करते थे।[1] ऐसे में श्रीमंतबाजीराव पेशवा ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी
विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। लोग उन्हें शिवाजी का
अवतार मानने लगे। श्रीमंतबाजीराव पेशवा में शिवाजी महाराज जैसी ही वीरता व पराक्रम
था तो एक अपवाद छोड़कर लगभग वैसा ही उच्च चरित्र भी था।
शकरखेडला (Shakarkhedla)
में श्रीमंत पेशवा ने मुबारिज़खाँ को परास्त किया। (1724)। मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित
किया (1724-26)। पालखेड़ में महाराष्ट्र के परम शत्रु निजामउलमुल्क को पराजित कर
(1728) उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली। फिर मालवा और बुंदेलखंड पर आक्रमण कर मुगल
सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की (1728)। तदनंतर मुहम्मद
खाँ बंगश को परास्त किया (1729)। दभोई में
त्रिंबकराव को नतमस्तक कर (1731) उसने आंतरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आंग्रिया तथा पुर्तगालियों एवं अंग्रेजो को भी बुरी तरह विजित किया। दिल्ली का अभियान (1737) उनकी
सैन्यशक्ति का चरमोत्कर्ष था। उसी वर्ष भोपाल में श्रीमंतबाजीराव
पेशवा ने फिर से निजाम को पराजय दी। अंतत: 1739 में उन्होनें नासिरजंग पर विजय
प्राप्त की।
अपने यशोसूर्य के मध्यकाल में ही 28 अप्रैल 1740 को अचानक रोग के
कारण उनकी असामयिक मृत्यु हुई। मस्तानी नामक मुसलमान स्त्री
से उनके संबंध के प्रति विरोधप्रदर्शन के कारण श्रीमंत साहेब के अंतिम दिन क्लेशमय
बीते। उनके निरंतर अभियानों के परिणामस्वरूप निस्संदेह महाराष्ट्रीय शासन को
अत्यधिक भार करना पड़ा। मराठा साम्राज्य सीमातीत विस्तृत होने के कारण असंगठित रह
गया, मराठा संघ में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ प्रस्फुटित
हुईं, तथा मराठा सेनाएँ विजित प्रदेशों में असंतुष्टिकारक
प्रमाणित हुई; तथापि श्रीमंतबाजीराव पेशवा की लौह लेखनी ने
निश्चय ही महाराष्ट्रीय इतिहास का गौरवपूर्ण परिच्छेद रचा। इतिहास तथा राजनीति के एक विद्वान् सर रिचर्ड टेंपिल ने बाजीराव की महत्ता
का यथार्थ अनुमान एक वाक्य समूह में किया है, जिससे उसका
असीम उत्साह फूट-फूट कर निकल रहा है। वह लिखता है - सवार
के रूप में बाजीराव को कोई भी मात नहीं दे सकता था। युद्ध में वह सदैव अग्रगामी
रहता था। यदि कार्य दुस्साध्य होता तो वह सदैव अग्नि-वर्षा का सामना करने को
उत्सुक रहता। वह कभी थकता न था। उसे अपने सिपाहियों के साथ दुःख-सुख उठाने में
बड़ा आनंद आता था। विरोधी मुसलमानों और राजनीतिक क्षितिज पर नवोदित यूरोपीय
सत्ताओं के विरुद्ध राष्ट्रीय उद्योगों में सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा उसे
हिंदुओं के विश्वास और श्रद्धा में सदैव मिलती रही। वह उस समय तक जीवित रहा जब तक
अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक संपूर्ण भारतीय महाद्वीप पर मराठों का भय व्याप्त न
हो गया। उसकी मृत्यु डेरे में हुई, जिसमें वह अपने सिपाहियों
के साथ आजीवन रहा। युद्धकर्ता पेशवा के रूप में तथा हिंदू शक्ति के अवतार के रूप
में मराठे उसका स्मरण करते हैं।जब भी इतिहास में महान योद्धाओं की बात होगी तो निस्संदेह महान् पेशवा
श्रीमंतबाजीराव के नाम से लोग ओत-प्रोत होंगे