त्रिभाषा
सूत्र बहुभाषा भाषी भारतीय समाज के लिए सर्वथा उपयुक्त है। भाषा के संस्कार द्वारा
ही संस्कृति एवं ज्ञान की समस्त विधाओं में प्रवेश और विचार की दृष्टि मिलती है
भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति-2019 का मसौदा 21वीं सदी के लिए ‘भारत केंद्रित’ और ‘जीवंत ज्ञान समाज’ के निर्माण के संकल्प
के साथ प्रस्तुत हुआ है। भारत को केंद्र में रख कर शिक्षा पर विचार करना उन सभी
लोगों के लिए सुखद और संतोषदायी अनुभूति है जो उसके विस्मरण, उपेक्षा या अवांछित प्रस्तुति से खिन्न रहा करते थे। ऐसे ही ‘ज्ञान केंद्रित समाज’ का विचार भी भारतीयों
के लिए संतोषदायी प्रतीत होता है जो ज्ञान को पवित्र, क्लेश दूर करने, मुक्ति देने वाला
मानते हैं। यह जरूर आश्चर्यजनक है कि स्वामी विवेकानंद के आधे-अधूरे वक्तव्य के
अलावा कोई सार्थक भारतीय विचार उल्लेख करने योग्य नहीं मिला। समृद्ध ज्ञान की
शंकराचार्य, तिरुवल्लूर से लेकर कबीर तक शास्त्रीय और लोक-प्रचलित अनेक परंपराएं भी
पूरे भारत में मौजूद हैं। शिक्षा की मानवीय परिकल्पना को साकर करने वाले दो
महापुरुषों का स्मरण किए बिना मन नहीं मानता। एक तो नोबल विजेता पाने वाले गुरुदेव
रबींद्रनाथ टैगोर हैं, जिन्होंने ऐसे भारत
की कल्पना की थी ‘जहां चित्त भय शून्य
हो, जहां सिर उन्नत हो, जहां ज्ञान मुक्त हो।’ गुरुदेव के हिसाब से शिक्षा मुक्त करती है और ज्ञान के आंतरिक प्रकाश से
परिपूर्ण कर देती है। रचना और सृजन से भरी शिक्षा वासनाओं और पूर्वाग्रहों से
मुक्त कर विश्व को स्वीकार करने का साहस देती है और अनुभव करने के लिए सहानुभूति
देती है। दूसरे महापुरुष हैं महात्मा गांधी, उनके विचार में ‘शिक्षा का मूल उद्देश्य मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाना है। जो
शिक्षा मानवीय सद्गुणों के विकास में योग नहीं देती और व्यक्ति के सर्वागीण विकास
का मार्ग नहीं प्रशस्त करती वह शिक्षाअनुपयोगी है।’ वह यह भी कहते थे कि ‘बालक की आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक क्षमताओं के पूर्ण विकास का दायित्व शिक्षा पर है।’ जब तक शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का
विकास एक साथ नहीं हो जाता तब तक केवल बौद्धिक विकास एकांगी ही रहेगा। दोनों ही
महापुरुष शिक्षा को भारत, ज्ञान और मनुष्यता के
व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे। शिक्षा नीति ने प्रकट रूप से भारत के बाहर के
चिंतन को ही भारत को समझने का प्रमुख आधार बनाया है।
21वीं सदी की
दुनिया में खड़े होकर भारत केंद्रित विचार ही इस नीति का खांचा और ढांचा है। यह भी
उल्लेखनीय है कि 21
वीं सदी की
अवधारणा सिर्फ वैश्वीकरण,
प्रौद्योगिकीकरण
विशेषत डिजिटलीकरण के अर्थ में ली गई है जो भारत को एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप
रूपांतरित करने के लिए जरूरी है। ज्ञान-समाज का आशय भी यहीं से लिया गया है। ज्ञान
केंद्रित समाज सूचना और ज्ञान आधारित सामाजिक-आर्थिक संगठन को न्योता देता है।
सूचना, ज्ञान के
उत्पादन और प्रसार से उपजे नवाचार को आत्मसात करने के लिए जरूरी है आर्थिक और
सामाजिक विकास की संतुलित सार्वजनिक नीति का विकास करना, उसे लागू
करना और उसे निरंतर तरो-ताजा करते रहना। आशा की जाती है कि डिजिटल तकनीक के उपयोग
द्वारा पारदर्शिता आएगी,
व्यापार की
क्षमता बढ़ेगी, नागरिक
सुविधाओं को बढ़ाना संभव होगा।
पश्चिमी दुनिया में औद्योगिक क्रांति के बाद सूचना का युग आया और अब ज्ञान
का युग घोषित हुआ है जो उत्तर आधुनिकता की निशानी है। ज्ञान-समाज में सूचना नहीं
ज्ञान सबसे बड़ी संपदा है। लोगों के मन मस्तिष्क में क्या बसा है और क्या भौतिक
रूप में आ सकता है वही अर्थव्यवस्था को आगे ले चलेगा। उच्च विकास की स्थिति वाले
समाज में ज्ञान के उत्पादन और उपयोग से समृद्धि और खुशहाली लाने का स्वप्न देखा जा
रहा है। वस्तुत ज्ञान-समाज उन समाजों को व्यक्त करता है जो आर्थिक और सांस्कृतिक
रूप से वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान पैदा करने की क्षमता पर निर्भर हैं। ज्ञान अब
बाजार में एक खास व्यापारिक उत्पाद है। ज्ञान-समाज रचना और विधि की दृष्टि से एक
वैचारिक चेतना को व्यक्त करते हैं। ऐसे समाज में शिक्षा जीवनर्पयत चलती रहेगी, क्योंकि
पुराना व्यर्थ होता रहेगा नया अर्जित करते रहना होगा। ज्ञान की जटिलता निरंतर
बढ़ती जाएगी। तीव्र गति से मिलती सूचना के अर्थ को ग्रहण करने और जटिल ज्ञान के
प्रति एक नए दृष्टिकोण की जरूरत होगी। सीखने की व्यक्तिनिष्ठता और ज्ञान-वितरण के
वैश्वीकरण के बीच अध्यापक को फिर से परिभाषित करना होगा।
ज्ञान और सूचना आज आम आदमी की जिंदगी पर असर डाल रहे हैं। सूचना और संचार
की प्रौद्योगिकी को साझा करना अर्थव्यवस्था और समाज को बदलने की शक्ति रखता है।
समावेशी ज्ञान समाज के निर्माण के लिए सूचना तक सबकी पहुंच बनाना प्रमुख आधार है।
माना जा रहा है कि सूचना तक सार्वभौम पहुंच होने से शांति होगी और साथ ही टिकाऊ
आर्थिक विकास होगा। शिक्षा नीति-2019
का मसौदा
भारत में शिक्षा की प्रचलित विसंगतियों का गहन विश्लेषण करने के उपरांत
भ्रष्टाचारमुक्त व्यवस्था की वकालत करता है। भविष्य की अपेक्षाओं का आकलन कर
महत्वपूर्ण संस्तुतियां की गई हैं। यह संतोष का विषय है कि इसमें भाषा और संस्कृति
के महत्व को भी केंद्रीय स्थान दिया गया है। शिक्षा की व्यवस्था से जुड़े कई
व्यावहारिक प्रश्नों पर पहली बार विचार करते हुए उसके बहुस्तरीय पुनर्गठन और
तदनुसार आवश्यक संसाधनों का प्रस्ताव भी इसमें प्रस्तुत किया गया है। इसमें
उल्लिखित त्रिभाषा सूत्र बहुभाषा भाषी भारतीय समाज के लिए सर्वथा उपयुक्त है। भाषा
के संस्कार द्वारा ही संस्कृति और ज्ञान की समस्त विधाओं में प्रवेश मिलता है और
विचार की दृष्टि मिलती है। इस त्रिभाषा सूत्र में अंग्रेजी की अनिवार्यता नहीं
होनी चाहिए। उसके स्थान पर किसी भारतीय / विदेशी भाषा का चयन का अवसर मिलना चाहिए।
कक्षा 6-8 तक प्राचीन
(क्लासिकल) भाषा के अध्ययन का प्रस्ताव अत्यंत उपयोगी है। भारतीय ज्ञान परंपरा का
परिचय अनिवार्य रूप से सभी छात्रों को दिया जाना समय की मांग है।
आज की हकीकत को देखते हुए नई शिक्षा नीति का यह मसौदा एक बड़ी छलांग है जो
किसी भी तरह संपूर्ण क्रांति से कम नहीं है। पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा
तक से जुड़े सभी मुद्दों पर आमूलचूल परिवर्तन का संकल्प लेकर उपस्थित यह दस्तावेज
बड़ी आशावादिता के साथ संरचनात्मक परिवर्तनों,
प्रक्रियाओं
और विद्यार्थी की ज्ञान और कौशल की सभी संभव संभावनाओं के लिए अवसर का प्रावधान
प्रस्तुत करता है। यह अध्यापकों की उपलब्धता की व्यवस्था, उनके
प्रशिक्षण और उनकी जीवन दशा को सुधारने के लिए सुझाव भी देता है। यह अवश्य है कि
स्वायत्तता देने की बात कहकर अनेक जटिल संरचनाएं प्रस्तुत हुई हैं जो उसे काटती
हैं। अब तक भारत में शिक्षा के लिए संसाधन पर्याप्त मात्र में उपलब्ध नहीं रहते
रहे हैं। साथ ही सरकारी तंत्र शिक्षा के प्रति कितना असंवेदनशील है और प्रचलित
व्यवस्थाएं कितने-कितने अवरोधों से बाधित हैं,
इसका अनुभव
पूरे देश को है। ऐसे में इसे कार्य रूप में लागू करने के लिए दृढ़ राजनीतिक
इच्छाशक्ति अपेक्षित है। आशा है सरकार इस मसौदे को सचमुच भारत केंद्रित विचार के
साथ लागू करेगी।