प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनौपचारिक रूस
यात्रा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हो रहे बदलाव के लिए अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है।
भारत-रूस संबंध पहले की तरह नहीं रहे। आर्थिक लेन-देन बहुत छोटा हो गया है। 1991 तक रूस भारत का सबसे बड़ा
आर्थिक सहयोगी देश हुआ करता था। लेकिन आज यह संबंध महज रक्षा उपकरणों की खरीद तक
सिमट गया है। इतना ही नहीं, रूस ने 2017 में कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की वकालत की। भारत को हिदायत दी कि चीन की
‘‘वन रोड, वन बेल्ट’ योजना से जुड़ जाए। दूसरी तरफ भारत, अमेरिका की तरफ
बढ़ता गया। पुन: अमेरिका और रूस के बीच संघर्ष की स्थिति बन गई। मुख्यत: सीरिया
युद्ध और ब्रिटेन में रूसी जासूसी के संदर्भ में। इन तमाम परिवर्तनों के बीच में
भारत-रूस संबंध निरंतर झुलसते गए। दोनों की उम्मीदें भिन्न थीं, रास्ता भी अलग बनता गया। इस दूरी के लिए दोषी भारत या रूस को मानना गलत
होगा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सबके अपने स्वार्थ और योजनाएं होती हैं, जिन पर नीतियों का निर्माण किया जाता है। व्यापारिक आंकड़े निराशाजनक हैं।
भारत महज 1.6 बिलियन का निर्यात रूस के साथ करता है, वहीं भारत का निर्यात अमेरिका से 40 बिलियन डॉलर से
भी अधिक है। चूंकि विदेश नीति राष्ट्रीय हित पर चलती है, उसके
बावजूद विवेचना जरूरी है कि कैसे दो देश एक दूसरे से इतने दूर हो गए। बुनियादी
राजनीतिक और सामरिक सोच में भी एक दूसरे के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं।
भारत-रूस की दूरियों को समझने के लिए दोनों के सामरिक समीकरण की व्याख्या जरूरी
है। क्या कारण बना जिससे दूरियां बढ़ीं? भारत की रूस से
मुख्य अपेक्षाएं क्या थीं, जिसके कारण भारत आहत हुआ? इस बात की खोजबीन की जाए तो तीन महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं, जहां भारत रूस से उम्मीद कर रहा था कि रूस ऐसा नहीं करेगा। करेगा भी तो
भारत को विास में लेकर करेगा। पहला, चीन के साथ रूस के विशेष
प्रेम और समर्पण। जग जाहिर है कि चीन भारत को हर तरफ से घेरने कि कोशिश में जुटा
है। रूस यह सब जानते हुए भी चीन के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। यह अलग बात है कि
रूस आर्थिक और सामरिक रूप से चीन का कनिष्ठ सहयोगी बन चुका है। चीन का आर्थिक
ढांचा रूस से दस गुना बड़ा है। भारत की तकलीफ है कि चीन के अमर्यादित कायरे की
सराहना रूस करने लगा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि रूस ने 1962 युद्ध के दौरान कहा था कि भारत बहुत ही अच्छा दोस्त है, लेकिन चीन तो भाई है। 1968 में जब भारत और रूस की
दोस्ती काफी मजबूत हो चुकी थी, तब भी रूस ने पाकिस्तान को
सैनिक अस्त्र दिए थे। दूसरा, रूस ने अफगानिस्तान में अपनी
सोच को बदल दिया है, जो बहुत हद तक भारत विरोधी है। रूस ने
तालिबान से बात करने की वकालत की है। उसकी नजर में आईएस से बेहतर तालिबान की
शक्तियां हैं। पिछले वर्ष रूस ने चीन और पाकिस्तान को लेकर अफगानिस्तान समस्या को
सुलझाने की कोशिश की थी, जिसमें भारत को शामिल नहीं किया गया
था। भारत 2002 से अफगानिस्तान में शांति बहाली की कोशिश में
जुटा है। 1978 में रूस द्वारा जब अफगानिस्तान में सैनिक
हस्तक्षेप किया गया था, और रूसी समर्थक नजीबुल्लाह को गद्दी
पर बैठाया गया था, तब भी भारत ने न चाहते हुए भी रूस का
समर्थन किया था। तीसरा कारण रूस और पाकिस्तान के बीच बन रहीं नजदीकियां भी हैं।
रूस का दर्द भी लाजिम है। रूस भी भारत की नीतियों से दुखी है। इसके भी कई आयाम
हैं। पहला, पिछले दिनों भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर
चतर्भुज चौकड़ी बना ली जिसका विस्तार पूर्व एशिया से पैसिफिक एशिया तक होगा। रूस
का मानना है कि इस तरह की टोली बनाकर भारत ने रूस की सामरिक व्यवस्था को चुनौती देने
का काम किया है। दूसरा, भारत जिस तरह से अमेरिका के साथ जुड़
गया है, और आर्थिक और सैनिक अनुबंधों पर अमेरिकी इशारों पर
चलने के लिए राजी हुआ है, वह रास्ता रूस के विपरीत दिशा की
ओर जाता है। सीरिया और अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी भारत का झुकाव अमेरिका की
तरफ ज्यादा था।अब अगर दूरियों को पाटने की बात करें तो कई समानांतर रास्ते दोनों
देशों के बीच नजर आते हैं। लाख टके की है यह बात कि रूस आर्थिक रूप से कमजोर होने
के बावजूद सैनिक और सामरिक रूप से मजबूत है। अमेरिका को कोई देश चुनौती दे सकता है,
तो रूस ही है। सीरिया या अन्य मुद्दों पर रूस की तल्खी देखी जा सकती
है। रूस के प्रभाव में मध्य एशिया और मध्य पूर्व एशिया भी हैं। इन क्षेत्रों में
रूस को नजरअंदाज कर कोई देश सफल नहीं हो सकता। वह भी पुतिन के कार्यकाल में जिसका
मुख्य प्रेरक तत्व रूस को खोई हुई अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलाना है। भारत,
रूस के साथ समन्वय की बात करे तो कई ऐसे पड़ाव हैं, जहां दोनों के हित समान हैं। पहला, नई विश्व
व्यवस्था के निर्माण में बहुध्रुर्वीय व्यवस्था की नींव रखना। भारत वकालत करता रहा
है कि न अमेरिका और न ही चीन के कहने पर दुनिया चलेगी। दो से अधिक देशों के बूते
नियम बनेगा। चीन रूस को भी दरकिनार करने की जुगत में है। मध्य एशिया में दादागिरी
को अंजाम देने के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग रूस को पीछे धकेलना चाहते हैं।
दूसरी तरफ जापान के साथ रूस का संबंध निरतंर मजबूत बन रहा है। इस योजना में भी भारत
रूस के साथ मिलकर काम कर सकता है। इसलिए मोदी की अनौपचारिक रूस यात्रा कई भ्रम दूर
करने में सहायक होगी। दोनों के संबंध दशकों पुराने हैं। कई बार रूस ने भारत को
मुसीबत से उबारा है। लेकिन इस बात की शिनाख्त होनी चाहिए कि महज इतिहास को जकड़ कर
संबंधों की दुहाई नहीं दी जा सकती। आज भारत निर्णायक देश के रूप में दुनिया के
सामने है। मंजिल तक पहुंचने में कई-कई मोड़ आते हैं, हर मोड़
एक चुनौती है। इसलिए भारत अमेरिका संबंध या चीन रूस संबंध जैसे बदलाव एक दूसरे के
बीच संदेह पैदा न होने दें। मोदी ने कहा भी कि रूस और पुतिन हमारी विदेश नीति के
अहम हिस्सा हैं। 2001 में हमारी विदेश यात्रा की शुरुआत भी
यहीं से हुई थी जब मैं वाजपेयी जी के साथ रूस आया था। इसके पहले मोदी कह चुके हैं
कि भारत-रूस संबंध के संदर्भ में भारत का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। जरूरत केवल
एक-दूसरे की मुसीबतों को समझने की है।