राजनीतिक असंतोष : 1973-75 के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ देश भर में राजनीतिक असंतोष उभरा।
गुजरात का नव निर्माण आंदोलन और जेपी का संपूर्ण क्रांति का नारा उनमें सर्वाधिक
महत्वपूर्ण था।
नवनिर्माण आंदोलन (1973-74) : आर्थिक संकट और सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के
खिलाफ छात्रों और मध्य वर्ग के उस आंदोलन से मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्तीफा
देना पड़ा। केंद्र सरकार को राज्य विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए
मजबूर होना पड़ा।
संपूर्ण क्रांति: मार्च-अप्रैल, 1974 में बिहार के
छात्र आंदोलन का जयप्रकाश नारायण ने समर्थन किया। उन्होंने पटना में संपूर्ण
क्रांति का नारा देते हुए छात्रों,
किसानों और श्रम संगठनों से अहिंसक तरीके से भारतीय समाज का रुपांतरण करने
का आह्वान किया। एक महीने बाद देश की सबसे बड़ी रेलवे यूनियन राष्ट्रव्यापी हड़ताल
पर चली गई। इंदिरा सरकार ने निर्मम तरीके से इसे कुचला। इससे सरकार के खिलाफ
असंतोष बढ़ा। 1966 से सत्ता में काबिज इंदिरा के खिलाफ इस अवधि तक लोकसभा में 10 अविश्वास प्रस्ताव
पेश किए गए।
फैसले को चुनौती: इंदिरा गांधी ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 24 जून, 1975 को जस्टिस वीआर
कृष्णा अय्यर ने हाई कोर्ट ने निर्णय को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को सांसद के
रूप में मिल रही सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया। उन्होंने संसद में वोट देने से
वंचित कर दिया गया लेकिन उनको प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति मिल गई। अगले दिन
जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली में बड़ी रैली आयोजित की। उसमें उन्होंने कहा कि पुलिस
अधिकारियों को सरकार के अनैतिक आदेशों को मानने से इन्कार कर देना चाहिए। उनके उस
बयान को देश के भीतर अशांति भड़काने के रूप में देखा गया।
ऐतिहासिक फैसला
1971 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के नेता
राजनारायण को इंदिरा गांधी ने रायबरेली से हरा दिया। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट
में अर्जी दायर कर आरोप लगाया कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग
कर चुनाव जीता। शांति भूषण ने उनका केस लड़ा। इंदिरा गांधी को हाई कोर्ट में पेश
होना पड़ा। वह किसी भारतीय प्रधानमंत्री के कोर्ट में उपस्थित होने का पहला मामला
था।
12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहनलाल सिन्हा ने फैसला
सुनाते हुए इंदिरा गांधी को दोषी पाया। रायबरेली से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को
अवैध ठहराया। उनकी लोकसभा सीट रिक्त घोषित कर दी गई और उन पर अगले छह साल तक चुनाव
लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई। हालांकि वोटरों को रिश्वत देने और चुनाव धांधली जैसे
गंभीर आरोपों से मुक्त कर दिया गया।
कानून में परिवर्तन : इंदिरा गांधी
को संसद में दो-तिहाई बहुमत था। उन्होंने कई कानूनों को बदल दिया। संविधान में
संशोधन कर दिया गया। 42वां संविधान संशोधन उसी दौर में किया गया।
1977 के चुनाव : 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने नए चुनाव की घोषणा
करते हुए सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया। 23 मार्च को आधिकारिक रूप से आपातकाल समाप्ति की घोषणा की गई। मार्च
में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए।
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला। मोरारजी
देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आई।
20 सूत्री कार्यक्रम : इसके बाद इंदिरा गांधी ने कृषि,
औद्योगिक उत्पादन, जन सुविधाओं में सुधार, गरीबी और अशिक्षा से लड़ने के लिए 20
सूत्री आर्थिक कार्यक्रम घोषित किए।
गिरफ्तारियां : अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू होने के बाद इंदिरा गांधी को असाधारण
शक्तियां मिल गईं। विपक्षी नेताओं जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, चरण सिंह, मोरारजी देसाई, राजनारायण
के अलावा सैकड़ों नेताओं, कार्यकर्ताओं
को मीसा एक्ट (मेंटीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
तमिलनाडु में एम करुणानिधि सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। कई राजनीतिक दलों को
प्रतिबंधित कर दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को प्रतिबंधित कर
दिया गया।
’ मीसा 1971 में पारित एक विवादित कानून था। उसमें सुरक्षा एजेंसियों को असीमित
शक्तियां मिली थीं। इसके तहत बिना वारंट के लोगों को गिरफ्तार कर अनिश्चितकाल तक
जेलों में रखा जाता था।
नसबंदी कार्यक्रम : बढ़ती
जनसंख्या को रोकने के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू किया गया था। उसमें नसबंदी
कार्यक्रम वैसे तो स्वैच्छिक था लेकिन कहा जाता है कि इसको जबरिया लागू करते हुए अनेक
अविवाहित लोगों को भी इसके लिए मजबूर किया गया। इस कार्यक्रम में संजय गांधी की
भूमिका मानी जाती है।
प्रेस : सबसे ज्यादा मीडिया की आजादी पर अंकुश लगाया गया। सेंसरशिप लागू कर दी
गई। इस पर अंकुश लगाने के लिए इंदिरा गांधी ने इंद्र कुमार गुजराल को हटाकर विद्याचरण
शुक्ल को सूचना-प्रसारण मंत्री बनाया।
शाह कमीशन ने साफ किया
आपातकाल की ज्यादतियों को जानने के
मकसद से मोरारजी देसाई सरकार ने 28 मई 1977 को शाह आयोग गठित किया जिसके अध्यक्ष
जस्टिस जेसी शाह थे। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट तीन भागों में दी। अंतिम भाग वाली रिपोर्ट
अगस्त 1978 में सौंपी गई। इस रिपोर्ट के छह अध्याय, 530 पेज लोकतांत्रिक संस्थाओं और नैतिक
मूल्यों के साथ हुई ¨हसा की
तीव्रता को दर्शाती है। रिपोर्ट में शाह आयोग ने बताया कि जिस वक्त आपातकाल की
घोषणा की गई उस वक्त देश में न तो आर्थिक हालात खराब थे और न ही कानून व्यवस्था
में किसी तरह की कोई दिक्कत। गिरफ्तार किए बुजुर्ग नेताओं को चिकित्सकीय देखभाल की
जरूरत थी, जिसकी सुविधा जेल के अस्पतालों में
नहीं थी। आयोग ने नसबंदी कार्यक्रम पर सरकार के रवैये को बेहद निराशाजनक करार देते
हुए कहा कि पटरी पर रहने वालों और भिखारियों की जबरदस्ती नसबंदी की गई। यही नहीं, ऑटो रिक्शा चालकों के ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए
नसबंदी सर्टिफिकेट दिखाना पड़ता था।
लोकतंत्र
प्रेमियों के लिए 25 जून
स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे काले दिवसों में से एक के रूप में याद रखा
जाएगा।
- लालकृष्ण
आडवाणी, वरिष्ठ भाजपा नेता (इनकी आत्मकथा ‘मेरा देश मेरा जीवन’ से उद्धृत
अंश)
दुनिया के
जिस सबसे बड़े लोकतंत्र का नागरिक होने की बात हम दुनिया को बड़े फा से बताते हैं, उसी लोकतंत्र को आज से 44 साल पहले
आपातकाल का दंश ङोलना पड़ा। नयी पीढ़ी तो आपातकाल की विभीषिका से बिल्कुल अपरिचित
है। किसी से बातचीत के क्रम में या किसी विमर्श में इस पीढ़ी ने आपातकात शब्द जरूर
सुना होगा लेकिन 25-26
जून, 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री
इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल के दंश की कई पीढ़ियां भुक्तभोगी हैं।
नागरिकों के सभी मूल अधिकार खत्म कर दिए गए थे। राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया
था। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई थी। पूरा देश सुलग उठा था। जबरिया नसबंदी जैसे
सरकारी कृत्यों के प्रति लोगों में भारी रोष था। कहते हैं कि लोकतंत्र की यही खूबी
है कि इसकी आबोहवा में रहा समाज व्यवस्था की खामियों को तुरंत दूर कर लेता है।
लिहाजा यही हुआ। यह आपातकाल ज्यादा दिन नहीं चल सका। करीब 19 महीने बाद लोकतंत्र फिर जीता, लेकिन इस जीत ने कांग्रेस पार्टी की चूलें हिला दी।
संवैधानिक प्रावधान
’ अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल घोषित करने का प्रावधान किया गया है।
बाहरी आक्रमण अथवा आंतरिक अशांति के चलते इसे लगाया जा सकता है।
’ प्रधानमंत्री
के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद के लिखित आग्रह के बाद राष्ट्रपति आपातकाल घोषित कर
सकता है। प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में रखा जाता है और यदि एक महीने के भीतर
वहां पारित नहीं होता तो वह प्रस्ताव खारिज हो जाता है।
’ एक बार में
छह महीने, बाद में अवधि अनिश्चितकाल हो सकती है।
अहम तिथियां
12 जून, 1975: इंदिरा गांधी को इलाहाबाद उच्च
न्यायालय ने दोषी पाया और छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया। राज नारायण ने 1971 में रायबरेली में इंदिरा गांधी के
खिलाफ चुनाव में हारने के बाद अदालत में मामला दाखिल कराया था। जस्टिस जगमोहनलाल
सिन्हा ने यह फैसला सुनाया था।
24 जून, 1975: सुप्रीम कोर्ट ने आदेश बरकरार रखा, लेकिन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की इजाजत दी।
25 जून, 1975: जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के इस्तीफा
देने तक देशभर में रोज प्रदर्शन करने का आह्वान किया।
25 जून, 1975: राष्ट्रपति से अध्यादेश पास करने के
बाद सरकार ने आपातकाल लागू कर दिया।
सितंबर, 1976: आपातकाल के दौरान देश की बढ़ती आबादी
को संतुलित करने के लिएं अनिवार्य पुरुष नसबंदी की गई। लोगों को इससे बचने के लिए
लंबे समय तक छिपने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि लोगों की इच्छा के विरुद्ध नसबंदी
कराई जा रही थी।
18 जनवरी, 1977: इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करते हुए
घोषणा की कि मार्च मे लोकसभा के लिए आम चुनाव होंगे। सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा
कर दिया गया।
23 मार्च, 1977: आपातकाल समाप्त।
लोकतंत्र का काला दिन
सियासी
बवंडर, भीषण राजनीतिक विरोध और कोर्ट के आदेश
के चलते इंदिरा गांधी अलग-थलग पड़ गईं। ऐसे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री
सिद्धार्थ शंकर रे ने उनको देश में आंतरिक आपातकाल घोषित करने की सलाह दी। इसमें
संजय गांधी का भी प्रभाव माना जाता है। सिद्धार्थ शंकर ने इमरजेंसी लगाने संबंधी
मसौदे को तैयार किया था।
राष्ट्रपति
की मुहर : 25
जून, 1975 की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली
अहमद ने प्रधानमंत्री की सलाह पर उस मसौदे पर मुहर लगाते हुए देश में संविधान के
अनुच्छेद 352
के तहत आपातकाल घोषित कर दिया।
लोकतंत्र को निलंबित कर दिया गया। संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रधानमंत्री की
सलाह पर वह हर छह महीने बाद 1977 तक आपातकाल
की अवधि बढ़ाते रहे।
नया लोकतंत्र? सेंसर लागू.. शांत रहें!
इंदिरा
गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा करने के बाद दैनिक जागरण में संपादकीय स्तंभ खाली
छोड़ दिया गया। यह सरकार की निरंकुश कार्यप्रणाली पर गहरा प्रहार था। इसके चलते
जागरण समूह के संस्थापक श्री पूर्णचंद गुप्त, उनके
ज्येष्ठ पुत्र और तत्कालीन संपादक श्री नरेंद्र मोहन और श्री महेंद्र मोहन
(वर्तमान में सीएमडी और संपादकीय निदेशक) को गिरफ्तार कर लिया गया।
टूट सकते
हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
सत्य का
संघर्ष सत्ता से,
न्याय
लड़ता है निरंकुशता से,
अंधेरे ने
दी चुनौती है,
किरण अंतिम
अस्त होती है।
दीप निष्ठा
का लिये निष्कम्प,
वज्र टूटे
या उठे भूकंप,
यह बराबर
का नहीं है युद्ध,
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध,
हर तरह के
शस्त्र से है सज्ज,
और पशुबल
हो उठा निर्लज्ज।
किन्तु फिर
भी जूझने का प्रण,
पुन: अंगद ने बढ़ाया चरण, प्राण-प्रण से करेंगे प्रतिकार, समर्पण की मांग अस्वीकार।
दांव पर सब
कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते
हैं मगर हम झुक नहीं सकते
- अटल बिहारी
वाजपेयी
आपातकाल के
दौरान जेल में रहते हुए लिखी कविता