हरि किशन सरहदी
जन्म: 1909; शहादत: 9 जून, 1931
हरि किशन सरहदी भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे, जो भारत की आज़ादी की लड़ाई शहीद में हो गये।
उत्तर-पश्चिम के सीमांत प्रान्त के मर्दन जनपद के गल्ला ढेर
नामक स्थान पर गुरुदास मल के पुत्र रूप में सन 1909 में बालक हरिकिशन का जन्म हुआ था। गुरु दास
मल की माँ यानि कि हरिकिशन की दादी माँ बचपन से ही क्रान्तिकारियों के किस्से
कहानियों के रूप में बालक हरिकिशन को सुनाया करती थीं। क्रांति का बीज परिवार ने
ही बोया। क्रांति बीज को पोषित करके, हरा-भरा करके माँ भारती
के कदमो में समर्पित पिता गुरुदास मल ने किया। काकोरी कांड का बड़े लगन व
चाव से अध्ययन हरिकिशन ने किया। रामप्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ हरिकिशन के आदर्श
बन गये। दौरान-ए-मुकदमा (असेम्बली बम कांड) भगत सिंह के बयानों ने
हरिकिशन के युवा मन को झक झोर दिया। भगत सिंह को हरिकिशन अपना गुरु मानने लगे। यह
वह दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पूरे देश में क्रान्तिकारियों पर दमन अपने चरम
पर था।
यह वह दौर था, जब ब्रिटिश
हुकूमत द्वारा पूरे देश में क्रान्तिकारियों पर दमन अपने चरम पर था। इन्हीं
परिस्थितियों में क्रांतिपुत्र हरिकिशन ने पंजाब के
गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी का वध करने का निश्चय किया। पंजाब विश्विद्यालय का
दीक्षांत समारोह 23 दिसम्बर, 1930 को संपन्न होना था। समारोह की अध्यक्षता गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी को
करनी थी और मुख्य वक्ता डॉ. राधाकृष्णन थे।
अपनी पूरी तैयारी के साथ हरिकिशन भी सूट-बूट पहन कर दीक्षांत भवन में उपस्थित थे।
डिक्शनरी के बीच के हिस्से को काटकर उसमें रिवाल्वर रखकर समारोह की समाप्ति का
इंतज़ार करने लगे। यह ध्यान देने की बात है कि हरिकिशन को गोली चलाने की ट्रेनिंग
उनके ही पिता गुरुदास मल ने स्वयं ही दी थी। हरिकिशन एक पक्के निशानेबाज बन गये
थे। समारोह समाप्त होते ही लोग निकलने लगे। हरिकिशन एक कुर्सी पर खड़े हो गये और
उन्होंने गोली चला दी, एक गोली गवर्नर की बांह और दूसरी पीठ
को छिलती हुई निकल गयी। तब तक डॉ. राधाकृष्णन गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी को
बचाने के लिए उनके सामने आ गये। अब हरिकिशन ने गोली नहीं चलायी और सभा भवन से निकल
कर पोर्च में आ गये। पुलिस दरोगा चानन सिंह पीछे से लपके और वे हरिकिशन का शिकार
बन गये, एक और दरोगा बुद्ध सिंह वधावन ज़ख़्मी होकर गिर
पड़ा। हरिकिशन अपना रिवाल्वर भरने लगे परन्तु इसी दौरान पुलिस ने उन्हें धर दबोचा।
इस तरह उस समय एक ब्रितानिया शोषक-जुल्मी की जन किसने बचायी और वे कितने बड़े
देशभक्त थे, यह इस घटना से समझा जा सकता है। अब हरिकिशन पर
अमानवीय यातनाओं का दौर शुरु हो गया।[1]
22 वर्ष की
आयु में शहीद
लाहौर के
सेशन जज ने 26 जनवरी, 1931 को हरिकिशन को मृत्यु दंड दिया। हाई कोर्ट ने भी फैसले पर मोहर लगायी। जेल
में दादी ने आकर कहा- हौसले के साथ फाँसी पर चढ़ना। हरिकिशन ने जवाब दिया- फ़िक्र
मत करो दादी, शेरनी का पोता हूँ। पिता ने जेल
में तकलीफ पूछने की जगह सवाल दागा- निशाना कैसे चूका ? उत्तर
मिला- मैं गवर्नर के आस पास के लोगों को नहीं मरना चाहता था इसीलिए कुर्सी पर खड़े
होकर गोली चलाई थी। परन्तु कुर्सी हिल रही थी। उसी जेल में भगत सिंह भी कैद थे।
भगत सिंह से मिलने के लिए हरिकिशन अनशन पर बैठ गये। अनशन के नौवें दिन जेल
अधिकारियों ने भगत सिंह को हरिकिशन की कोठरी में मिलने के लिए भेजा। अपने गुरु से
मिलकर हरिकिशन बहुत प्रसन्न हुये। आपके पिता गुरुदास मल को भी गिरफ्तार कर लिया
गया। यातनाएं दी गयीं जिससे उनकी मृत्यु हो गयी। हरिकिशन को ही छोटा भाई भगतराम सुभाष चन्द्र बोस को
रहमत उल्लाह के छद्म नाम से अफ़ग़ानिस्तान तक
छोड़ने गया था। पूरा परिवार ही देश की आज़ादी में अपना योगदान और बलिदान देने में
जुटा हुआ था। 9 जून, 1931 को प्रातः 6 बजे लाहौर की मियां वाली जेल में
इन्कलाब जिंदाबाद के नारे गुंजायमान होने लगे और फिर एक तूफान आने के बाद की खामोश
छा गयी। वीर युवा हरिकिशन आज़ादी की राह पर फाँसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया।
रणबांकुरे हरिकिशन की अंतिम इच्छा थी कि- "मैं इस पवित्र
धरती पर तब तक जन्म लेता रहूँ जब तक इसे स्वतंत्र ना कर दूँ। यदि मेरा मृत शरीर
परिवार वालों को दिया जाये तो अंतिम संस्कार उसी स्थान पर किया जाये जहाँ पर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का संस्कार हुआ
था। मेरी अस्थियाँ सतलुज में उसी स्थान पर प्रवाहित की जाये जहाँ उन
लोगों की प्रवाहित की गयी हैं।" लेकिन अफ़सोस ही कर सकते है कि ब्रिटिश
हुकूमत ने हरिकिशन के पार्थिव शरीर को उनके परिवार को नहीं सौंपा और जेल में ही
जला दिया।