मातृभाषा
का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। इस बार वह नई शिक्षा नीति के बहाने विमर्श में
आया है। नई शिक्षा नीति मातृभाषा को भारतीय शिक्षा संरचना में महत्व देने की बात
करती है। भारतीय संदर्भ में हम मातृभाषा को प्राय: बोल-चाल की भाषा के रूप में
देखकर खुश होते रहे हैं। जबकि पूरी दुनिया में मातृभाषाएं चिंतन और ज्ञान के रूप
में उभरकर अपने देश को शक्तिवान बनाती रही हैं। भाषा पर हुए ज्यादातर विमर्श यही
बताते हैं कि मातृभाषा में मौलिक सोच, चिंतन और
आविष्कार की प्रक्रियाएं ज्यादा सहज होती हैं। मातृभाषााएं हमारे व्यक्तित्व को
सहज बनाते हुए हमारे साथ रहती हैं। ये हमारे आत्म और स्व के ज्यादा करीब होती हैं।
पूरी दुनिया में लगभग दो-तिहाई
देशों में मातृभाषाएं मात्र उनके खेलकूद और बोल-चाल की ही भाषा नहीं हैं, वरन वे उनके ज्ञान-विज्ञान और शासन-प्रशासन की भाषा बनकर
जीवित हैं। ऐसे देश वैश्विक स्तर पर प्रगति की होड़ में भी पीछे नहीं हैं। चीन की
आविष्कार परकता में उसकी भाषा मंदारिन का बड़ा योगदान है। यही बात फ्रांस, रूस, स्विट्जरलैंड, सबके बारे में कही जा सकती है। मगर दुनिया के वे देश, जो कभी न कभी उपनिवेशवाद के शिकंजे में रहे, उनके लिए तो सबसे बड़ी लड़ाई अपनी मातृभाषा को स्थापित करने की
ही है। मातृभाषा वहां औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति का सबसे बड़ा औजार बन सकती है।
ऐसे देशों की एक दिक्कत यह भी होती है कि औपनिवेशिक शासन के तत्व और ढांचे आजादी
के बाद भी वहां जारी रहते हैं। शासन और भाषा का गहरा रिश्ता होने के कारण औपनिवेशिक
भाषाएं शासन की भाषा बनी रहती हैं और शासन-प्रशासन की मौलिक सोच और ढांचे वहां
विकसित नहीं हो पाते। उपनिवेश रहे देश में स्वशासन की प्राप्ति के लिए जरूरी है कि
मातृभाषाओं में प्रशासन की शैली विकसित हो।
अगर नई शिक्षा नीति में
मातृभाषा को शिक्षा-प्रक्रिया में महत्वपूर्ण ढंग से रखने की बात हो रही है, तो इसे हमें खुद को औपनिवेशिक ढांचों से मुक्त होने की
प्रक्रिया के रूप में भी समझना होगा। आज की दुनिया में अंग्रेजी के महत्व को कोई
नहीं नकारता। वह हमारी जरूरत तो है, पर
मातृभाषाओं के माध्यम से औपनिवेशिक सोच से मुक्ति पाना भी जरूरी है। ठीक यहीं पर
हमें हिंदी की बात करनी होगी। भारत में हिंदी एक बड़े समूह की मातृभाषा भी है, साथ ही यह पूरे राष्ट्र में संवाद की भाषा के रूप में भी उभर
रही है। अत: भारतीय संदर्भ में हिंदी की दोहरी प्रासंगिकता है। आईआईटी जैसे
संस्थान, जो मौलिक शोध के लिए बनाए गए थे, वहां हिंदी का महत्वपूर्ण न होना क्या हमारे शोध व अन्वेषण
की सहजता और मौलिकता को कम नहीं करता? देश के
तमाम शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अभी भी अकादमिक भाषा अंग्रेजी ही है।
दक्षिण के कई राज्यों ने अपनी मातृभाषाओं को विश्वविद्यालयी शिक्षा में महत्व देना
तो प्रारंभ किया,
परंतु हिंदी का सोच-समझ, ज्ञान-विज्ञान और प्रबोधन की भाषा के रूप में अभी महत्वपूर्ण
होना बाकी है।
यह ठीक है कि विकसित हो रहे
भारतीय बाजार ने हिंदी को पूरे देश में महत्वपूर्ण बनाया है। मुंबई में बनी हिंदी
फिल्मों ने गैर-हिंदीभाषी इलाकों में भी हिंदी को प्रसारित किया है। हिंदी साहित्य
का भी प्रसार बढ़ा है। लेकिन हिंदी का अभी ज्ञान-विज्ञान और अकादमिक विमर्श की भाषा
के रूप में स्थापित होना शेष है। यह काम सिर्फ सरकार या नई शिक्षा नीति के माध्यम
से ही संभव नहीं होगा। इसमें बड़ी भूमिका हिंदी क्षेत्र के पढ़े-लिखे समुदाय, शिक्षाविद, शोधार्थी
और शिक्षा संस्थानों में बैठे प्रोफेसरों की भी है। वे जब तक अपने शोध में
मातृभाषा को महत्व नहीं देंगे, तब तक
मातृभाषा को ज्ञान और अकादमिक भाषा के रूप में विकसित होने में दिक्कत होगी। इस
संदर्भ में सरकार से ज्यादा जिम्मेदारी प्रबुद्ध समाज की बनती है। भाषा को
शक्तिवान बनाने में दुनिया भर में शिक्षाविदों, लेखकों, पत्रकारों, मध्यवर्ग व छात्रों की बड़ी भूमिका होती है। फ्रांस के अनेक
शोध संस्थानों में किसी भी अध्ययन की विस्तारित रिपोर्ट पहले फ्रेंच में तैयार
होती है। बाद में उसकी संक्षिप्त शोध रिपोर्ट अंग्रेजी व दूसरी भाषाओं में
प्रकाशित होती है। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है, पर उसके सवाल को शिक्षा नीति से आगे ले जाने की जरूरत है।