Thursday, May 10, 2018

फिलीस्तीन पर फिर संकट :येरूसलम विवाद


जरायल स्थित अमेरिकी दूतावास को तेलअवीव से येरूसलम स्थानांतरण किए जाने की खबर से पूरे विश्व में हलचल है। हालांकि डोनाल्ड ट्रंप द्वारा छह माह पूर्व ही इसकी घोषणा कर दी गई थी लेकिन उम्मीद नहीं थी कि क्रियान्वयन प्रक्रिया इतनी तीव्र होगी। संयुक्त राष्ट्र समेत नियंतण्र असहमति के बावजूद गत दिसम्बर को राष्ट्रपति ट्रंप ने येरूसलम को इजरायली राजधानी की मान्यता प्रदान कर दूतावास स्थानांतरण के आदेश दिए थे। हालिया खबरों के मुताबिक आशंका है कि ट्रंप इस दिशा में भी तीव्र फैसला लेते हुए इजरायल के राष्ट्रीय दिवस 14 मई को अपने नये दूतावास का उद्घाटन कर सकते हैं। शंका की गुंजाइश इसलिए नहीं है क्योंकि इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू द्वारा उन्हें इस दिन का आमंतण्रपहले से प्राप्त है। मौजूदा हालात में दूतावास का स्थानांतरण चुनौतीपूर्ण व जोखिमपूर्ण है क्योंकि यह फिलीस्तीनी सरजमीं पर इजरायली अधिकार थोपने वाला कदम है। इससे न सिर्फ फिलीस्तीनियों के बीच रोष व असंतोष है बल्कि ब्रिटेन, चीन, फांस, रूस व जर्मनी समेत अरब मुल्कों द्वारा इस निर्णय की कड़ी निंदा की जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के महासचिव एंटोनियो गुटेरस द्वारा भी इस फैसले को इजरायल-फिलीस्तीन के बीच जारी शांति की संभावनाओं को समाप्ति की पहल जैसा कदम बताया जा चुका है। तमाम अवरोधों के बावजूद अमेरिकी सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम न सिर्फ नियंतण्र आलोचना के केंद्र में है बल्कि यह भी स्पष्ट है कि तकरीबन सात दशकों से अमेरिकी विदेश नीति और इजरायल-फिलीस्तीन के बीच शांति बहाली पर भी पूर्ण विराम लग गया है। विशेषकर ईरान और तुर्की इन घटनाक्रमों से ज्यादा आहत हुए हैं। तुर्की ने इजरायल से अपने सभी कूटनीतिक संबंधों को समाप्त भी कर लिया है। इजरायल जहां इस फैसले को ऐतिहासिक व अपना विजयी मान रहा है, फिलीस्तीनी समर्थकों के लिए यह मुस्लिम समुदाय के खिलाफ युद्ध की घोषणा है। सवाल है कि पहले से तेलअवीव स्थित दूतावास को येरूसलम स्थानांतरण करने का उद्देश्य क्या है? सवाल यह भी है कि क्या यह केवल इजरायली हितों को साधने मात्र का अमेरिकी प्रयास है? सर्वविदित है कि येरूसलम धार्मिक रूप से संवेदनशील और तीन आस्थाओं से जुड़ा स्थान है, जिसके अधिकांश भू-भाग पर इजरायल का कब्जा हो चुका है। यहूदी, मुस्लिम और ईसाई तीनों इसे अपना पवित्र स्थल मानते हैं। सर्वाधिक विवाद अल-अक्सा मस्जिद को लेकर है, जिसे दुनिया भर के मुसलमान अपने तीन सर्वाधिक पवित्र स्थलों में से एक मानते हैं। अल-अक्सा मस्जिद में इजरायल द्वारा फिलीस्तीनियों के आवागमन पर रोक-टोक व नमाजियों की तालाशी आदि इस्लाम-यहूदी टकराव के बड़े कारण बने हुए हैं। इसके अलावा सीमा-सुरक्षा, जल क्षेत्र पर अधिकार, शरणार्थियों की समस्या समेत येरूसलम पर कब्जे को लेकर विवाद गहरा हो चुका है। यह भी सच है कि इस विवाद को सुलझाने में अंतरराष्ट्रीय पहल गौण हो चुकी है और लगभग 100 वर्षो से चल रहा अस्तित्व का यह विवाद उलझता चला गया। धर्म के प्रमुख तीर्थस्थलों वाले शहर येरूसलम को फिलीस्तीन व इजरायल दोनों ही से अलग की पहचान दिए जाने के बावजूद सन् 1948 के युद्ध में येरूसलम के पश्चिमी हिस्से पर इजरायल का कब्जा हुआ। 1967 के युद्ध में फिलीस्तीन को पूर्वी येरूसलम के अलावा कुछ और हिस्से गंवाने पड़े। महत्त्वपूर्ण है कि इन क्षेत्रों को संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है। अमेरिका द्वारा इजरायल को प्रारम्भ से दी जा रही सैन्य सुविधाएं जगजाहिर हैं। मौजूदा संकट है कि अमेरिका द्वारा विवादित स्थान को बतौर इजरायली राजधानी मान्यता देना अरब मुल्कों को आंदोलित करने जैसा है। येरूसलम विवाद की गंभीरता को देखते हुए बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश व ओबामा ने इस दिशा में कोई कदम बढ़ाने से परहेज किया। दरअसल, अमेरिका द्वारा अपने दूतावास को स्थानांतरित करने के लिए वर्ष 1995 में एक कानून पारित किया गया था। अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने यह वादा किया था कि सत्ता में आने पर इसका क्रियान्वयन करेंगे। उनके चुनाव प्रचार से ही यह जाहिर हो चुका था कि वे संतुलित न रहकर एकतरफा और इजरायल समर्थक की भूमिका में रहेंगे। सत्तासीन होते ही उनके द्वारा फिलीस्तीन को मिल रहा अनुदान बंद कर दिया गया। स्पष्ट है कि अमेरिका अब ‘‘एक-राष्ट्रएजेंडा पर अग्रसर है। यह भी सच है कि ट्रंप-नेतन्याहू के नेतृत्व में अमेरिका-इजरायल की दोस्ती परवान चढ़ी है, जिसका खमियाजा फिलीस्तीन को भुगतना पड़ रहा है। हालांकि इसका विरोध भी हुआ है लेकिन फिलीस्तीनी एकजुटता की कमजोरी के कारण विरोध फीका रह जाता है। इसी दरम्यान फिलीस्तीन के समर्थन के लिए गाजापट्टी में आक्रामक गुट ‘‘हमासके कब्जे ने संघर्ष को और हिंसक और बेलगाम बनाने का काम किया। इसके बढ़ते प्रभाव के कारण फिलीस्तीन में अतिवादियों की संख्या बढ़ी है, जिससे आंदोलन का प्रारूप भी बदला है। 2006 के संसदीय चुनाव में हमास को 132 में 74 सीटों पर जीत मिलना उनके मजबूत प्रभाव को दर्शाता है। अफसोस है कि अब फिलीस्तीनियों की हकमारी विश्व समुदाय और को परेशान नहीं कर रहा। बहरहाल, येरूसलम को राजधानी की मान्यता दिए जाने की पहल से ट्रंप और नेतन्याहू को छोड़कर पूरा विश्व चिंतित है। चिंता की गंभीरता इसलिए बढ़ी हुई है कि ट्रंप का यह फैसला एकतरफा, गैरजिम्मेदाराना और नियंतण्र संगठन के मत के खिलाफ है। इससे पहले नेतन्याहू ने भी संयुक्त राष्ट्र द्वारा फिलीस्तीनी जमीं पर उपनिवेश को लेकर पारित प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इस सूरत में मजबूत नियंतण्र हस्तक्षेप ही एकमात्र रास्ता बचा है। इसके अलावा स्वंय अमेरिका और इजरायल को भी अपनी अंतराष्ट्रीय साख बचाने की कवायद करनी चाहिए। एक और ताजा घटनाक्रम के तहत इजरायली प्रधानमंत्री ने यु़द्ध संबंधी निर्णय के सभी अधिकार अपने पास सुरक्षित कर लिये हैं। पहले इन अधिकारों के प्रयोग के लिए संसद की संतुति आवश्यक होती थी। क्या हम आने वाले समय में इस क्षेत्र में कुछ गंभीर युद्ध प्रयासों के गवाह बनेंगे

ensoul

money maker

shikshakdiary

bhajapuriya bhajapur ke