किसी भी देश में राष्ट्रभाव-राष्ट्रगीत का विरोध नहीं होता, लेकिन भारत
में कुछ लोग यदाकदा ऐसा ही करते हैं। वंदे मातरम पर उनका विरोध यही दर्शाता है
राष्ट्रभाव का विकल्प नहीं होता। वंदे
मातरम भारतीय राष्ट्रभाव की काव्य अभिव्यक्ति है। यह साधारण गीत नहीं राष्ट्रगीत
है। संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को इसे राष्ट्रगीत स्वीकार किया। सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने
कहा, ‘एक मुद्दा विचार के लिए बाकी है अर्थात राष्ट्रगान का प्रश्न। प्रस्ताव के
माध्यम से निर्णय लेने से बेहतर है कि मैं राष्ट्रगान के संबंध में कुछ कहूं।
जनगणमन वाली संगीत रचना भारत का राष्ट्रगान है। ‘वंदे मातरम गीत ने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। उसे भी
जनगणमन के समान सम्मान दिया जाएगा।’ कार्यवाही रिकार्ड के
अनुसार सभी सदस्यों ने इस पर हर्षध्वनि की। वंदे मातरम का आदर राष्ट्रीय कर्तव्य
है। संविधान के अनुच्छेद 51ए में ‘संविधान का पालन, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान का आदर व राष्ट्रीय आंदोलन के प्रेरक उच्च आदर्शो का पालन मूल
कर्तव्य हैं।’ चीन के 1982
के संविधान में भी निर्देश है कि ‘नागरिकों का कर्तव्य
है कि मातृभूमि की रक्षा करें।’ रूसी परिसंघ के 1993 के संविधान में ‘पितृभूमि की रक्षा
कर्तव्य और बाध्यता है।’ इसके पहले सोवियत संघ
के संविधान में ‘समाजवादी मातृभूमि की
रक्षा कर्तव्य है। मातृभूमि के प्रति द्रोह से अधिक कोई गंभीर अपराध नहीं।’ मातृभूमि या पितृभूमि कहने से धार्मिक भावना का कोई संबंध नहीं। इसके
बावजूद अपने शपथ ग्रहण में सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने वंदे मातरम का विरोध
किया। प्रतिकार में कई सदस्यों ने वंदे मातरम के नारे लगाए और बर्क से माफी मांगने
की अपील की।
दुनिया के किसी भी देश में राष्ट्रभाव या राष्ट्रगीत का विरोध नहीं होता, लेकिन भारत
में विशिष्ट महानुभावों द्वारा होता है। बर्क ने राष्ट्रगीत के विरोध की भड़काऊ
वजह ही बताई है। उनके मुताबिक यह इस्लाम विरोधी है। इसलिए वह इसका समर्थन नहीं कर
सकते, लेकिन यह
सच नहीं है। मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता के समय कांग्रेस के सभी सत्रों
में वंदे मातरम गाया जाता था। कांग्रेसी रफी अहमद किदवई मुसलमानों के भी वरिष्ठ
नेता थे। वंदे मातरम के पक्षधर थे। आरिफ मोहम्मद खान लेखक और राजनेता हैं। उन्होंने
वंदे मातरम का उर्दू अनुवाद किया। उन्होंने लिखा भी कि ‘वंदे मातरम
का विरोध मुस्लिम लीग ने शुरू किया था। इसके विरोध का कोई कारण इस्लाम में नहीं
है। यह विभाजनवादी राजनीति है। राष्ट्रगीत के विरोधी संवैधानिक आदर्शो को खारिज
करते हैं।’ राष्ट्रगीत
संविधान का राष्ट्रभाव है। शिक्षाविद् फिरोज बख्त अहमद ने 2006 में लिखा
था ‘एक मुस्लिम
की हैसियत से मैं देशवासियों विशेषकर मुस्लिम समाज से कहूंगा कि कुछ लोग राजनीति
से प्रेरित होकर वंदे मातरम को भावनात्मक मुद्दा बनाने की कोशिश करते हैं।’ प्रख्यात
संगीतकार एआर रहमान ने वंदे मातरम को संगीत के नए आयाम दिए। ‘मां तुङो
सलाम’ में इस्लाम
विरोध नहीं है।
वंदे मातरम इस्लाम विरोधी नहीं है। मां संसार की आदि अनादि अनुभूति है।
इस्लामी विश्वास में जन्नत बेहतरीन स्थिति है। हदीस में ‘मां के
पैरों’ के नीचे
जन्नत बताई गई है। वेदों में पृथ्वी माता है। हमारे शास्त्रों में यह बातें न भी
होतीं तब भी हमें स्वाधीनता संग्राम के बीजमंत्र और संवैधानिक राष्ट्रगीत को खारिज
करने का अधिकार नहीं है। वंदे मातरम के ऐसे ही विरोध पर लोकसभा में अटल बिहारी
वाजपेयी ने मार्मिक प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने कहा था कि ‘ऐसे
मुद्दों पर किसी को भी असहमत होने की इजाजत नहीं दी जा सकती। कल वे कहेंगे कि हम
तिरंगे के सामने नहीं झुकेंगे। हिंन्दुस्तान में रहने वाले हर इंसान को तिरंगे के
सामने झुकना पड़ेगा।’
आज फिर
वंदे मातरम का विरोध हो रहा है। कोई भी राष्ट्रभक्त इसे राष्ट्रद्रोह कह सकता है।
तब उन्हें यह अतिरेक प्रतिक्रिया लगेगी। ऐसे लोगों को राष्ट्रीय प्रतीकों का आदर
करना सीखना होगा। अनेक मुस्लिम देशों के राष्ट्रगीतों में भी वंदे मातरम जैसे
प्रतीक है।
‘वंदे मातरम’ में यह ‘धरती सुजला, सुफला और
मलयज शीतला’ है।
बांग्लादेश के राष्ट्रगीत में यह ‘आमार सोनार’ है। स्वर्ण
दीप्ति वाली है। इस्लामी देश मिस्न के राष्ट्रगीत में भी धरती माता है। मालदीव के
राष्ट्रगीत में कई बार सलाम है। जार्डन में बादशाह को सलाम है। ऐसे राष्ट्रगीतों
में कोई इस्लाम विरोधी भावना नहीं है तो वंदे मातरम में इस्लाम विरोध का फिर आखिर
क्या औचित्य? इसकी वजह
विभाजनकारी राजनीति है। मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सैयद अली इमाम ने अमृतसर अधिवेशन
में वंदे मातरम पर हमला बोला। फिर मुहम्मद अली जिन्ना ने वंदे मातरम के विरोध को
अपना अलगाववादी हथियार बना लिया। वह देश तोड़ने में कामयाब रहे। स्वतंत्र भारत की
राजनीति में भी अक्सर जिन्ना का प्रेत जाग जाता है।
वैदिक संस्कृति में पृथ्वी माता है। इसी सांस्कृतिक प्रवाह में बंकिम चंद्र
ने वंदे मातरम लिखा। यह 1882
में
प्रकाशित उनके उपन्यास ‘आनंदमठ’ का भाग है।
तीन साल बाद 1885 में
कांग्रेस बनी। एक वर्ष बाद कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में हमेंद्र बाबू ने वंदे
मातरम गाया। अध्यक्ष मो. रहमत उल्लाह भी मंच पर थे। विरोध नहीं हुआ। 1896 में
कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में रवींद्र नाथ टैगोर ने इसे छंदबद्ध देश राग एक ताल में
गाया। बंगाल विभाजन के दौर में धरती आकाश तक वंदे मातरम का जयघोष था। डरी सत्ता ने
वंदे मातरम पर प्रतिबंध लगाया। 1905
के वाराणसी
के कांग्रेस अधिवेशन में भी वंदे मातरम गाया गया। वहीं कांग्रेस ने वंदे मातरम को
राष्ट्रगीत स्वीकार किया। लाला लाजपतराय ने उर्दू में लाहौर से ‘वंदे मातरम’ अखबार
निकाला। विपिन चंद्र पाल और योगी अरविंद भी इसके संपादक रहे। इस पर 1907 में मुकदमा
चला। पाल ने इस कार्रवाई को राष्ट्रद्रोह कहा। उन्हें छह माह की सजा हुई। तमिल कवि
सुब्रमण्यम भारती ने इसे तमिल में गाया और पंतलु ने तेलुगु में। इसकी जड़ें भारत
की धरती, आकाश और
पाताल में हैं।
कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में प्रख्यात संगीत सर्जक पं. विष्णु दिगंबर
पुलस्कर के वंदे मातरम गायन के समय अध्यक्ष मो. जौहर अली ने विरोध किया। 1937 में डरी
कांग्रेस ने वंदे मातरम को संक्षिप्त किया। स्वतंत्रता दिवस पर आकाशवाणी के निदेशक
ने पं. ओंकारनाथ ठाकुर को संदेश दिया कि सरदार पटेल ने आपको वंदे मातरम गायन के
लिए बुलाया है। ठाकुर ने कहा कि हम पूरा गाएंगे। उन्हें सहमति मिली, उन्होंने
पूरा गाया। वंदे मातरम के अंतरसंगीत ने महान गायकों को आकर्षित किया। यदुनाथ भट्ट
ने इसे राग मल्हार,
हीराबाई
बड़ोदकर ने तिलक कामोद व पुलस्कर ने कई राग मिलाकर गाया। अभ्यंकर ने खंभावती व
कृष्णराव ने राग ङिाझोटी में गाया,
लेकिन
राजनीति ने इसे ‘तुष्टीकरण
राग’ में गाया।
स्वाधीनता संग्राम में यह जन-जन की प्रेरणा था। गांधी जी ने 1905 में ही इसे
राष्ट्रगीत बनाने की पैरवी की थी। वह राष्ट्रगीत बना। फिर इसे हिंदुत्व से जोड़कर
इसका विरोध हुआ। गांधी जी ने ‘हरिजन’ में लिखा ‘मुङो नहीं
लगता कि यह हिन्दू गीत है। हम बुरे दिन देख रहे हैं।’ गांधी जी 1937 में बुरे
दिन देख रहे थे और हम 2019
की लोकसभा
में। वंदे मातरम के विरोधियों से प्रार्थना है कि वे नए भारत का संज्ञान लें।
राष्ट्रभाव-राष्ट्रगीत का सम्मान करें।