विश्व खाद्य दिवस प्रत्येक वर्ष '16 अक्टूबर' को मनाया जाता है। इस दिवस को मनाते हुए बत्तीस
वर्ष हो चुके हैं, लेकिन दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों
की संख्या में कमी नहीं आई है। यह संख्या आज भी तेज़ी से बढती जा रही है। विश्व
में आज भी कई लोग ऐसे हैं, जो भूखमरी से जूझ रहे हैं। इस
मामले में विकासशील या विकसित देशों में किसी तरह का कोई फ़र्क़ नहीं है। विश्व की
आबादी वर्ष 2050 तक नौ अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है
और इसमें क़रीब 80 फीसदी लोग विकासशील देशों में रहेंगे। ऐसे
में किस तरह खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, यह एक बड़ा
प्रश्न है। दुनिया में एक तरफ़ तो ऐसे लोग हैं, जिनके घर में
खाना खूब बर्बाद होता है और फेंक दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी
नहीं है, जिन्हें एक समय का भोजन भी नहीं मिल पाता।
खाद्यान्न की इसी समस्या को देखते हुए '16 अक्टूबर' को हर साल 'विश्व खाद्य दिवस' मनाने
की घोषणा की गई थी।
शुरुआत
विश्व समाज के संतुलित
विकास के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य का सर्वांगीण विकास हो। विश्व में लोगों को
संतुलित भोजन की इतनी मात्रा मिले कि वे कुपोषण के दायरे से बाहर निकल कर एक
स्वस्थ जीवन जी सकें। लोगों को संतुलित भोजन मिल सके, इसके लिए
आवश्यक है कि विश्व में खाद्यान्न का उत्पादन भी पर्याप्त मात्रा में हो। दिन पर
दिन विश्व की जनसंख्या में हो रही वृद्धि और खाद्य पदार्थों के सीमित भंडार को
देखते हुए खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की ज़रूरत महसूस की गई। इसे ध्यान में रखते
हुए संयुक्त राष्ट्र ने 16 अक्टूबर, 1945 को रोम में "खाद्य एवं कृषि संगठन" (एफएओ) की स्थापना की। संसार
में व्याप्त भुखमरी के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने एवं इसे खत्म करने के लिए 1980 से 16 अक्टूबर को 'विश्व खाद्य
दिवस' का आयोजन शुरू किया गया।[1]
उद्देश्य
'विश्व खाद्य दिवस' का मुख्य
उद्देश्य दुनिया से भुखमरी को खत्म करना है। आज भी विश्व में करोड़ों लोग भुखमरी
के शिकार हैं। वर्तमान समय में यह बहुत आवश्यक हो गया है कि विश्व से भुखमरी
मिटाने के लिए अत्याधुनिक तरीके से खेती की जाये। 'विश्व
खाद्य दिवस' का उद्देश्य खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए
विकासशील देशों के मध्य तकनीकी एवं वित्तीय सहयोग बढ़ाना और विकसित देशों से
आधुनिक तकनीकी मदद उपलब्ध कराना है। संयुक्त राष्ट्र की तमाम संस्थाओं द्वारा
विकासशील देशों में ग़रीबी एवं भूखमरी से निपटने के लिए तमाम प्रयास भी शुरू किए
गए हैं। ख़ासतौर पर अफ़्रीका महाद्वीप के
रवांडा, बुरुंडी, नाइजीरिया, सेनेगल, सोमालिया और इरीट्रिया आदि
देशों में जहाँ यह समस्या काफ़ी भयावह है।
तेज़ी से बढ़ती भुखमरी
दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या तेज़ी से बढती जा रही
है। 'संयुक्त राष्ट्र
खाद्य और कृषि संगठन' के अनुसार 2002 की
तुलना में खाद्यान्नों की कीमतों में 140 प्रतिशत की
भारी-भरकम वृद्धि हुई है। इसकी वजह से दिसम्बर 2007 से
40 देशो को खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ रहा है। हैती
और मैक्सिको में लाखों लोग इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आए। वहीं कई देशों में दंगे
और लूटपाट की घटनाएँ भी हुई। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इन देशों में खाद्य संकट के कारण सामाजिक और राजनितिक उथल-पुथल यानी 'युद्ध जैसी स्थिति' पैदा होने की चेतावनी दी है।
इंडोनेशिया, आइवरी कोस्ट, सेनेगल,
फिलिपींस, मोरोक्को जैसे देशों में स्थिति
ख़राब है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में भी दाल,
खाद्य तेल और चीनी की भारी कमी 2011 के
बाद पैदा हो जायेगी। अर्जुन सेन गुप्ता कमिटी के अनुसार देश में 77 प्रतिशत फीसदी लोग 20 रुपये रोजाना से कम में अपना
गुज़ारा करते हैं। सोचा जा सकता है की 15 रुपये किलो आटा और 18
रुपये किलो चावल भी इस तबके के लिए
काफ़ी महंगा है।
जहाँ एक तरफ़ स्थिति इतनी भयंकर है,
वहीँ कुछ तथ्य भुखमरी को मुँह चिड़ाते नज़र आते हैं। 'गार्जियन' में छपी विश्व बैंक की एक गोपनीय रिपोर्ट
के अनुसार अमीर देशों द्वारा जैव ईधन के इस्तेमाल से खाद्य के दामों में 75
फीसदी[3] की वृद्धि हुई है। मक्का से एथेनोल बनाने वाले अमेरिका ने पिछले तीन साल के
दौरान दुनिया के कुल मक्का उत्पादन का 75 प्रतिशत हिस्सा
हड़प कर लिया। कनाडा में कीमत कम होने की वजह से 1,50,000 सूअरों को मारने पर 5
करोड़ डॉलर खर्च किए गए। भारत की सरकारी व्यवस्था भी
पीछे नहीं है। 'भारतीय खाद्य निगम' ने
माना है की उसके गोदामों में हर साल 50 करोड़ रुपये का 10.40
लाख मीट्रिक तन अनाज ख़राब हो जाता है। यह अनाज हर साल सवा करोड़
लोगों की भूख मिटा सकता है! दुनिया में खाने-पीने की कमी नहीं, बल्कि उनके सही बँटवारे की कमी है।
भारत
में खाद्यान्न की समस्या
खाद्यान्न की कमी ने विश्व के सर्वोच्च संगठनों और सरकारों को भी
सोचने पर विवश कर दिया है। भारत में हाल ही में
"खाद्य सुरक्षा बिल" लाया गया है, लेकिन इस बिल का
पास होना या ना होना इसकी सफलता नहीं है। सब जानते हैं कि भारत में खाद्यान्न की
कमी कोई ख़ास मुद्दा नहीं है, बल्कि सार्वजनिक आपूर्ति
प्रणाली और खाद्यान्न भंडारण की समस्या असली समस्या है। भारत में लाखों टन अनाज
खुले में सड़ रहा है। यह सब ऐसे समय हो रहा है, जब करोड़ों
लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं। ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए
कोई कानून नहीं है। 1979 में 'खाद्यान्न बचाओ' कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके
तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए
टंकियाँ उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन इसके
बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है।
बढ़ती आबादी और भुखमरी
सवा अरब आबादी वाले भारत जैसे देश में, जहाँ सरकारी आकलनों के अनुसार 32 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। एफएओ के अनुसार,
भारत में 2009 में
23 करोड़ 10 लाख लोग चरम भूखमरी का सामना
कर रहे थे। आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। देश में खाद्यान्न का उत्पादन
बड़े स्तर पर होने के बावजूद बहुत बड़ी आबादी भुखमरी का संकट झेल रही है। तेजी से
आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत का विश्व भुखमरी सूचकांक में 88 देशों में 66वाँ स्थान है। भारत में राज्य स्तर पर
तो और भी व्यापक असमानता देखने को मिलती है। झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान आदि में भूख एवं
कुपोषण से पीड़ित लोगों की संख्या अन्य भागों से अधिक है। आबादी बढ़ने एवं
खाद्यान्न की स्थिर पैदावार के कारण देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत घटती जा
रही है। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन 5000 बच्चे कुपोषण के शिकार होते जा रहे हैं। जन वितरण प्रणाली के माध्यम से
ग़रीबों को मिलने वाला अनाज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है। कृषि क्षेत्र लगातार सरकारी
उपेक्षा का शिकार हो रहा है। आज देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की
हिस्सेदारी मात्र 14 फीसदी है और इस पर 55 फीसदी कामगारों की आजीविका चलती है। आज कृषि क्षेत्र कभी एक फीसदी,
दो फीसदी या फिर ऋणात्मक दर से वृद्धि कर रहा है। आजादी के 65
वर्ष बीत जाने के बाद भी आज साठ फीसदी खेती वर्षा के सहारे हो रही है।
खाद्यान्न की बर्बादी
हाल ही में हुए एक शोध से यह पता चला है कि भारत में विवाह आदि समारोहों में खाने
की जबरदस्त बर्बादी होती है। शोध में पाया गया कि सिर्फ बंगलूर शहर में हुई शादियों
में क़रीब 950 टन खाद्य पदार्थ बर्बाद हुआ। समस्या सिर्फ
खाना फेंकने की ही नहीं है, शादियों के भोजन में कैलौरी भी
ज़रूरत से ज्यादा होती है। भारत में जहाँ कुपोषण की बड़ी समस्या है तो फिर ज़रूरत
से ज्यादा कैलौरी वाला खाना खिलाना भी एक तरह की बर्बादी है। विश्व खाद्य उत्पादन
पर एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में मजबूत आर्थिक प्रगति के बावजूद भुखमरी की
समस्या से निपटने की रफ्तार बहुत धीमी है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है, जो
प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए
पर्याप्त है, लेकिन इसके बावजूद करोड़ों लोग ऐसे हैं,
जो दीर्घ कालिक भुखमरी और कुपोषण या अल्प पोषण की समस्या से जूझ रहे
हैं।
क्या सिर्फ कृषि उत्पाद बढ़ा कर और खाद्यान्न को बढ़ा कर हम भूख से
अपनी लड़ाई को सही दिशा दे सकते हैं। चाहे विश्व के किसी कोने में इस सवाल का जवाब
हाँ हो, लेकिन भारत में इस सवाल का जवाब ना
है और इस ना की वजह है, खाद्यान्नों को रखने के लिए जगह की कमी।
यूँ तो भारत विश्व में खाद्यान्न उत्पादन में चीन के बाद दूसरे स्थान पर पिछले दशकों से बना हुआ है, लेकिन
यह भी सच है कि यहाँ प्रतिवर्ष करोड़ों टन अनाज बर्बाद होता है। सरकारी आंकड़ों के
अनुसार लगभग 58,000 करोड़ रुपये का खाद्यान्न भंडारण आदि
तकनीकी के अभाव में नष्ट हो जाता है। भूखी जनसंख्या इन खाद्यान्नों पर ताक लगाए
बैठी रह जाती है। कुल उत्पादित खाद्य पदार्थो में केवल दो प्रतिशत ही संसाधित किया
जा रहा है। भारत में लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है। यह सब ऐसे समय हो रहा है,
जब करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में
से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं।
हल
भूख की वैश्विक समस्या
को तभी हल किया जा सकता है,
जब उत्पादन बढ़ाया जाए। साथ ही उससे जुड़े अन्य पहलुओं पर भी समान
रूप से नजर रखी जाए। खाद्यान्न सुरक्षा तभी संभव है, जब सभी
लोगों को हर समय, पर्याप्त, सुरक्षित
और पोषक तत्वों से युक्त खाद्यान्न मिले, जो उनकी आहार
संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सके। साथ ही कुपोषण का रिश्ता ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि से भी
है। इसलिए कई मोर्चों पर एक साथ मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा।