Friday, April 27, 2018

खामियों भरा शिक्षा अधिकार कानून, आरटीई को उपनिवेशवाद का दूसरा चरण कहना अनुचित न होगा


कोई भी सेक्युलर देश संप्रदाय के आधार पर भेदभाव करने वाले नियम नहीं बनाता, लेकिन आरटीई यही करता है
संप्रग सरकार ने 2009 में शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम पारित किया। तब अन्य विपक्षी दलों के साथ भाजपा ने भी इसका साथ दिया। भला नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का विरोध कौन कर सकता था, पर क्या आप जानते हैं कि शिक्षा अधिकार के नाम पर बने इस अधिनियम से देश भर में हजारों स्कूल बंद हो गए हैं? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि आरटीई निजी विद्यालयों की स्वतंत्रता पर आघात करता है। इस अधिनियम के जरिये एक शहरी सोच सब स्कूलों पर लागू की गई। स्कूल में इतने कमरे होने चाहिए, इस प्रकार का प्लेग्राउंड होना चाहिए और उसमें चारों ओर बाड़ इत्यादि होनी चाहिए।
शायद यह भूल जाया गया कि हमारे गुरुकुल पेड़ के नीचे भी शिक्षा दे देते थे। उक्त अधिनियम के तहत स्कूल होने के लिए दो शिक्षकों की आवश्यकता तय की गई। यह कोई मुश्किल नियम नहीं लगता, पर यह भी तो हो सकता है कि किसी दूरस्थ इलाके में कोई एक शिक्षक एकल विद्यालय चलाए। आखिर इसमें रोक क्यों? स्कूल के लिए केवल दो आवश्यकताएं हैं-एक शिक्षक और एक शिक्षार्थी। 1931 में गांधी जी ने अंग्रेजी राज की आलोचना करते हुए कहा था, भारत आज पचास साल पहले से कहीं अधिक अनपढ़ हैं।
दरअसल जब अंग्रेज शासक भारत आए तो वे यहां की पूरी व्यवस्था बदलने लगे। गांव के स्कूलों में भी उन्होंने अपने नियम जड़ दिए। एक तो अंग्रेजी सोच वाले स्कूल गांवों में नहीं थे और जो थे उन्हें अमान्य कर दिया गया। जो स्कूल यूरोपीय सोच पर आधारित थे वे आम लोगों के लिए बहुत महंगे थे। आरटीई को उपनिवेशवाद का दूसरा चरण कहना अनुचित न होगा। पहले तो यह अधिनियम सब स्कूलों को एक ही माप से तौलता है और दूसरे इसका शिक्षा से लेना-देना नहीं नजर आता। आठवीं के बच्चे को आठ साल की शिक्षा के बाद क्या सीखना चाहिए, यह इस अधिनियम में कहीं नहीं है। इसमें कुछ न सीखने पर जोर है।
आरटीई के अनुसार कुछ न सीखने पर भी बच्चे को कक्षा में रोका नहीं जा सकता और उसे निकाला भी नहीं जा सकता। न कुछ सीखने की चाह रखने में भी उसे कक्षा में रखना अनिवार्य है। आरटीई अधिनियम की सोच में स्कूल एक चिड़ियाघर समान है, जिसमें बच्चों को बाड़ और दीवारों में बंद रखकर आठ साल बाद जंगल में छोड़ दिया जाए, चाहे वह कुछ सीखे या नहीं। कहने को आरटीई शिक्षा का अधिकार है, लेकिन आखिर यह कौन सा अधिकार है जो जबरन लागू किया जा रहा है और जिसमें अभिभावकों के पास कोई विकल्प नहीं?
पश्चिमी देशों में जहां शिक्षा की अनिवार्यता है वहां होम-स्कूलिंग यानी घर पर शिक्षण-प्रशिक्षण का विकल्प भी है। आरटीई यह अधिकार भी अभिभावकों से छीन लेता है। आज की शिक्षा का हाल यह है कि बच्चा 12 साल पढ़ाई करने के बाद प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लग जाता है। 12 साल की शिक्षा के बाद भी वह किसी काम का नहीं होता। अभिभावक बहुत आशा से पैसा खर्च कर उसे कॉलेज भेज देते हैं, लेकिन वहां पढ़ने के बाद भी उसे नौकरी मिलना दुर्लभ होता है। एक तरह से 15-16 साल की शिक्षा व्यर्थ जाती है और छात्र कुछ सीख नहीं पाता।
मुझे एक ऐसी युवती मिली जो पीजी करके भी किसी के घर में खाना बनाने की नौकरी कर रही है। जो उसने अपनी मां से घर में सीखा वह उसकी सारी औपचारिक शिक्षा से कहीं अधिक लाभदायक सिद्ध हुआ। ऐसा नहीं है कि शिक्षा व्यर्थ है, पर उसकी अनिवार्यता लादना अधिकार नहीं, अधिकारों का हरण है। अभिभावकों और विद्यार्थियों के पास यह विकल्प होना चाहिए कि वे किस प्रकार की शिक्षा का चयन करें। हर छात्र के लिए एक ही ढर्रे की स्कूली शिक्षा उपयुक्त नहीं। बच्चे घर पर भी अपनी पसंद के व्यवसाय के अच्छे हुनर सीख सकते हैं।
पुरातन काल में ऐसा ही होता था। मैं एक ऐसी मां को जानता हूं जो अमेरिका से लौटी और उसने अपने बच्चों को कई साल घर पर ही पढ़ाया। इस दौरान उसने अपनी बच्चों को संस्कृत आधारित शिक्षा दी। इसकेआधार पर उन बच्चों को अमेरिका के स्टैनफोर्ड जैसे सर्वोच्च विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया। कहने का मतलब है कि सबको एक प्रकार की शिक्षा में, एक प्रकार के नियमित विद्यालय में शिक्षा अधिकार के नाम पर जबरन डालना उपयुक्त नहीं।
आरटीई का यह पहलू लाभदायक हो सकता है कि निजी स्कूल कुछ प्रतिशत बच्चे गरीब वर्ग से अवश्य लें और उन्हें नि:शुल्क शिक्षा दें, लेकिन इसमें दो समस्याएं हैं। पहला तो सरकार ने मान लिया है कि उसके चलाए विद्यालय शिक्षा देने में असमर्थ हैं। हर उन्नत देश में सरकारी स्कूल अच्छे से चल रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में भी 95 फीसद बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। वहां सबसे अच्छे स्कूलसरकारी हैं और एक क्षेत्र के सभी बच्चे इन्हीं स्कूलों में जाते हैं। चीन में भी करीब सब बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं और अपनी ही भाषा में सभी विषय पढ़ते हैं। आखिर भारत में ही क्यों निजी स्कूलों का चलन है और क्यों अभिभावक ऐसे स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना पसंद करते हैं? सरकार अच्छे स्कूल चला पाने की विफलता निजी स्कूलों पर क्यों लाद रही है?
आरटीई में एक सांप्रदायिक समस्या भी है। आरटीई निजी स्कूलों पर बोझ डालता है और जो उसके मानदंड पूरे नहीं करते उन्हें बंद करने का अधिकार सरकार को देता है। शिक्षा अधिकार अधिनियम के दायरे में वे ही स्कूल हैं जिन्हें बहुसंख्यक यानी हिंदू चलाते हैं। अल्पसंख्यक स्कूलों पर शिक्षा अधिकार अधिनियम लागू नहीं
होता। आखिर अल्पसंख्यकों के स्कूल बच्चों के भविष्य निर्माण में हाथ क्यों नहीं बंटा सकते? ऐसे नियमों से सांप्रदायिक भेद पनपता है। दरअसल आरटीई भी एक कारण है जिसके चलते कर्नाटक का लिंगायत समाज खुद को हिंदू समाज से इतर अल्पसंख्यक समाज का दर्जा पाना चाहता है। माना जाता है कि जैन समाज ने भी इसी कारण खुद को अल्पसंख्यक घोषित कराना उचित समझा ताकि उसके स्कूल सरकारी दखल से मुक्त हो जाएं।
विश्व का कोई भी सेक्युलर देश संप्रदाय के आधार पर भेदभाव करने वाले नियम नहीं बनाता, लेकिन आरटीई भेदभाव को ही बयान करता है। इसका हल क्या है? पहले तो सरकार को स्कूलों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की नजर से देखना बंद करना चाहिए। दूसरे, यदि सरकार स्कूली शिक्षा प्रदान करने में अपने को असफल मानती है तो फिर वह हर अभिभावक को एक निश्चित रकम के वाउचर दे सकती है जिसका इस्तेमाल वे किसी भी निजी स्कूल में कर सकते हैं।
सरकार को चाहिए कि वह निजी स्कूलों को और अधिक स्वतंत्रता दे और उनका मूल्यांकन दीवारों एवं खेल के मैदान आदि से नहीं, बल्कि उनमें पढ़ रहे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा से करे। मातृभाषा माध्यम के स्कूलों को अधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए, क्योंकि इससे बच्चे के विकास में सहूलियत मिलती है। आरटीई को बच्चों पर शिक्षा थोपने की जगह, उनके प्रतिभा के विकास के लिए अलग- अलग प्रयोग करने चाहिए। सरकार का काम निजी शिक्षा को प्रोत्साहन देने और शिक्षा का स्तर बढ़ाने का होना चाहिए। शिक्षा के नाम पर चलाया जा रहा शिक्षा अधिकार अधिनियम इसके विपरीत है।




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