Wednesday, May 9, 2018

प्रारंभिक शिक्षा का बाजारीकरण, अनौपचारिक शिक्षा की लंबी अवधि अनावश्यक ही अधिक


औपचारिक शिक्षा की किताबी पढ़ाई से पहले अनौपचारिक शिक्षा की लंबी अवधि अनावश्यक ही अधिक है
इन दिनों देश के ज्यादातर हिस्सों में स्कूलों में दाखिलों का दौर चल रहा है। हर तरह के अच्छे स्कूलों में प्रवेश को लेकर मारामारी है। इनमें प्रीस्कूल भी शामिल हैं। बीते कुछ समय से अभिभावकों को प्रीस्कूलों में भी बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए खासी दौड़-धूप करनी पड़ती है। इतना ही नहीं उन्हें फीस के एवज में एक बड़ी रकम भी खर्च करनी पड़ती है। यह किसी से छिपा नहीं कि अब शहरी इलाकों के साथ-साथ किस तरह ग्रामीण इलाकों में भी प्री स्कूलों को खोलने की होड़ है। इस होड़ ने एक ऐसा माहौल बना दिया है कि बच्चों को प्लेग्रुप, नर्सरी, केजी आदि भेजना आवश्यक सा हो गया है। एक समय कच्चे एक-पक्के एक वाली व्यवस्था ने अब अनावश्यक विस्तार ले लिया है।
पिछले दिनों लर्निग ब्लॉक के एक सर्वे से यह बात सामने आई थी कि सरकारी शिक्षा धीरे-धीरे निजी स्कूलों की ओर खिसक रही है। बीते सालों में 22 लाख बच्चे सरकारी स्कूल छोड़कर प्राइवेट स्कूलों में चले गए। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड समेत आठ राज्यों में निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में 40 से 50 फीसदी तक का इजाफा हुआ है। यदि निजी स्कूलों में नामांकन की यही रफ्तार बनी रही तो 2020 तक नामांकन की यह दर 55 फीसद तक पहुंच जाएगी। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के प्राथमिक सरकारी स्कूल केवल गरीब एवं पिछड़े परिवारों के बच्चों तक सीमित होकर रह गए हैं। इन विद्यालयों का शैक्षिक वातावरण शून्य हो गया है और शिक्षक शिक्षण कार्य के अलावा अन्य सभी काम करते दिखते हैं। सरकारी प्राथमिक शिक्षा के कमजोर तंत्र का फायदा निजी स्कूल उठा रहे हैं। यही वजह है कि प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई है और अनेक उद्यमी रातों रात शिक्षाविद कहलाने लगे हैं। अंग्रेजी स्कूलों की खासियत यह है कि वे औपचारिक शिक्षा की किताबी पढ़ाई शुरु होने से पूर्व अनौपचारिक शिक्षा पर आधारित हैं।
प्रीस्कूल पढ़ाई के स्तर को देखें तो ज्ञात होता है कि बच्चे की अनौपचारिक पढ़ाई के कई चरण हैं- प्लेग्रुप, एलकेजी और यूकेजी। अनौपचाारिक शिक्षा का यह प्रतिमान पश्चिम से चलकर भारत आया है। प्रीस्कूल अंग्रेजी शिक्षा का इतिहास बताता है कि इस शिक्षा का सिलसिला 18 वीं शताब्दी में औद्योगिक व्यवस्था के चलते कायम हुआ। ऐसे मातापिता जो फैक्ट्रियों में कार्यरत थे उनके परिवार बिल्कुल एकल थे। ऐसे परिवारों के बच्चों के लिए पालन पोषण और प्राथमिक शिक्षा का कोई उचित प्रबंध नहीं था। इस प्रकार के परिवारों के बच्चों के शारीरिक विकास और मानसिक विकास के लिए प्री स्कूलों का प्रबंध किया गया ताकि कार्यशील एकल परिवारों के बच्चों को इन स्कूलों में परिवार जैसा माहौल मिल सके और कामगार बच्चों की तरफ से निश्चिंत होकर अपना कार्य कर सकें। इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि पश्चिम में जन्मदर में गिरावट आनी शुरू हुई और आज तमाम देश ऐसे हैं जहां युवाओं के मुकाबले वृद्धों की संख्या अधिक होती जा रही है। चूंकि अब वहां वृद्ध भी वृद्धाश्रम की शरण ले रहे हैं इसलिए बच्चों के सामाजीकरण करने और उन्हें दुनियावी जिंदगी से रूबरू कराने वाला कोई बचा ही नहीं। इस सामाजिक और शैक्षिक टूटन का फायदा प्रीस्कूल शिक्षा ने खूब उठाया।
पश्चिम की तरह भारत में भी यह प्रीस्कूली शिक्षा फलफूल रही है। यह सिलसिला उदारीकरण की प्रक्रिया लागू होने के बाद ज्यादा तेज हुआ है। शहरों में ऐसे एकल परिवार तेजी से बढ़े हैं जिसमें पति-पत्नी, दोनों नौकरी करते हैं। ऐसे दंपती अकेले रहते हैं इसलिए बच्चों को प्रीस्कूली शिक्षा के हवाले करना बेहतर समझते हैं। चूंकि शहरों में यह एक चलन बन गया है कि बच्चों को औपचारिक शिक्षा से पहले अनौपचारिक शिक्षा दिलानी है इसलिए संयुक्त परिवारों में रह रहे दंपती बच्चों को प्री स्कूलों में भेजते हैं। इसके बदले उन्हें अच्छी-खासी फीस चुकानी पड़ती है। विडंबना यह है कि कोई भी इस पर सोचने-विचारने के लिए तैयार नहीं कि आखिर बच्चों को कक्षा एक में दाखिला लेने यानी औपचारिक शिक्षा के पहले प्री स्कूल जाना क्यों आवश्यक है और वह भी सालों-साल? किसी को यह समझ आना चाहिए कि यह सही नहीं कि बच्चों को औपचारिक शिक्षा दिलाने के पहले उन्हें इतना अधिक तैयार करने की जरूरत पड़े। कायदे से तो प्ले ग्रुप या फिर नर्सरी के बाद बच्चों को सीधे कक्षा एक जाना चाहिए।
प्री स्कूलों के फीस ढांचे का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि बच्चों का उठना-बैठना, खाना-पीना और थोड़ी बहुत अंक गणना सिखाने की बड़ी कीमत वसूली जा रही है। भारत जैसे देश में जहां अभी भी परिवार व्यवस्था है वहां प्रीस्कूली शिक्षा के एक उद्योग में तब्दील होने का कोई औचित्य नहीं। देखने में यह भी आ रहा है कि एकल कामकाजी परिवारों ने अपने बच्चों को इन प्री स्कूलों में भेजना शुरू तो कर दिया है, लेकिन किसी भी प्रकार का निगरानी तंत्र न होने से उन्हें यह नहीं पता चलता कि बच्चे का कितना विकास हो रहा है? एक समस्या यह भी है कि प्री स्कूल जाने वाले बच्चे समय से पहले मां-बाप के नैसर्गिक प्रेम से वंचित हो रहे हैं। बाल मनोविज्ञान कहता है कि पांच साल की उम्र बच्चों के विकास की सबसे संवेदनशील अवधि होती है। यह वह अवस्था होती है जब बच्चा परिवार और दुनियावी जिंदगी के बीच तालमेल बैठाता है।
भले ही प्री स्कूली संस्थाएं कामकाजी परिवारों के लिए एक सहारा बन रही हों, लेकिन उनका अनिवार्य होते जाना कोई शुभ संकेत नहीं। कहना कठिन है कि नई शिक्षा नीति तैयार करने वाले इस पर ध्यान देंगे या नहीं कि प्री स्कूली शिक्षा कितनी आवश्यक है? कम से यह तो आवश्यक नहीं होना चाहिए कि बच्चा औपचारिक शिक्षा हासिल करने जाने के पहले कई साल प्री स्कूलों में गुजारे और इसके बदले अभिभावक भारी-भरकम फीस खर्च करें। जो कार्य आजकल प्री स्कूल कर रहे हैं वह एक समय घर के बड़े-बुजुर्ग किया करते थे। एकल परिवारों के चलते अब ऐसा होना थोड़ा कठिन है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि प्री स्कूली शिक्षा के ढांचे पर कोई ध्यान न दे। यदि प्री स्कूल शिक्षा का बाजार बड़ा होता जा रहा है तो सामाजिक-शैक्षिक परंपरा में विचलन के कारण। जहां यह जरूरी है कि वर्तमान की प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखा जाए वहीं यह भी कि बाल मनोविज्ञान की अनदेखी न होने पाए।

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