Thursday, June 7, 2018

सेहतदार बजट भी नहीं सुधार सका रिजल्ट का स्वास्थ्य



किसी भी चीज, व्यवस्था या व्यक्ति का आकलन उसकी परीक्षा की घड़ी ही करती है। जब तक कसौटी से सामना नहीं होता तब तक उस वस्तु या व्यक्ति की गहराई का पता नहीं चलता, इसलिए जीवन में परीक्षा सबसे अधिक मायने रखती है। दरअसल हम यहां दिल्ली-एनसीआर के सरकारी स्कूलों में शैक्षिक वसीयत की ओर देख रहे हैं। जहां सेहतदार बजट भी रिजल्ट का स्वास्थ्य नहीं सुधार सके। चकाचौंध वाली टाइल्स, स्टैंडर्ड ब्लैकबोर्ड, बढ़िया ढांचा और बैठने के लिए बढ़िया कुर्सी-मेज सब ठीक है, लेकिन नतीजों ने क्या दिया? बच्चों की शिक्षा को क्या मिला? शिक्षकों ने विदेश जाकर विशेष ज्ञान अर्जित किया, प्रशिक्षण लिया, लेकिन क्या छात्रों को उसका लाभ मिला? संभवत: नहीं, क्योंकि यदि मिला होता तो 10वीं के सरकारी स्कूलों के नतीजों की सेहत बेहतर होती। पहले की अपेक्षा परिणाम 23 फीसद तक नहीं गिर जाता।
आखिर सरकार ने 9वीं व 11वीं के छात्रों को क्यों आगे की कक्षा में प्रमोट करने की बजाय बाहर का रास्ता दिखाया? आखिर छात्रों को क्यों अवसर नहीं दिया गया? यदि स्कूल में व्यवस्था इतनी चुस्त और दुरुस्त हैं तो क्यों शिक्षकों की कमी से स्कूल जूझ रहे हैं? आखिर क्यों अभिभावक इन स्कूलों से बच्चों को निकाल रहे हैं? क्यों ढांचागत सुधार के बाद भी शिक्षा की इस वसीयत पर खराब परिणाम की थेकली (पैबंद) लग गई यही है 
आज का मुद्दा :
इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए दावे किए और उन्हें हकीकत में बदलने के लिए खूब बजट भी दिया। कुछ स्कूलों के हालात सुधरे। बनावट, साज-सज्जा आकर्षक हुई, स्कूल साफ-सुथरे हुए, लेकिन इसका लाभ क्या मिला? जब रिजल्ट आया तो ग्राफ नीचे ही गया। सरकारी स्कूलों की इस सुस्त स्थिति की असली तस्वीर सीबीएसई 10वीं के परीक्षा परिणामों ने दर्शा दी है।
इतने प्रयास भी रहे बेअसर
दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए एक तरफ तो शिक्षकों के लिए कई तरह के प्रशिक्षण कैंप आयोजित किए। इसके तहत कई शिक्षक प्रशिक्षण के लिए फिनलैंड से लेकर आइआइएम, अहमदाबाद तक गए। वहीं स्कूलों में नित नए प्रयोग करते हुए कमजोर छात्रों के लिए अतिरिक्त कक्षाएं लगाई गईं, लेकिन इसके बाद भी सीबीएसई की परीक्षा में 10वीं के परिणाम में सरकारी स्कूलों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। आखिर जब रिजल्ट नहीं सुधर रहा तो इससे तो यही स्पष्ट होता है कि या तो प्रयास ठीक से नहीं किया गया या योजना ही दुरुस्त नहीं था।
गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा पर नहीं सरकार का ध्यान
शिक्षकों की प्रशिक्षण कैंप योजनाएं महज शैक्षिक ट्रिप जैसी ही थीं। सरकार के प्रयासों और दावों को लेकर अखिल भारतीय अभिभावक संघ के अध्यक्ष अधिवक्ता अशोक अग्रवाल कहते हैं कि शिक्षा का आधारभूत ढांचा सुधारने भर से शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधारी जा सकती। इस पर दो दशक से लगातार काम हो ही रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इसमें पिछले तीन वर्षों में और तेजी आई है। दिल्ली सरकार सिर्फ दुष्प्रचार करते हुए परीक्षा परिणाम सुधारने की जुगत में लगी हुई है। इसके तहत बोर्ड परीक्षा में परिणाम सुधारने के उद्देश्य से 11वीं व 9वीं में हजारों छात्रों को फेल कर स्कूल से बाहर निकालने का काम दिल्ली सरकार ने किया है। इसके बाद भी सरकारी स्कूलों के परीक्षा परिणाम में सुधार नहीं आया है।
आखिर शिक्षक क्यों नहीं आ रहे
अशोक कहते हैं कि यदि सरकार शिक्षा नीति और व्यवस्था को सुधारना चाहती थी तो सबसे उन्हें स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति करनी चाहिए थी। यदि वहां शिक्षक नहीं आते हैं तो उन अव्यवस्थाओं पर गौर कर दुरुस्त करना चाहिए था। लेकिन, सबसे अचरज वाली स्थिति तो यह है कि आज भी दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 60 फीसद शिक्षकों के पद खाली हैं। आखिर सरकार ने ये पद क्यों नहीं भरे? जब शिक्षक नहीं होंगे तो रिजल्ट कैसे सुधरेगा?
दिल्ली सरकार इस मुद्दे पर विशुद्ध रूप से राजनीति कर रही है। वहीं दिल्ली के सरकारी स्कूलों के खराब परीक्षा परिणाम को लेकर राजकीय विद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष सीपी कहते हैं कि केंद्र सरकार की 8वीं तक बच्चों को फेल नहीं करने की नीति रही है। इससे बड़ी संख्या में कमजोर छात्र भी 10वीं तक पहुंच गए। साथ ही सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी भी है। वहीं स्कूलों में दिल्ली सरकार के नित नए प्रयोगों भी सफल नहीं हो रहे। सरकार ने जिस तरीके से छात्रों को उनकी बौद्धिकता के आधार पर वर्गीकृत किया है उसके कारण ही 10वीं के नतीजे खराब रहे हैं। 

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