गणेशशंकर विद्यार्थी
सम्पादन कार्य
लोकप्रियता
साहित्यिक
अभिरुचि
भाषा-शैली
पत्रकारिता के
पुरोधा
‘प्रताप’ का
प्रकाशन
मृत्यु
26 अक्टूबर, 1890 - 25 मार्च, 1931
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही,
इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता
सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के 'स्वाधीनता संग्राम' में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। अपनी
बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुँह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता
है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी
ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी
एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के
साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को
समान रूप से देश की आज़ादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल प्रयाग में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त थे
और उर्दू तथा फ़ारसी ख़ूब जानते थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया।
व्यावसायिक शुरुआत
गणेशशंकर विद्यार्थी अपनी आर्थिक
कठिनाइयों के कारण एण्ट्रेंस तक ही पढ़ सके। किन्तु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत
चलता ही रहा। अपनी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में भली प्रकार से सहेज लिया था। शुरु में गणेश शंकर जी
को सफलता के अनुसार ही एक नौकरी भी मिली थी, लेकिन उनकी अंग्रेज़ अधिकारियों से नहीं पटी, जिस कारण उन्होंने वह नौकरी
छोड़ दी।
सम्पादन कार्य
इसके बाद कानपुर में गणेश जी ने
करेंसी ऑफ़िस में नौकरी की, किन्तु यहाँ भी अंग्रेज़ अधिकारियों से इनकी
नहीं पटी। अत: यह नौकरी छोड़कर अध्यापक हो गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी इनकी योग्यता पर रीझे हुए थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' के लिए बुला
लिया। विद्यार्थी जी की रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। यह एक ही वर्ष के बाद 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गये और फिर कुछ दिनों तक
वहीं पर रहे। इसके बाद सन 1907 से 1912 तक
का इनका जीवन अत्यन्त संकटापन्न रहा। इन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी सम्पादन किया था। 1913, अक्टूबर मास में 'प्रताप' (साप्ताहिक) के सम्पादक हुए। इन्होंने अपने
पत्र में किसानों की आवाज़ बुलन्द की।
लोकप्रियता
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक
होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों की प्रजा पर किये गये अत्याचारों का भी
तीव्र विरोध किया। गणेशशंकर विद्यार्थी कानपुर के लोकप्रिय नेता तथा
पत्रकार, शैलीकार एवं निबन्ध लेखक रहे थे। यह अपनी अतुल देश
भक्ति और अनुपम आत्मोसर्ग के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे। विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना प्रारम्भ
किया था। उसके बाद हिन्दी में पत्रकारिता के
माध्यम से वे आये और आजीवन पत्रकार रहे। उनके अधिकांश निबन्ध त्याग और बलिदान
सम्बन्धी विषयों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त वे एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे।
साहित्यिक
अभिरुचि
पत्रकारिता के
साथ-साथ गणेशशंकर विद्यार्थी की साहित्यिक अभिरुचियाँ भी निखरती जा रही थीं। आपकी
रचनायें 'सरस्वती', 'कर्मयोगी',
'स्वराज्य', 'हितवार्ता' में छपती रहीं। आपने ‘सरस्वती‘ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में काम किया था। हिन्दी में "शेखचिल्ली
की कहानियाँ" आपकी देन है। "अभ्युदय" नामक पत्र जो कि इलाहाबाद से निकलता था,
से भी विद्यार्थी जी जुड़े। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंततोगत्वा कानपुर लौटकर
"प्रताप" अखबार की शुरूआत की। 'प्रताप' भारत की आज़ादी की लड़ाई का
मुख-पत्र साबित हुआ। कानपुर का साहित्य समाज 'प्रताप'
से जुड़ गया। क्रान्तिकारी विचारों व भारत की स्वतन्त्रता की
अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के
विचारों से प्रेरित गणेशशंकर विद्यार्थी 'जंग-ए-आज़ादी'
के एक निष्ठावान सिपाही थे। महात्मा गाँधी उनके
नेता और वे क्रान्तिकारियों के सहयोगी थे। सरदार भगत सिंह को 'प्रताप' से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था।
विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की
आत्मकथा प्रताप में छापी, क्रान्तिकारियों के विचार व लेख
प्रताप में निरन्तर छपते रहते।
भाषा-शैली
गणेशशंकर
विद्यार्थी की भाषा में अपूर्व शक्ति है।
उसमें सरलता और प्रवाहमयता सर्वत्र मिलती है। विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता,
ओज, गाम्भीर्य और निर्भीकता भी पर्याप्त
मात्रा में पायी जाती है। उसमें आप वक्रता प्रधान शैली ग्रहण कर लेते हैं। जिससे निबन्ध कला का ह्रास भले
होता दिखे, किन्तु पाठक के मन पर गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं
रहता। उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी, जो हर किसी के मन पर तीर
की भांति चुभती थी। ग़रीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह अपनी कलम की ताकत से
दर्द की कहानी में बदल देते थे।
पत्रकारिता के
पुरोधा
विद्यार्थी जी का बचपन विदिशा और मुंगावली में
बीता। किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के
प्रति अपनी रुचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का
गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रुचि
दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट
मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन
किया। वे लोकमान्य तिलक के
राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे। महात्मा गांधी ने उन
दिनों अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़
अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत
नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे।
विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में ‘हमारी आत्मोसर्गता’ नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र 'सरस्वती' में उनका पहला
लेख 'आत्मोसर्ग' शीर्षक से प्रकाशित
हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के उद्भूत, विद्धान, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित
होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में
आये। श्री द्विवेदी के सान्निध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक,
सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रुझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित
पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन
जन में प्रसार कर सके।
‘प्रताप’ का
प्रकाशन
अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन
पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से
‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन
प्रारंभ कर दिया। इस समाचार पत्र के प्रथम अंक में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था
कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति,
जातीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के
लिए, अपने हक अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। विद्यार्थी जी ने
अपने इस संकल्प को प्रताप में लिखे अग्रलेखों को अभिव्यक्त किया जिसके कारण
अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना किया और 22 अगस्त 1918 में
प्रताप में प्रकाशित नानक सिंह की ‘सौदा ए वतन’ नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने
विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद करवा दिया। आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी
तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को
फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की
दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को आर्थिक सहयोग देने
के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी। जनता के सहयोग से आर्थिक संकट हल हो जाने पर
साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन 23 नवम्बर 1990 से दैनिक समाचार पत्र के रुप में किया जाने लगा। लगातार अंग्रेजों के
विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्टेट मि.
स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामें में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’
की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने
विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921, 16 अक्टूबर 1921 में
भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं
किया। जेलयात्रा के दौरान उनकी भेंट माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सहित
अन्य साहित्यकारों से भी हुई।
मृत्यु
गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों
को बचाते हुए 25 मार्च सन् 1931 ई. में हो गई।
विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। उनका शव अस्पताल की लाशों के
मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि, उसे पहचानना तक
मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर
दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।