अरबिंदो घोष
15 अगस्त, 1872 - 5 दिसम्बर 1950
अरबिंद घोषका मूल नाम अरबिंदो घोष है किंतु श्रीअरविंद भी कहा
जाता है। आधुनिक काल में भारत में अनेक महान् क्रांतिकारी और योगी हुए
हैं, अरबिंदो घोष उनमें अद्वितीय हैं। अरविंदो घोष कवि और
भारतीय राष्ट्रवादी थे जिन्होंने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से सार्वभौमिक मोक्ष
का दर्शन प्रतिपादित किया।
अरबिंदो घोष का जन्म बंगाल के कलकत्ता, वर्तमान कोलकाता, भारत में एक सम्पन्न परिवार में 15 अगस्त, 1872 को हुआ। उनके पिता का नाम डॉक्टर कृष्ण धन घोष और माता का नाम स्वर्णलता
देवी था। इनके पिता पश्चिमी सभ्यता में रंगे हुए थे। इसलिए उन्होंने अरबिंदो को दो
बड़े भाइयों के साथ दार्जिलिंग के एक अंग्रेज़ी
स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया। दो वर्ष बाद सात वर्ष की अवस्था में उनके पिता
उन्हें इंग्लैण्ड ले गए। अरविंद को
भारतीय एवं यूरोपीय दर्शन और
संस्कृति का अच्छा ज्ञान था। यही कारण है कि उन्होंने इन दोनों के समन्वय की दिशा
में उल्लेखनीय प्रयास किया। कुछ लोग उन्हें भारत की ऋषि परम्परा (संत परम्परा) की नवीन कड़ी
मानते हैं। श्री अरविंद का दावा है कि इस युग में भारत विश्व में एक रचनात्मक
भूमिका निभा रहा है तथा भविष्य में भी निभायेगा। उनके दर्शन में जीवन के सभी
पहलुओं का समावेश है। उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी अपने विचार व्यक्त
किए हैं, यथा संस्कृति, राष्ट्रवाद,
राजनीति, समाजवाद आदि साहित्य, विशेषकर काव्य के क्षेत्र में उनकी कृतियां बहुचर्चित हुई हैं।
अरबिंदो घोष की शिक्षा दार्जिलिंग में ईसाई कॉन्वेंट स्कूल में
प्रारम्भ हुई और लड़कपन में ही उन्हें आगे की स्कूली शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया।
इंग्लैण्ड में एक अंग्रेज़ परिवार में रहने और पढ़ने की व्यवस्था कर तीनों भाइयों
को छोड़ वह वापस आ गये। इंग्लैण्ड में अरबिंदो घोष की भेंट बड़ौदा नरेश से हुई।
बड़ौदा नरेश अरबिंदो की योग्यता देखकर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अरबिंदो को
अपना प्राइवेट सेक्रेटरी नियुक्त कर लिया। अत: वह भारत लौट आये। अरबिंदो ने कुछ
समय तक तो यह कार्य किया, किन्तु फिर अपनी स्वतंत्र
विचारधारा के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। वह बड़ौदा कॉलेज में पहले प्रोफेसर बने
और फिर बाद में वाइस प्रिंसीपल भी बने। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में
प्रवेश लिया, जहाँ पर वे तीन आधुनिक यूरोपीय भाषाओं के कुशल
ज्ञाता बन गए। 1892 में भारत लौटने पर उन्होंने बड़ौदा, वर्तमान वडोदरा और कोलकाता में विभिन्न प्रशासनिक व
प्राध्यापकीय पदों पर कार्य किया। बाद में उन्होंने अपनी देशज संस्कृति की ओर
ध्यान दिया और पुरातन संस्कृत सहित भारतीय
भाषाओं तथा योग का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया।
श्री अरविंद के अनुसार
वर्तमान मानसिकतायुक्त व्यक्ति, विकास का चरम लक्ष्य नहीं है। विकास का लक्ष्य मानसिकता का अतिक्रमण करके
मनुष्य को वहाँ ले जाना है, जो संस्कृति, जन्म-मृत्यु और काल से परे हो। अतिमानसिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए आंतरिक
तीव्र अभीप्सा, दैहिक, प्राणिक और
मानसिक अंगों का दिव्य के प्रति पूर्ण समर्पण और दिव्य द्वारा उनका रुपान्तरण
नितांत आवश्यक है। यही श्री अरविंद के सर्वांगयोग की पूर्व भूमिका है। मानसिक से
अतिमानसिक ज्ञान पर एकाएक नहीं पहुँचा जा सकता है। आध्यात्मिक विकास क्रमिक
अभिव्यक्ति के तर्क पर आधारित है। अत: आत्मरूपान्तरण के सोपानों को पार करके ही
अतिमानस अथवा दिव्यविज्ञान तक पहुँचा जा सकता है। ये सोपान या श्रेणियां इस प्रकार
हैं- सामान्य मानसिकता, उच्चतर मानस, प्रदीप्त
मानस, सम्बोधि, अधिमानस, अतिमानस।
तत्वमीमांसा
श्री अरविंद आध्यात्मिक
अनुभूतियों के स्रोत के रूप में वेदान्त की विभिन्न शाखाओं को मानते हैं। वे परमार्थ तत्व को आध्यात्मिक मानते
हैं। उनके अनुसार जड़ तत्व एक दूसरे का निषेध नहीं करते बल्कि वे एक दूसरे को
स्वीकार करते हैं। विश्व ज्ञान प्राप्त करने पर ही बुद्धि एक और अनेक को सम्यक्
परिप्रेक्ष्य में देख पाती है। इस ज्ञान की उपलब्धि होने पर दोनों, जड़ और चेतन परस्पर विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे के अभिन्न पहलू के रूप में
दिखते हैं। इसी प्रकार शांत निश्चल ब्रह्म के धनात्मक और ऋणात्मक पहलू हैं। ऐसी
स्थिति में शांत निश्चल और आत्मस्थित आनन्दमय ब्रह्म जगत् की सत्ता का निराकरण न
करके वह नाद या शब्द उत्पन्न करता है जो कि निरन्तर लोगों का सृजन करता है।
श्री अरविंद शंकर की भांति
यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्म परम सत्ता है। यह सभी वस्तुओं, गतियों और
सत्ताओं का सत्य है। यद्यपि वह सभी में अभिव्यक्त और समान रूप से विद्यमान रहता है,
तथापि मनुष्य अपनी सीमित और सापेक्ष बुद्धि के कारण इसके स्वरूप को
पूर्णत: ग्रहण नहीं कर पाता। अपने बौद्धिक प्रत्ययों का अतिक्रमण करने के पश्चात्
ही हम यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं कि ब्रह्म के लिए अवयवी और अवयव के
संप्रत्ययों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक वस्तु वह ममय और वह निरवयव या
अखंड ब्रह्म में अनुप्राणित है। यह ब्रह्म विशुद्ध सत् और निरपेक्ष है। ज्ञान के
बौद्धिक रूपों का अतिक्रमण कर सक्षम परम तादात्म्य के द्वारा ही उसका ज्ञान
प्राप्त हो सकता है। वह अनन्त अपरिभाष्य, परिमाण रहित और
अरूप होता हुआ भी विचारगम्य और जगत् प्रपंच का अधिष्ठान है। इस प्रकार की सत्ता को
मानने का अभिप्राय यह नहीं की गति शक्ति और सम्भूति असत् है। उन्होंने इस द्विविध
सत्य को स्वीकार किया कि स्थाणु रूप शिव और गतिशील काली दोनों ही सत्य हैं। शिव और
काली, ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं। सत्ता में शक्ति निरन्तर
विद्यमान रहती है। विश्राम और गति शक्ति का स्वभाव है। अत: महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह
नहीं है कि गति कैसे आरम्भ हुई, अपितु यह कि वह अपने को
विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त क्यों करती है। श्री अरविंद के अनुसार निश्चल और
निस्पंद ब्रह्म अपने आत्मानंद को अनन्त गति और वैचित्य को उन्मुक्त करता है। उसकी
शक्ति की सृजनात्मक क्रिया का यही उद्देश्य या ध्येय है। सच्चिदानंद ब्रह्म ने
अपने आप को रूप के अंतर्गत प्रक्षिप्त किया है।
श्री अरविंद की इन
मान्यताओं के फलस्वरूप जगत् माया नहीं है। वे शंकर के मायावाद को अस्वीकार करते
हैं और मानते हैं कि जगत् सर्वांगसत् है। जो जड़ है, वह अचेतन नहीं, किन्तु पूर्वचेतन है। वह चैतन्य की पूर्वावस्था है। विकास की प्रक्रिया
में चैतन्य में परिणत होना उसके लिए स्वाभाविक है। इस प्रकार श्री अरविंद ने केवल
मायावाद का ही नहीं अपितु जड़ और चेतन के द्वैतावाद और शुद्ध जड़वाद को भी
अस्वीकार किया और सिद्ध करने का प्रयास किया की जगत् स्वभावत: आध्यात्मिक है
ब्रह्म, जिसका स्वरूप सत्, चित् और
आनंद है सर्वत्र विद्यमान है। श्री अरविंद जगत् और जीव दोनों को ही सत् मानते हैं।
ये दोनों दो प्रमुख प्रकट तत्व हैं, जिनमें अज्ञेय अभिव्यक्त
होता है और जिनके द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त होता है। ये माया या मिथ्या नहीं है।
श्री अरविंद के अनुसार व्यक्ति का जीवन निरर्थक नहीं है। जगत् में मनुष्य की
भूमिका यह है कि वह जगत् में रहता हुआ चैतन्य के विकास का अवसर प्राप्त करता है।
मनुष्य पशु प्रवृत्ति और पशु क्रियाओं से जीवन आरम्भ करके अपने ध्येय, दिव्य जीवन और दिव्य अस्तित्व को प्राप्त करता है।
अब प्रश्न उठता है कि यदि
जो कुछ है उसमें सत्, चित्, शक्ति तथा आनन्द निरन्तर विद्यमान हैं तो
विश्व में दु:ख क्यों है अथवा अशुभ का आविर्भाव किस प्रकार होता है। श्री अरविंद
यह मानते हैं कि दु:ख तथा अशुभ विकास क्रम की एक स्थिति विशेष को प्रकट करते हैं।
मनुष्य के सुख-दुख उसके अहंकार के द्योतक हैं। विकास क्रम अप्रकट में रूप से
कार्यरत दिव्य चित् शक्ति जब मनुष्य का विकास कर देगी अथवा ईश्वर की अग्नि जब
पृथ्वी के कामनांकुरों को जला देगी तब वह सुख-दु:ख के मूल में अंतर्निहित अप्रकट
तत्व और उसके आनन्द रस का नए रूप में अनुभव करेगा। श्री अरविंद की इस प्रकार की
व्याख्या का कारण उनकी यह मान्यता है कि समस्त अनुभवों और रूपों के मूल में आनंद
विद्यमान है। सत् की चित् शक्ति विकास क्रम में अपना आनंद ही वस्तुत: खोजती रहती
है। सत्ता के आनन्द का वही अर्थ नहीं है, जिस अर्थ में कि हम
सुख अथवा हर्ष का साधारणतया प्रयोग करते हैं। सत्ता आनंद का सार्वभौमिक, असीम और स्वयंभू है। सुख हर्ष आदि की भांति आनंद विशेष कारणों पर आधारित
नहीं है। जब मनुष्य अपने अन्दर निहित इस अप्रकट आनंद को विकास क्रम में प्राप्त कर
लेगा तभी यह उपनिषद वाक्य सार्थक होगा कि आनंद से ही सभी जीवन उत्पन्न होते हैं, आनंद में ही रहते हैं और अन्तत: आनंद में ही विलीन होते हैं।
ज्ञानमीमांसा
अरविंद के अनुसार पूर्णज्ञान अतिमानसिक ज्ञान है। परन्तु यह ज्ञान अतीन्द्रिय,
अतिमानसिक और अतिबौद्धिक होते हुए भी ऐन्द्रिय, मानसिक और बौद्धिक ज्ञान का निराकरण नहीं करता है। वे मानते हैं कि परम
सत् का ज्ञान बौद्धिक उपकरणों द्वारा सम्भव नहीं है- नैषातर्केण मतिरापणीया। इस
संदर्भ में उनकी औपनिषदिक से सहमति है। श्री अरविंद सम्यक् ज्ञान को सम्बोधिमूलक
ज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान का आधार है ज्ञाता और ज्ञेय के मध्य सचेतन तादात्म्य। यह
सार्वभौमिक आत्म अस्तित्व की वह स्थिति है, जिसमें ज्ञाता और
ज्ञेय के ज्ञान के द्वारा तादात्म्य स्थापित हो जाता है। बुद्धि स्वत: सम्बोधिमूलक
ज्ञान में परिवर्तित हो जाती है। ज्ञान की इस उच्चतम सम्भाव्य अवस्था के अंतर्गत
ही मानस अतिमानस में अपनी परिपूर्णता को प्राप्त करता है।
श्री
अरविंद की ज्ञानमीमांसा में मानव (माइण्ड) अभिमानस (ओवर माइण्ड) और अतिमानस (सुपर माइण्ड) के
सम्प्रत्ययों का विशेष महत्त्व है। जहाँ अन्य दार्शनिक केवल मानस को मानते हैं,
वहाँ ये मानस को विकासशील मानते हुए उसके ऊपर अधिमानस और अतिमानस को
भी मानते हैं। यद्यपि अधिमानस और अतिमानस तत्व हैं तथापि उनको हम उनके ज्ञान या
सम्प्रत्यय से पृथक् नहीं कर सकते। वे तत्व और ज्ञान- व्यक्ति दोनों हैं। वास्तव
में मानस स्तर पर ज्ञाता और ज्ञेय का जो भेद है, वह इन
स्तरों पर नहीं है। इस कारण अधिमानस और अतिमानस को मानस के सादृश्य से नहीं जाना
जा सकता है। उनको जानने के लिए मानस की सीमाओं का अतिक्रमण कर ज्ञान की उच्चतर
भूमिका पर पहुँचना होगा। इसके लिए प्रतिभा ज्ञान, अपरोक्षानुभव,
रहस्यानुभूति आदि का ही आश्रय लिया जा सकता है। उपनिषदों के
महावाक्य तथा तत्वमसि आदि ऐसे ही ज्ञान पर आधारित हैं। अत: जब तक व्यक्ति मानसिक
स्तर से ऊपर उठकर अतिमानस स्तर पर नहीं पहुँच जाता, तब तक
सम्बोधि उसे सत्य का सम्यक् ज्ञान प्रदान करने में सक्षम नहीं हो सकती। पूर्ण
ज्ञान अतिमानस ज्ञान है और इसकी प्राप्ति मनुष्य के पूर्ण रूपातन्तरण के पश्चात्
ही होती है। इसके लिए योग साधना अपेक्षित है।
रूपान्तरण की तीन प्रमुख स्थितियां हैं- चैत्यीकरण, आध्यात्मीकरण और
अतिमानसीकरण। पूर्णरूपान्तर के लिए सभी अंगों की तत्परता एवं अतिमानसिक प्रकाश का
अवरोहण आवश्यक है। इसके लिए चैत्यीकरण आवश्यक है। हृदय के अंतर्गत विद्यमान दिव्य प्रकाश को श्री
अरविंद 'चैत्यपुरुष' की संज्ञा देते
हैं। आध्यात्मिक रूपान्तरण के लिए चैत्यपुरुष की अभिव्यक्ति आवश्यक है। चैत्यपुरुष
के विकास के फलस्वरूप उच्च चेतना हमारे अंदर प्रवेश करके हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व
का रूपान्तरण कर देगी। अतिमानस ब्रह्म का बृहत् आत्म विस्तार है। अतिमानस और मानस
में अन्तर होते हुए भी दोनों संबंधित हैं। मानस, अतिमानस से
ही आविर्भूत हुआ है। परन्तु बीज जिस अतिमानस को प्राप्त करता है, उसमें और सर्वोच्च अतिमानस में, जो सर्वज्ञाता और
सर्वशक्तिमान ईश्वर का यप है, विभेद है।
समाज दर्शन
समाज
दर्शन समाज के अध्ययन द्वारा उसमें अंतर्निहित दिव्यता को समझने और पहचानने का
प्रयास है। समाज दार्शनिकों ने प्राय: अपना ध्यान बाह्य तथ्यों, यथा नियमों, संस्थाओं, परम्पराओं, राजनीति
और आर्थिक परिस्थितियों आदि पर ही केन्द्रित किया है। उन्होंने उन प्रमुख
मनोवैज्ञानिक तथ्यों की अवहेलना की है, जो मनुष्य जैसे
भावनात्मक और विचारशील प्राणी के जीवन में नितांत महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्य और
समाज का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अत्यन्त जटिल है। लामप्रेक्त के अनुसार समाज के
विकास की मनोवैज्ञानिक स्थितियां ये हैं- प्रतीकात्मक, प्रारुपिक,
रूढ़िपरक तथा व्यक्तिपरक। समाज का विकास इन स्थितियों के माध्यम से
इस प्रकार के मनोवैज्ञानिक वृत का रूप धारण कर लेता है। इस वृत से होकर ही राष्ट्र
और सभ्यता को गुज़रना पड़ता है। परन्तु श्री अरविंद के अनुसार विकासक्रम की इस
प्रकार की निश्चित व्याख्या और वर्गीकरण वस्तुत: प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
प्रकृति की वक्र गति को सीधी रेखा की भांति नहीं समझाया जा सकता है। लामप्रेक्त का
सिद्धांत क्रमबद्ध स्थितियों के निहितार्थ एवं उनके अनिवार्य अनुक्रम के ध्येय के
विषय में कुछ भी सूचित नहीं करता। परन्तु श्री अरविंद के अनुसार यदि लामप्रेक्त
द्वारा विवेचित समाज के विकास की स्थितियों के निहितार्थों का अनुशीलन किया जाए,
तो वे ऐतिहासिक विकास के सूक्ष्मतम रहस्यों एवं तथ्यों की ओर संकेत
करती है। मानव समाज की आरम्भिक स्थितियों के अध्ययन और अनुशीलन उस मानसिकता को
प्रकट करते हैं जो उसकी परम्पराओं, विचारों और संस्थाओं में
अप्रकट रूप में विद्यमान रहती हैं।
प्रारुपिक
समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसने उन उदात्त सामाजिक आदर्शों को जन्म दिया
है, जो निरन्तर ही मनुष्य को प्रभावित और अनुप्राणित करते रहते हैं। प्रारुपिक
स्थिति के पश्चात् समाज की रूढ़िपरक स्थिति आती है। इसमें विचार और आदर्शों का
स्थान बाह्य रूप यथा वेश-भूषा, रहन-सहन आदि ग्रहण कर लेते
हैं। परन्तु रूढ़ि और सत्य का भेद असह्य हो जाने पर मनुष्य की बुद्धि मुखर हो जाती
है। ऐसी स्थिति में वह रूढ़ियों, प्रतीकों और प्रारूपों का
विरोध करती है। फलत: मनुष्य अपने खोये हुए नैतिक बोध और भावात्मक इच्छा को पुन:
खोजने का प्रयास करता है। यह समाज की व्यष्टिपरक स्थिति है। यह विद्रोह उन्नति,
स्वतंत्रता और विश्लेषणात्मक बुद्धि तथा भौतिक विज्ञानों के विकास
का युग है। आत्म-विकास, अस्तित्व के नियम और शक्ति को जानकर
उन्हें कार्यरूप में परिणत करना ही वस्तुत: व्यक्ति के जीवन का प्रमुख ध्येय है।
परन्तु पाश्चात्य मानवता के ऐतिहासिक युग में आत्मा को उसके उचित अर्थ में नहीं
ग्रहण किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जीवन तमाम पूर्वग्रहों से ग्रस्त होकर
युद्ध से आक्रान्त हो उठा। अत: हमारे लिये ये नितांत वांछनीय है कि हम वास्तविक
आत्मविषमतावाद को झूठे आत्मनिष्ठावाद से अलग करें और पहचानें। सच्चा आत्मनिष्ठावाद
मनुष्य की पृथक् सत्ता का अनुमोदन करने के साथ साथ दूसरे व्यक्तियों की पृथक्
सत्ता और स्वतंत्रता का अनुमोदन करता है। समाज जब अतिमानसिक ज्योति से प्रकाशित
होगा तभी मानवता उस दिव्यत्व को प्राप्त करेगी, जो उसकी अमर
धरोहर है। इसी प्राप्ति के लिए हमें योग को अपनाना होगा। योग आत्मा की खोज का
सचेतन माध्यम है।
सिद्धान्त
अरबिंदो
घोष के सार्वभौमिक मोक्ष के सिद्धान्त के अनुसार,
ब्रह्म के साथ एकाकार होने के दोमुखी रास्ते हैं- बोधत्व ऊपर से आता
है (प्रमेय), जबकि आध्यात्मिक मस्तिष्क यौगिक प्रकाश के
माध्यम से नीचे से ऊपर पहुँचने की कोशिश करता है (अप्रमेय)। जब ये दोनों शक्तियाँ
एक–दूसरे में मिलती हैं, तब संशय से
भरे व्यक्ति का सृजन होता है (संश्लेषण)। यह यौगिक प्रकाश, तर्क
व अंतर्बोध से परे अंततः व्यक्ति को वैयक्तिकता के बंधन से मुक्त करता है। इस
प्रकार, अरबिंदो ने न केवल व्यक्ति के लिए, बल्कि समूची मानवता के लिए मुक्ति की तार्किक पद्धति का सृजन किया।
साहित्यिक कृतियाँ
श्री
अरविंद के दर्शन को भी वेदान्त के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है।
स्वानुभूति के अतिरिक्त वेद, उपनिषद और पुराण वस्तुत: उनके दर्शन के स्रोत हैं। उनका दर्शन सर्वस्वीकृति का वर्णन है।
उनके अनुसार विश्वातीत सत्य की स्वीकृति में ही विश्व और व्यक्ति की सत्यता भी
अंतर्निहित है। वे दार्शनिक और विचारक होने के साथ-साथ योगी भी हैं। उनका दर्शन और
योग जीवन की दिव्यता पर बल देता है। अरबिंदो घोष की वृहद और जटिल साहित्यिक
कृतियों में दार्शनिक चिंतन, कविता, नाटक
और अन्य लेख सम्मिलित हैं। उनकी कृतियाँ हैं—
- एस्सेज़ ऑन गीता (1928)
- द लाइफ़ डिवाइन (1940)
- कलेक्टेड पोयम्स एण्ड प्लेज़ (1942)
- द सिंथेसिस ऑफ़ योगा (1948)
- द ह्यूमन साइकिल (1949)
- द आईडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी (1949)
- ए लीजेंड एण्ड ए सिंबल (1950)
- ऑन द वेदा (1956)
- द फ़ाउन्डेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर
राजनीतिक गतिविधियाँ
अरबिंदो
के लिए 1902 से 1910 के वर्ष हलचल भरे थे, क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था। बड़ौदा कॉलेज की नौकरी छोड़कर वह कोलकाता चले गए और कोलकाता के 'नेशनल कॉलेज' के प्रिंसीपल बने। इस समय तक उन्होंने 'सादा जीवन और
उच्च विचार' जीवन अपना लिया। उन पर रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के साहित्य का बहुत गहन प्रभाव हुआ। सन् 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल के रूप में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए ताकि हिन्दू और मुसलमानों में फूट पड़ सके। इस बंग-भंग के कारण बंगाल में जन जन में असंतोष फैल गया
रवीन्द्रनाथ ठाकुर और
अरबिंदो घोष ने इस जन आंदोलन का नेतृत्व किया। इस आंदोलन के विषय में लोकमान्य तिलक ने कहा - बंगाल पर किया गया अंग्रेज़ों का प्रहार सम्पूर्ण राष्ट्र पर प्रहार है। अरबिंदो घोष ने राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने तथा अंग्रेज़ों का विरोध
प्रदर्शित करने के लिए पत्र - पत्रिकाओं में विचारोत्तेजक और प्रभावशाली लेख लिखे।
उनके लेखों से जन जन में जागृति आ गयी। ब्रिटिश सरकार उनके इस क्रिया
कलापों से चिंतित हो गई। सरकार ने "अलीपुर बम कांड" के अंतर्गत उन्हें
जेल भेज दिया। जेल में उन्हें योग पर चिंतन करने का समय मिला। उन्होंने सन् 1907 में राष्ट्रीयता के साथ भारत को "भारत
माता" के रूप में वर्णित और प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बंगाल में
"क्रांतिकारी दल" का संगठन किया और उसका प्रचार और प्रसार करने को अनेक
शाखाएं खोली और वे स्वयं उसके प्रधान संचालक बने रहे। खुदीराम बोस और कनाईलाल दत्त, यह क्रांतिकारी उनके
संगठन के ही क्रांतिकारी थे। इन गतिविधियों के कारण अरबिंदो घोष अधिक दिनों तक
सरकार की नज़रों से छिपे नहीं रह पाये और उन्हें फिर से जेल जाना पड़ा। वह अपनी
राजनीतिक गतिविधियों और क्रान्तिकारी साहित्यिक प्रयासों के लिए 1908 में बन्दी बना लिए गए। 1906 से 1909 तक सिर्फ़ तीन वर्ष प्रत्यक्ष राजनीति में रहे। इसी में देश भर के लोगों
के प्रिय बन गए। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस लिखते है- जब मैं 1913 में कलकत्ता आया, अरबिंदो तब तक किंवदंती पुरुष हो
चुके थे। जिस आनंद तथा उत्साह के साथ लोग उनकी चर्चा करते शायद ही किसी की वैसे
करते। दो वर्ष के बाद ब्रिटिश भारत से भागकर
उन्होंने दक्षिण–पूर्वी भारत में फ़्राँसीसी उपनिवेश
पाण्डिचेरी में शरण ली, जहाँ उन्होंने अपना शेष जीवन पूरी
तरह से अपने दर्शन को विकसित करने में लगा दिया। उन्होंने वहाँ पर आध्यात्मिक
विकास के अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में एक आश्रम की स्थापना की, जिसकी ओर विश्व भर के छात्र आकर्षित हुए।
भारत के स्वतन्त्र होते ही
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का आकलन करते हुए श्री अरबिंदो ने
भविष्यवाणी की थी - भारत एक बार फिर एशिया का नेता होकर समस्त
भूमंडल को एकात्मा की मूलभूत शृंखला में आबद्ध करने का महान् कार्य सम्पन्न करेगा।
भारत की आध्यात्मिकता यूरोप और अमेरिका में प्रवेश कर रही
है। इसकी गति थमेगी नहीं, दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाएगी।
वर्तमान विपदाओं के बीच लोगों की आँखें आशा के साथ अधिकाधिक उसकी ओर मुड रही हैं
और लोग केवल शास्त्रों का ही नहीं, बल्कि उसकी आन्तरिक और
आध्यत्मिक साधना का अधिकाधिक आश्रय ग्रहण कर रहे हैं।
पांडिचेरी आने के बाद वे
सांसारिक कार्यों से अलग होकर आत्मा की खोज में लग गए। पांडिचेरी आने के बाद
अरबिंदो घोष अंत तक योगाभ्यास करते रहे और उन्हें परमात्मा से साक्षात्कार की
अनुभूति हुई। उनके आध्यात्मिक अनुभवों से असंख्य लोग प्रभावित हुए। उनका दृढ़
विश्वास था कि संसार के दु:ख का निवारण केवल आत्मा के विकास से ही हो सकता है
जिसकी प्राप्ति केवल योग द्वारा ही संभव है। वे मानते थे कि योग से ही नई चेतना आ
सकती है। अरबिंदो घोष की मृत्यु 5 दिसम्बर, 1950 में पाण्डिचेरी में हुई थी।