पारंपरिक भारतीय ज्ञान को लेकर विवाद
की जो परिपाटी रही है, उस संदर्भ
में संस्कृत को लेकर विवाद होना अस्वाभाविक नहीं है। इस विवाद की वजह बना है उत्तर
प्रदेश सरकार का वह फैसला, जिसके तहत
अब राज्य सरकार की प्रेस विज्ञप्तियां संस्कृत में भी जारी होंगी। इस विवाद पर
चर्चा से पहले पड़ोसी देश चीन की भाषा से जुड़े वाकये पर गौर करना चाहिए।
चीन का समाज अब स्त्री-पुरुष की बराबरी
पर चल रहा है। पर करीब आधी सदी पहले तक वहां का समाज भी पुरुष प्रधान था। तब
पुरुषों के अत्याचार की वजह से महिलाओं ने चीन की आधिकारिक मंदारिन भाषा के भीतर
भी एक कूट भाषा विकसित कर ली थी, जिसका
महिलाएं ही इस्तेमाल करती थीं।
पुरुष वर्चस्ववाद खत्म होने के बाद उस भाषा की जरूरत नहीं रही। नतीजतन यह भाषा आज खत्म होने के कगार पर है। चीन को लगा कि महिलाओं की पुरानी पीढ़ी के ही साथ कूट मंदारिन का अंत हो जाएगा, लिहाजा उसने इस भाषा को संरक्षित करने के लिए कुछ साल पहले करीब दस करोड़ डॉलर की एक परियोजना पर काम किया।इस परिघटना को हम भारतीय संदर्भ में परखने की कोशिश करें।
अपने यहां ऐसा होता, तो इसे दकियानूसी और फिजूल की कवायद मानकर खारिज कर दिया जाता। उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले के संदर्भ में संस्कृत को लेकर उठने वाले सवाल हमारी उसी सोच को प्रतिबिंबित करते हैं, जिसके मुताबिक हर प्राचीन भारतीय चीज हमारे पिछड़ेपन की निशानी है। मैकाले की योजना के मुताबिक भारतीय शिक्षा में अंग्रेजी के प्रयोग की शुरुआत 1860 में तब हो पाई, जब 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम नाकाम रहा। उससे पहले अपने देश में करीब पांच लाख स्कूल थे, जो समाज आश्रित थे, जहां या तो उर्दू-फारसी माध्यम से पढ़ाई होती थी या फिर अंग्रेजी माध्यम से।
पुरुष वर्चस्ववाद खत्म होने के बाद उस भाषा की जरूरत नहीं रही। नतीजतन यह भाषा आज खत्म होने के कगार पर है। चीन को लगा कि महिलाओं की पुरानी पीढ़ी के ही साथ कूट मंदारिन का अंत हो जाएगा, लिहाजा उसने इस भाषा को संरक्षित करने के लिए कुछ साल पहले करीब दस करोड़ डॉलर की एक परियोजना पर काम किया।इस परिघटना को हम भारतीय संदर्भ में परखने की कोशिश करें।
अपने यहां ऐसा होता, तो इसे दकियानूसी और फिजूल की कवायद मानकर खारिज कर दिया जाता। उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले के संदर्भ में संस्कृत को लेकर उठने वाले सवाल हमारी उसी सोच को प्रतिबिंबित करते हैं, जिसके मुताबिक हर प्राचीन भारतीय चीज हमारे पिछड़ेपन की निशानी है। मैकाले की योजना के मुताबिक भारतीय शिक्षा में अंग्रेजी के प्रयोग की शुरुआत 1860 में तब हो पाई, जब 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम नाकाम रहा। उससे पहले अपने देश में करीब पांच लाख स्कूल थे, जो समाज आश्रित थे, जहां या तो उर्दू-फारसी माध्यम से पढ़ाई होती थी या फिर अंग्रेजी माध्यम से।
भारतीय
विचारक धर्मपाल ने अपनी पुस्तक द ब्यूटीफुल ट्री में अंग्रेज सरकार के दस्तावेजों
के हवाले से यह आंकड़ा पेश किया है। तब तक संस्कृत हमारी परंपरा की वाहक थी। उसके
बाद हम संस्कृत ही क्यों, हर उस
भारतीय चीज से पीछा छुड़ाते चले गए, जो कभी
हमारे गर्व का जरिया थी। संस्कृत साहित्य की महानता के प्रति हम आग्रही तब हुए, जब जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने उसकी तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित किया।
अपनी पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के प्रति भी हमारा प्यार तभी बढ़ा, जब पश्चिम ने उसका लोहा माना। संस्कृत पर सवाल यह है कि जब कोई संस्कृत पढ़ता नहीं, संस्कृत में कोई मीडिया नहीं है, तो फिर उसमें प्रेस रिलीज भला क्यों जारी होनी चाहिए। अगर इस सवाल को जायज माना जाएगा, तो फिर दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में हो रही संस्कृत की पढ़ाई पर सवाल उठाना पड़ेगा, संविधान की आठवीं अनुसूची पर भी सवाल उठाना होगा, जिसकी 22 भाषाओं में से एक संस्कृत भी है। जन्म, मृत्यु और दूसरे कर्मकांडों की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाना होगा, जिनके मंत्र संस्कृत में ही हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भाषाएं राजनीतिक ताकत का जरिया और उसे हासिल करने का औजार भी होती हैं। भाषाएं अपने साथ एक पूरी संस्कृति को ढोती हैं। इसलिए उनको बचाए रखना राजनीति के साथ ही समाज की भी जिम्मेदारी होता है। राज्याश्रय भाषाओं को नई ताकत देता है, समाज उसे बढ़ाता है और अगली पीढ़ी को सौंपता है। इसके जरिये भाषा जिंदा रहती है और विकसित भी होती है। उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम उसी श्रेणी में आता है। इस कदम के जरिये कुछ लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
अपनी पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के प्रति भी हमारा प्यार तभी बढ़ा, जब पश्चिम ने उसका लोहा माना। संस्कृत पर सवाल यह है कि जब कोई संस्कृत पढ़ता नहीं, संस्कृत में कोई मीडिया नहीं है, तो फिर उसमें प्रेस रिलीज भला क्यों जारी होनी चाहिए। अगर इस सवाल को जायज माना जाएगा, तो फिर दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में हो रही संस्कृत की पढ़ाई पर सवाल उठाना पड़ेगा, संविधान की आठवीं अनुसूची पर भी सवाल उठाना होगा, जिसकी 22 भाषाओं में से एक संस्कृत भी है। जन्म, मृत्यु और दूसरे कर्मकांडों की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाना होगा, जिनके मंत्र संस्कृत में ही हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भाषाएं राजनीतिक ताकत का जरिया और उसे हासिल करने का औजार भी होती हैं। भाषाएं अपने साथ एक पूरी संस्कृति को ढोती हैं। इसलिए उनको बचाए रखना राजनीति के साथ ही समाज की भी जिम्मेदारी होता है। राज्याश्रय भाषाओं को नई ताकत देता है, समाज उसे बढ़ाता है और अगली पीढ़ी को सौंपता है। इसके जरिये भाषा जिंदा रहती है और विकसित भी होती है। उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम उसी श्रेणी में आता है। इस कदम के जरिये कुछ लोगों को रोजगार भी मिलेगा।