विधान चन्द्र राय |
डॉ. बिधान चंद्र राय
जन्म: 1 जुलाई, 1882 - मृत्यु: 1 जुलाई, 1962
डॉ. बिधान चंद्र राय को बहुमुखी प्रतिभा के धनी एक वरिष्ठ चिकित्सक, विद्वान् शिक्षाविद, निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी, कुशल राजनीतिज्ञ और प्रसिद्ध समाज सेवक के साथ साथ आधुनिक भारत के राष्ट्र निर्माता के रूप में भी बड़ी श्रद्धा व सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। विशेषकर बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में उनके द्वारा किए गये उल्लेखनीय कार्यों के संदर्भ में उन्हें 'बंगाल का मसीहा' भी कहा जाता है।
बिधान चंद्र राय का जन्म 1 जुलाई सन् 1882 को बिहार राज्य के पटना ज़िले में बांकीपुर में हुआ था। उनके पिता श्री प्रकाश चंद्र राय वहाँ के डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे। उनकी माता का नाम श्रीमती कमिनी देवी था। बिधान चंद्र अपने माता पिता की पाँच संतानों में सबसे छोटे थे। कहा जाता है कि बिधान चंद्र के पूर्वज बंगाल के राजघराने से सम्बंधित थे और उन्होंने मुग़लों का जमकर मुकाबला किया था। यद्यपि कालांतर में राजशाही का वह प्रभाव जाता रहा तथा सरकारी नौकरी होते हुए भी प्रकाश चंद्र राय की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी।
बिधान चंद्र ने बचपन से ही अनुभव किया कि उनके धार्मिक प्रकृति के माता पिता उनको अच्छे संस्कार तथा आधारभूत शिक्षा तो दे सकते हैं, किंतु आगे का सफर उन्हें अपनी मेहनत और लगन से ही प्राप्त करना होगा। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पटना के ही एक विद्यालय से हुई। जब वे मात्र 14 वर्ष के थे, तभी उनकी माता का देहांत हो गया। ऐसे में उन्होंने अपने भाई बहिनों के साथ घर का कार्य स्वंय करना प्रारम्भ किया और अपने पिता को परिवार चलाने में सहयोग दिया। पटना विश्वविद्यालय से उन्होंने गणित ऑनर्स की बी.ए. की परीक्षा उतीर्ण की। इस समय उन्हें एक सरकारी नौकरी का प्रस्ताव भी मिल रहा था, किंतु उन्होंने इंजीनियरिंग या डॉक्टरी के क्षेत्र में से किसी एक में जाने का विचार किया। उन्होंने शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज और कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए प्रार्थना पत्र भेजे। दोनों ही स्थानों पर उनके प्रार्थना पत्र स्वीकार कर लिए गये, किंतु कलकत्ता मेडिकल कॉलेज का उत्तर पहले प्राप्त होने पर वे सन् 1901 में कोलकाता चले गये। कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में उनका पहला वर्ष बहुत ही आर्थिक संकट में गुजरा। पिता द्वारा भेजे गये कुछ रुपयों से वे बड़ी मितव्ययिता से अपना काम चलाते थे। दूसरे वर्ष जबकि उनके पिता भी सेवानिवृत्त हो गये, तब यह आर्थिक संकट और भी गहरा गया। उन्होंने बहुत से कष्टों को झेलकर भी अपना अध्ययन करते रहे, इसका अनुमान इस तथ्य से लगता है कि पाँच वर्षों के अपने अध्ययन काल में वे सिर्फ़ पाँच रुपये की पुस्तक ही ख़रीद सके थे। शेष पुस्तकों के लिए उन्हें पुस्तकालय और अपने मित्रों पर निर्भर रहना पड़ता था।
बिधान चंद्र ने अपने व्यवहार और शैक्षिक प्रतिभा के बल पर कॉलेज के प्राध्यापकों और प्रधानाचार्य को बहुत प्रभावित किया। उनके प्रधानाचार्य कर्नल ल्यूकिस उनके प्रेरणा स्रोत तो बने ही, उन्होंने डॉ. राय को आगे बढ़ने में बहुत सहयोग दिया। सन् 1906 में उन्होंने एल.एम.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की और प्रांतीय स्वास्थ्य सेवा में नियुक्त हो गये। एक चिकित्सक के रूप में जहाँ उन्होंने रोगियों का उपचार करने में कठिन परिश्रम और समर्पण से कार्य किया, वहीं अपना डॉक्टरी का अध्ययन भी करते रहे। सन् 1909 में उन्होंने एम. डी. की परीक्षा उत्तीर्ण की और कर्नल ल्यूकिस के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड के 'सेंट बाथोलोम्यूस' में अध्ययन करने लगे। मात्र 1200
रुपये लेकर विदेश गये राय ने वहाँ अस्पताल में नर्स के रूप में काम करके किसी प्रकार अपनी पढ़ाई और रहने खाने का खर्चा चलाया। उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से समय से पूर्व ही एम.आर.सी.पी. और एफ.आर.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की और सन् 1911 में वह भारत लौट आये। भारत में उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज, कैंपबेल मेडिकल स्कूल और कारमाइकेल मेडिकल कॉलेज में क्रमवार अध्यापन कार्य किया। सन् 1916 में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के फैलो चुने गये।
सन 1922 में वह कलकत्ता मेडिकल जनरल के संपादक और बोर्ड के सदस्य बने। उन्हीं दिनों वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति आशुतोष मुखर्जी के सम्पर्क में आये। आशुतोष जी बड़े दूरदर्शी और पारखी व्यक्ति थे। उन्होंने डॉ. राय को सन् 1923 में होने वाले बंगाल विधानसभा चुनाव में लड़ने के लिए प्रेरित किया। डॉ. राय ने इस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में उस समय के प्रसिद्ध नेता और अपने विपक्षी सुरेंद्रनाथ बैनर्जी को पराजित किया और इस प्रकार देश की सक्रिय राजनीति में पहला क़दम रखा। देशबंधु चितरंजन दास उनके निकटतम सहयोगी बने और लम्बे समय तक उनके साथ बने रहे। सन् 1925 में उन्होंने देश में उच्च शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य की समस्याओं को राजनीतिक मंच पर उठाया। इसी वर्ष उन्होंने हुगली नदी के प्रदूषण के कारणों और रोकथाम के संदर्भ में एक जांच समिति के गठन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने राजनीति को भी और मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने का माध्यम बनाया। अपनी इसी विद्वत्ता और योग्यता के बल पर देश वे उत्कृष्ट राजनेता के रूप में उभरे। सन् 1927 में देशबंधु जी की मृत्यु के पश्चात् वे कांग्रेस के समानांतर बनी स्वराज्य पार्टी के उपनेता बन गये। सन् 1927
में उनकी भेंट बर्मा जेल से लौटे सुभाष चन्द्र बोस से हुई। डॉ. राय नेताजी के विचारों से सहमत हुए और उन होंने अपने अगामी भाषण में कहा - भारतवासियों को आपसी मतभेद भुलाकर देश की स्वतंत्रता के लिए दृढ़ता से आगे बढ़ना चाहिए।
अब तक डॉ. राय अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा के कारण गांधीजी और नेहरू जी के भी बहुत निकट आ गये थे। उन्होंने गांधी जी के सहयोग से देशबंधु जी की स्मृति में 'चितरंजन सेवा सदन' के निर्माण की योजना बनायी। गांधी जी ने डॉ. राय को इस ट्रस्ट का सचिव बनाया। सन् 1928 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य चुने गये। 1929 में उन्होंने बंगाल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व किया। सन् 1930
में उन्हें कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में नियुक्त किया गया। सन् 1930
में ही उन्हें आन्दोलन के संदर्भ में गिरफ्तार कर अलीपुर जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए भी डॉ. राय ने जेल के अस्पताल में सराहनीय कार्य किए। सन् 1931 में वे जेल से रिहा कर दिए गये। इसी वर्ष वह कोलकाता के मेयर चुने गये। सन् 1934 में वह बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये। इसी वर्ष वह 'फारवर्ड ब्लॉक' के अध्यक्ष बने और खुल कर कांग्रेस और बंगाल के क्रांतिकारी आन्दोलन का समर्थन किया। कुछ समय पश्चात् ही उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस कारण इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वह इस दायित्व के कारण अपने डॉक्टरी और अध्यापन के कार्यों को उचित समय नहीं दे पा रहे थे। विशेषकर ग़रीब रोगियों की चिंता ने ही उन्हें इसके लिए अधिक प्रेरित किया। सन् 1940 में वे कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति से भी अलग हो गये। सन् 1942 में वह कलकत्ता विश्विद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए। दूसरे विश्व युद्ध का दौर चल रहा था। डॉ. राय ने ऐसी विषम परिस्थितियों में भी कोलकाता में शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को बनाये रखा। विश्वविद्यालय के संगठन और प्रबंधकारिणी सभा के सदस्य, लेखा मंडल के अध्यक्ष तथा उपकुलपति के रूप में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ सांइस' की उपाधि दी गयी। इसी वर्ष गांधी जी ने उन्हें अपना निजी चिकित्सक नियुक्त किया।
सन 1947 में देश स्वतंत्र हुआ तो डॉ.राय को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सम्मिलित करने पर विचार हुआ, किंतु उन्होंने अपने डॉक्टरी और समाज सेवा कार्यों को प्राथमिकता देते हुए स्पष्ट इंकार कर दिया। तब गांधी जी के कहने पर उन्हें एक कांग्रेसी होने के नाते अपने कर्तव्य के रूप में बंगाल के मुख्यमंत्री पद का दायित्व ग्रहण करना पड़ा। 23 जनवरी 1948 में राज्यपाल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी। डॉ. राय ने अपने जीवन काल में अनेक सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी पूरी क्षमता के साथ कार्य किया। आज भी उनके द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों में स्थापित संस्थान इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि वे सही मायनों में राष्ट्र निर्माता थे। 'जादवपुर टी.बी.अस्पताल', 'चितरंजन सेवा सदन', आर.जी.खार.मेडिकल कॉलेज', 'कमला नेहरू अस्पताल', 'विक्टोरिया संस्थान' और 'चितरंजन कैंसर अस्पताल' प्रमुख हैं। उन्होंने अपने निवास स्थल को भी अपनी माता के नाम पर अस्पताल चालाने के लिए दान दे दिया। सन् 1957 में उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।
4 फ़रवरी, 1961 में वरिष्ठ चिकित्सक, विद्वान् शिक्षाविद, निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी, कुशल राजनीतिज्ञ और प्रसिद्ध समाज सेवक डॉक्टर बिधान चंद्र राय को भारत सरकार द्वारा 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।
1 जुलाई, 1962 को 80 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। डॉ. राय की मृत्यु पर पूरा राष्ट्र शोक में डूब गया। महान् समाज सेविका मदर टेरेसा स्वंय उनकी मृत्यु पर बहुत दुखी हुईं, क्योंकि जब तक डॉ. राय जीवित रहे, उन्होंने मदर टेरेसा और उनकी संस्था के कार्यों को यथासंभव सहयोग दिया था। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी स्मृति और सम्मान में 1967 में दिल्ली में डॉ. बी.सी.राय स्मारक पुस्तकालय और वाचनालय की स्थापना की गयी। सन् 1976 में उनके नाम पर ' डॉ. बी.सी.राय राष्ट्रीय पुरस्कार' आरम्भ किया गया। यह पुरस्कार चिकित्सा, दर्शन, साहित्य, कला और राजनीति विज्ञान के लिए दिया जाता है।