जब भी सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम घोषित होते हैं, अंग्रेजी और हिंदी एवं अन्य
भारतीय भाषा के माध्यम से परीक्षा देने वाले सफल अभ्यर्थियों के बीच तुलनात्मक
अध्ययन होने लगता है। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले सफल
अभ्यर्थियों की कम संख्या के आधार पर अक्सर यह स्थापित
करने की कोशिश होती है कि इस परीक्षा में अभी भी अंग्रेजी भाषा का दबदबा है।
अंग्रेजी भाषा के दबदबे वाले निष्कर्ष से कोई एतराज नहीं है, क्योंकि यह सही है, लेकिन यह धारणा सही नहीं कि यह
परीक्षा अंग्रेजी वालों के पक्ष में है। चूंकि सिविल सेवा परीक्षा के जरिये देश के
शीर्षस्थ नौकरशाहों की भर्ती की जाती है और इसमें हर वर्ष रात-दिन तैयारी करके
लाखों स्नातक बैठते हैं इसलिए वस्तुस्थिति जानना जरूरी है। कुछ ही दिनों पहले
सिविल सेवा परीक्षा वर्ष 2017-18 के परिणाम आए हैं। इसमें
शुरू के 25 सफल विद्यार्थियों में एक भी हिंदी अथवा
क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से परीक्षा देने वाला नहीं है, लेकिन
इस आंकड़े के पीछे की सच्चाई की तह तक जाना जरूरी है।
हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषा प्रेमियों के लिए तो इस सच्चाई को जानना और भी अधिक
जरूरी है, ताकि वे इस दिशा में व्यावहारिक उपाय करके आकंड़ों
में कुछ सुधार ला सकें।
भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की तरह संघ लोक सेवा आयोग भी
हर साल अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी करता है। इसमें सिविल सेवा परीक्षा के परिणामों
के बारे में बहुत विस्तार के साथ प्रकाश डाला जाता है। फिलहाल वर्ष 2016 के परिणाम के आंकड़े उपलब्ध
हैं। हम इन्हीं आंकड़ों के आधार पर भाषा संबंधी सत्य को जानने की कोशिश करते हैं।
तीन स्तरों वाली सिविल सेवा परीक्षा के जरिये हर साल विभिन्न 25 सेवाओं के लिए लगभग एक हजार युवाओं को चुना जाता है। वर्ष 2016 के आंकड़ों के अनुसार अंतिम चयनित युवाओं में 51.5 प्रतिशत
इंजीनियरिंग से, 13.5 प्रतिशत मेडिकल से और 7 प्रतिशत विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले अभ्यर्थी थे। इन सभी का कुल 72 प्रतिशत था।
स्नातक में इन
72
प्रतिशत विद्यार्थियों के विषय मूलत: विज्ञान के विषय थे। यहां यह
बात गौर करने की है कि विज्ञान की शिक्षा का मुख्य माध्यम अंग्रेजी है। इसलिए यह
स्वाभाविक ही है कि जब इन अभ्यर्थियों के सामने भाषा का माध्यम चुनने का विकल्प
आता है तो ये अंग्रेजी को चुनते हैं और उन्हें चुनना भी चाहिए, क्योंकि भाषा की प्रौढ़ता सिविल सेवा परीक्षा में सफलता का एक अनिवार्य
तत्व होता है। शेष 28 प्रतिशत चयनित विद्यार्थी ही आट्र्स की
पृष्ठभूमि वाले थे, लेकिन इनमें से भी बहुत से
विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़कर आए थे।
आजकल जब भी अच्छे स्कूलों की बात होती है तो उनमें पढ़ाई का माध्यम
अंग्रेजी होना पहली शर्त होती है। सच यह है कि हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में
अच्छे स्कूल अब हम जैसे लोगों की स्मृतियों में ही रह गए हैं जो 30-35 साल पहले सरकारी हिंदी स्कूलों से पढ़कर आए और हिंदी माध्यम से परीक्षा
देकर सिविल सेवा में सफलता अर्जित कर सके। वर्तमान शिक्षा के इस भाषाई चेहरे को
समझे बिना हिंदी-अंग्रेजी की इस बहस को समझा नहीं जा सकता। अब हम एक अन्य आंकड़ा
लेते हैं। सिविल सेवा परीक्षा का सर्वाधिक प्रिय विषय भूगोल है। कुल 3500 अभ्यर्थियों में से हिंदी माध्यम वाले चार सौ के आसपास थे यानीलगभग 12
प्रतिशत। अन्य विषयों की भी भाषाई स्थिति यही थी। उदाहरण के तौर पर
दूसरे लोकप्रिय विषय लोक-प्रशासन के कुल 2800 अभ्यर्थियों
में हिंदी वाले केवल 186 थे। इसी तरह
समाजशास्त्र के 1500 अभ्यर्थियों में हिंदी के केवल 76
थे। यह चरण इस परीक्षा का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है और
कुल 2025 अंकों वाली इस परीक्षा के 1750 अंक इसी चरण में होते हैं। इस परीक्षा की एक मजेदार बात यह है कि चयनित
होने वाले छात्रों में 87.5 प्रतिशत छात्र आट्र्स के ही
विषयों को तरजीह देते हैं। यह 500 अंकों का होता है।
शेष 1250 अंकों में चार पेपर सामान्य अध्ययन के होते हैं जिनमें आट्र्स के विषय
होते हैं। एक पेपर निबंध का होता है जो आट्र्स के अभ्यर्थियों के अधिक अनुकूल होता
है। यहां विचारणीय तथ्य यह है कि सिविल सेवा परीक्षा पूरी तरह से आट्र्स के
विद्यार्थियों के पक्ष में है। बावजूद इसके सफल होने वालों में तीन-चौथाई छात्र
विज्ञान के होते हैं। इस परीक्षा के द्वितीय चरण तक पहुंचने के लिए किसी भी तरह की
भाषाई योग्यता की जरूरत नहीं होती। प्रथम चरण में सामान्य
अध्ययन के वस्तुनिष्ठ प्रकार के पेपर के अधिकांश विषय आट्र्स वाले होते हैं। मुख्य
परीक्षा (द्वितीय चरण) में जनरल इंग्लिश का एक पेपर जरूर होता है, जिस हिंदी माध्यम वालों के लिए एक बाधा कहा जा सकता है, लेकिन बहुत ही छोटी सी बाधा, क्योंकि एक तो इसका
स्तर दसवीं कक्षा का होता है और दूसरे, इस पेपर को केवल
क्वालीफाई करना पड़ता है। इसके प्राप्तांक जोड़े नहीं जाते।
दरअसल हिंदी माध्यम वालों की दो सबसे बड़ी समस्याएं हैं। पहली यह कि
उनकी भाषा हिंदी तो होती है, लेकिन वह नहीं, जिसे अकादमिक
हिंदी कहा जाता है। दूसरी यह कि बहुत कम विद्यार्थी अपने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई
के दौरान विषय के प्रति तार्किक दृष्टि विकसित कर पाते हैं। जो कर लेते हैं वे सफल
हो जाते हैं। तार्किकता अपने आप ही अनुकूल भाषा की भी तलाश कर लेती है। जबकि
विज्ञान के विद्यार्थी इन दोनों से लैस होते हैं। वे अंग्रेजी जानते हैं, क्योंकि उनकी अंग्रेजी सीखी हुई होती है, केवल सुनी
हुई नहीं। साथ ही जब वे परीक्षा में आट्र्स के विषय लेते हैं तो वे उस विषय को भी
विज्ञान की तरह पढ़कर उसे समझने की कोशिश करते हैं, क्योंकि
यह उनकी आदत बन चुकी होती है।
एक सवाल यह भी उठता है कि क्र्या हिंदी या तमिल, उर्दू की कॉपी भी अंग्रेजी जानने वाले जांचते हैं? यदि
नहीं तो क्र्या हिंदी, तमिल और उर्दूभाषी परीक्षक अपनी ही
भाषाओं से विद्वेष रखते हैं? इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए
और यह समझा जाना चाहिए कि समस्या किसी तरह के भाषाई द्वेष की नहीं, बल्कि स्वयं को परीक्षा की आवश्यकता के अधिक से अधिक अनुकूल बनाने की है।
स्पष्ट है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषा वाले विद्यालयों को अपना शैक्षिक स्तर
सुधारने की आवश्यकता है।