नवउदारवाद के बोलबाले के आज के दौर में भी, यह गति कोई पूरी तरह से रुक नहीं
गई है और विश्व पूंजीवाद के मौजूदा संकट के खिलाफ; जहां
विकसित दुनिया में मेहनत को लेकर बड़े पैमाने पर आंदोलन हो रहे हैं, वहीं तीसरी दुनिया के देशों में भी मजदूर-किसान उठ रहे हैं। मार्क्स का
कभी दावा नहीं था कि उनका कहा अंतिम है। उल्टे वह खुद अपने विचारों का विकास करते
रहे थे। मार्क्स के विचारों के वास्तविक वारिस, इन विचारों
का मंत्रजाप करने वाले नहीं बल्कि उन्हें सामाजिक बदलाव का औजार बनाने वाले लोग हैं
वीसवीं सदी के एकदम अंत में बीबीसी न्यूज के एक
ऑनलाइन जनमत सव्रेक्षण के नतीजे बहुतों के लिए चौंकाने वाले थे। 1999 के सितम्बर में हुए इस सर्वे ने कार्ल मार्क्स को सहस्त्राब्दी का सबसे महान चिंतक ठहराया था। याद रहे कि तब तक
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय समाजवादी राज्यों के पतन के बाद लगभग एक दशक गुजर
चुका था। इस दशक के दौरान न सिर्फ एक बार फिर मार्क्सवाद के अंत का एलान किया जा
चुका था बल्कि उसने जिस सचेत सामाजिक परिवर्तन का द्वार खोला था, उसके अर्थ में इतिहास के ही अंत का एलान किया जा चुका था। बेशक, इक्कीसवीं सदी में भी इस महान क्रांतिकारी चिंतक का दर्जा कोई घटा नहीं
है। नई सदी के क्रमश: पहले और दूसरे दशकों के मध्य में भी अलग-अलग सव्रेक्षणों में
कार्ल मार्क्स को ‘‘महानतम दार्शनिक’ से
लेकर, ‘‘अब तक का सबसे प्रभावाली चिंतक’ तक ठहराया गया था। अचरज नहीं कि आज दुनिया भर में कम्युनिस्ट ही नहीं
बल्कि मानवता के लिए एक बेहतर भविष्य की कामना करने वाले सभी लोग, मार्क्स का दो सौवां जन्मदिन मना रहे हैं। 65 वर्ष
की आयु में, 14 मार्च 1883 को उनका
निधन हुआ था। इस अपेक्षाकृत छोटे अरसे में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें ऐसा क्या था,
जो न सिर्फ आज भी सारी दुनिया उसके महत्त्व को मानती है बल्कि यह भी
स्वीकार करती है कि मार्क्स के बाद, दुनिया पहले जैसी नहीं
रह गई। जाहिर है कि दुनिया के पहले जैसा न रह जाने का संबंध, मार्क्स के विचारों के वास्तविक जीवन पर प्रभाव से है। याद रहे मार्क्स
ने ही कहा था कि विचार जब लोगों के मानस में जड़ जमा लेते हैं, तो वे एक भौतिक शक्ति बन जाते हैं। मार्क्स के विचारों को ऐसी ही भौतिक
शक्ति का रूप लेकर समूचे समाज को ही बदलते, पहले-पहल 1917 में रूस में और आगे चलकर दूसरे भी कई देशों में दुनिया ने देखा था। लेकिन
उसकी र्चचा बाद में। सभी जानते हैं कि मार्क्स और उनके आजीवन सहयोगी, फ्रेडरिख एंगेल्स ने कम्युनिज्म का, एक वर्गीय शोषण
और वर्गीय विभाजन से मुक्त समाज का लक्ष्य, मानवता के सामने
रखा था। बेशक, ऐसे समाज का सपना उनसे पहले ही अस्तित्व में आ
चुका था। पर मार्क्स और एंगेल्स ने इस सपने को यथार्थ की ठोस जमीन पर उतारने का
काम किया था। 1884 में प्रकाशित कम्युनिस्ट घोषणापत्र में,
जिसकी गिनती आज भी दुनिया की अब तक की सबसे प्रभावशाली पचास
पुस्तकों में होती है, पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने
के लिए मजदूर वर्ग के आह्वान के जरिए, इस क्रांतिकारी
सामाजिक परिवर्तन को उन्होंने ठोस सामाजिक शक्तियों के एजेंडे पर पहुंचा दिया। मगर
मार्क्स और एंगेल्स जैसे उनके संगी, कोई विचारों की दुनिया
तक ही सीमित रहने वाले जीव नहीं थे। इसके उलट, उनका तमाम
लेखन और उनके विचार और वास्तव में उनका पूरा का पूरा जीवन ही, इस सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई का ही अभिन्न हिस्सा था। अचरज नहीं कि वे
मजदूर वर्ग के सामने, एक वर्गहीन समाज का लक्ष्य रखने पर
नहीं रुक गए। वे खुद भी इस संघर्ष के लिए मजदूरों को संगठित करने के प्रयास में
जुट गए। 1864 में स्थापित इंटरनेशनल वर्किग मेन्स एसोसिएशन
इन्हीं प्रयासों का नतीजा थी। बहरहाल, वर्गहीन समाज के सपने
को इस तरह जमीन पर उतारना, सिर्फ किसी बौद्धिक युक्ति या
चमत्कार का करिश्मा नहीं था। इसके विपरीत, मार्क्स-एंगेल्स
ने सामाजिक इतिहास के आम नियमों की वैज्ञानिक खोज और उनसे निकलने वाले तत्कालीन
समाज की प्रगति के नियमों की ठोस जमीन पर, इस सपने को टिकाया
था। इन्हीं नियमों के आधार पर इतिहास की व्याख्या को, ऐतिहासिक
भौतिकवाद के नाम जाता है। उत्पादन पद्धतियों के अनुरूप ही अन्य तमाम सामाजिक
संरचनाओं का विकास होता है। यह बदलाव या विकास, वर्ग संघर्ष
के आधार पर होने से ही मार्क्स इस निष्कर्ष तक पहुंचे थे कि अब तक का इतिहास,
वर्ग संघर्षो का इतिहास रहा है। और यह भी कि पूंजीवादी व्यवस्था के
गर्भ से पैदा हुआ मजदूर वर्ग इस अनोखी स्थिति में है कि वह, इस
अर्थ में इतिहास का अतिक्रमण कर, एक वर्गहीन समाज का रास्ता
खोल सकता है। यहां आकर वर्गहीन समाज का सपना सिर्फ सदेच्छा का मामला न रहकर,
समाज के विकास की एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन जाता है। मार्क्स के
विचारों के अमर होने का संबंध सबसे बढ़कर इन विचारों के वैज्ञानिक पद्धति पर
आधारित होने से है। इस वैज्ञानिक पद्धति का सार है : सामाजिक यथार्थ विशेष के
अध्ययनों से, सामाजिक विकास के आम नियमों तक पहुंचना और इन
आम नियमों की रोशनी में विश्लेषण के माध्यम से, यथार्थ विशेष
की बेहतर समझ हासिल करना। स्वाभाविक रूप से मार्क्स ने अपने समय की पूंजीवादी
व्यवस्था का विवाद और गहरा अध्ययन किया था। मार्क्स का महाग्रंथ पूंजी इसी का
पारिणाम था, जिसका पहला खंड ही मार्क्स के जीवनकाल में
प्रकाशित हो पाया था और अन्य दो खंड बाद में उनकी छोड़ी पांडुलिपियों से तैयार किए
गए थे। इस विवादित अध्ययन के फलस्वरूप मार्क्स ने पूंजीवाद की जिन बुनियादी
प्रवृत्तियों को रेखांकित किया था, वे आज भी सच हैं। इसके
बावजूद, मार्क्स जाहिर है कि पूंजीवाद के उसी रूप की
प्रवृत्तियों को देख सकते थे, जो रूप उनके समय तक सामने आ
चुका था। पूंजीवाद के रूप के बाद के विकास की पड़ताल करने और उसके आधार पर मार्क्सवाद
की पद्धति से बढ़कर उसके निष्कर्षो को अपडेट करने का काम, उनके
बाद के मार्क्सवादियों ने किया। लेनिन का नाम इनमें सबसे प्रमुख है, जिन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के साम्राज्यवादी रूप की पहचान की। मार्क्स
उत्तराधिकारियों द्वारा मार्क्सवाद का यही विकास था, जिसने
पश्चिमी यूरोप की विकसित पूंजीवादी दुनिया से बाहर, मजदूर-किसान
एकता के आधार पर, पूंजीवादी व्यवस्था के अतिक्रमण का रास्ता
खोला था। नवउदारवाद के बोलबाले के आज के दौर में भी, यह गति
कोई पूरी तरह से रुक नहीं गई है और विश्व पूंजीवाद के मौजूदा संकट के खिलाफ;
जहां विकसित दुनिया में मेहनत को लेकर बड़े पैमाने पर आंदोलन हो रहे
हैं, वहीं तीसरी दुनिया के देशों में भी मजदूर-किसान उठ रहे
हैं। मार्क्स का कभी दावा नहीं था कि उनका कहा ही हर्फे आखिर है। उल्टे वह खुद
जीवन भर अपने विचारों का विकास करते रहे थे। मार्क्स के विचारों के वास्तविक
वारिस, इन विचारों का मंत्रजाप करने वाले नहीं बल्कि उन्हें
सामाजिक बदलाव का औजार बनाने वाले लोग हैं। उन्हें मार्क्स के विचारों के अपने
इसी व्यवहार के तकाजों से, इन विचारों का निरंतर विकास करते
रहना होगा। यही मार्क्स के विचारों को अमर बनाएगा। यही 200वीं
सालगिरह पर मार्क्स के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।