अपनी भाषाओं के बिना शिक्षा और न्याय ही अधूरा नहीं, बल्कि लोकतंत्र भी
गूंगा और अधूरा है।
पिछले महीने की 21 फरवरी को
दुनिया भर में मनाए गए मातृभाषा दिवस का रंग अभी पूरी तरह उतरा भी नहीं है कि कुछ
ऐसे चौंकाने वाले अनुभव सामने आए हैं जो बेचैन भी कर रहे हैं। वैसे ऐसा हो तो वर्षों
से हो रहा है,
लेकिन पिछले दो दशकों में
अंग्रेजीदां ज्ञान आयोग और भूमंडलीकरण की आड़ में मातृभाषा की अनदेखी की प्रवृत्ति
और ज्यादा बढ़ी है। स्थिति यह है कि संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी जैसी संस्थाएं
भी हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में उत्तर देने वालों को अपेक्षाकृत कम ही अंक
देती हैं। हरियाणा के एक डॉक्टर ने निजी अनुभव से बताया कि उन्होंने सभी प्रश्नों
के सही और संतोषजनक उत्तर दिए। बस उनसे यही गलती हो गई कि साक्षात्कार के वक्त
आतंकवाद जैसे एकाध मुद्दे पर अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए अपनी मातृभाषा हिंदी
का सहारा ले लिया।
हालांकि इसके लिए उन्होंने
बोर्ड के सदस्यों की सहमति ली थी। उन्हें मन में यह विश्वास भी रहा कि प्रश्न
पूछने वाले को हिंदी आती है और इसीलिए उन्होंने इजाजत भी दी, लेकिन इसका परिणाम उलटा निकला। यानी उन्हें कम नंबर मिले
जबकि उसके अगले वर्ष कुछ प्रश्नों का जवाब न देने के बावजूद साक्षात्कार में
अंग्रेजी बोलने के कारण कहीं बेहतर अंक प्राप्त हुए। ऐसे दर्जनों व्यक्तिगत उदाहरण, अनुभव और दूसरे माध्यमों से जनता के बीच पहुंचते हैं तो
अनजाने ही अपनी भाषा की किताबें एक तरफ कूड़ेदान में सरका दी जाती हैं और उद्देश्य
केवल अंग्रेजी बोलने के लिए पूरी ताकत लगाने का रह जाता है।
यही कारण है कि ऐसे अधिकांश अभ्यर्थी जिन्होंने अपनी
अभिरुचियों के कॉलम में किताबें पढ़ना-लिखना दिया होता है वे साक्षात्कार के वक्त
सिर्फ अंग्रेजी की किताबों का ही नाम लेते हैं। कुछ वर्ष पहले तक तो साक्षात्कार
के दौरान आरके नारायण, मुल्कराज
आनंद जैसे अंग्रेजी भाषा के भारतीय लेखकों का नाम इन अभ्यर्थियों की जुबान पर आ
जाता था, लेकिन अब तो खालिस विदेशी अंग्रेजी
लेखक ही उनकी पसंद हैं। इस बारे में एक अभ्यर्थी ने बताया कि सबसे जरूरी है
अंग्रेजी ठीक करना और दूसरी बात कि यदि विदेश जाएं तो वहां के तौर तरीके, खाना, शहर, गलियों के नाम भी संज्ञान में आ जाते हैं और इस देश में भी
तो अंग्रेजी की ही इज्जत है। आप इस सच से इन्कार नहीं कर सकते। साक्षात्कार बोर्ड
के एक सदस्य हिंदी प्रांत के होने के बावजूद हिंदी में साक्षात्कार देने वालों की ऐसी बखिया उधेड़ते थे कि
अभ्यर्थी दंग रह जाते थे। ऐसे अभ्यर्थी के मुंह से रोजमर्रा का एक भी अंग्रेजी
शब्द जैसे कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, कम्युनिकेशन निकला नहीं कि सब कुछ भूलकर उसकी गर्दन पर सवार
कि ‘इन सबकी हिंदी क्या होगी?’ भला ऐसे अभ्यर्थी दोबारा हिंदी माध्यम से परीक्षा या
साक्षात्कार देने की जुर्रत क्यों करेंगे?
1976 में प्रसिद्ध शिक्षाविद और वैज्ञानिक
दौलत सिंह कोठारी की समिति ने जब सिविल सेवा परीक्षा में सभी भारतीय भाषाओं में
उत्तर लिखने की छूट की अनुशंसा की थी तो उन्होंने विस्तार से तर्क दिया था कि क्या
सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले ही मेधावी होते हैं? जब देश के अधिकांश नौजवान अपनी भाषाओं में पढ़ते हैं तो
उन्हें भी अपनी प्रतिभा को दिखाने का उतना ही हक है जितना अंग्रेजी वालों को।
कोठारी समिति की इतनी ही महत्वपूर्ण सिफारिश यह थी कि इन अखिल भारतीय सेवाओं में
आने वाले को न केवल भारतीय भाषाओं का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, बल्कि भारतीय साहित्य का भी, क्योंकि साहित्य से समाज की समझ पैदा होती है और एक अच्छे प्रशासक
के लिए समाज की समझ सबसे जरूरी बात है। बहरहाल बीते 40 वर्षों में ये सभी सिफारिशें हवा हो गईं। केंद्रीय सेवा आयोग
की ईमानदारी,
पारदर्शिता और दक्षता के बावजूद
भाषा जैसे संवेदनशील मसलों पर परीक्षा परिणाम इसके ठीक उलट गवाही देते हैं।
ऐसे परिदृश्य में भारतीय भाषाएं, बोलियां शताब्दियों में अर्जित शब्द लगातार गायब होते जाएं
तो क्या आश्चर्य?
हाल में गृह मंत्रालय ने लगभग 50 भारतीय भाषाओं के विलुप्त होने की आशंका व्यक्त की है। यही
रफ्तार रही तो बड़ी भाषाओं के बुरे दिन भी दूर नहीं और यह देश जल्द ही उस दौर में
पहुंच जाएगा जब भारतीय भाषाओं की किताबें एक अदद अलमारी में कैद होकर रह जाएं। क्या
पूरा दोष नौकरशाहों, चयन
बोर्डों का ही है? नौकरशाह
तो वही करते हैं जो सत्ता उन्हें इशारा करती है। हाल में दिल्ली के सरकारी
प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम शुरू करने की घोषणा की गई है। कहीं यह उन
गरीब बच्चों को जिनके मां- बाप सिर्फ हिंदी या अपनी बोलियां जानते है, फेल होने का डर दिखाकर ट्यूशन के फेर में फंसाने का चक्कर तो
नहीं है? उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के
प्रत्येक जिले में अंग्रेजी माध्यम के पांच मॉडल स्कूल शुरू करने की घोषणा की है।
कितना विचित्र है? क्या
मॉडल स्कूर्ल ंहदी के नहीं बनाए जा सकते? उत्तराखंड
सहित देश के कई राज्य इसी राह पर हैं। यदि इसे समय रहते नहीं रोका गया तो हमारी
शिक्षा और संस्कृति का बंटाधार होना तय है और यह सब तब और अधिक सालता है जब उस
सरकार के द्वारा किया जा रहा हो जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षक होने का
दावा करती हो।
दुनिया भर में
देश आगे बढ़े हैं तो अपनी शिक्षा व्यवस्था के बूते और उसमें सबसे बड़ी भूमिका उनकी
मातृ भाषाओं यानी उनकी अपनी भाषाओं की होती है। मोदी सरकार ने जनहित में कई बड़े
फैसले लिए हैं, लेकिन शिक्षा, नौकरी के मोर्चे पर अपनी भाषाओं का इस्तेमाल राष्ट्रहित में
बहुत दूरगामी फैसला होगा। अपनी भाषाओं के बिना शिक्षा और न्याय ही अधूरा नहीं, लोकतंत्र भी
गूंगा और अधूरा है। यदि सरकार भाषा और संस्कृति को लेकर वास्तव में गंभीर है तो
उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक की प्रतिनिधि सभा द्वारा पारित हालिया प्रस्ताव पर अमल
में लाने के बारे में सोचना चाहिए कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा या अन्य किसी
भारतीय भाषा में हो। उक्त प्रस्ताव में यह मांग भी की गई है कि तकनीकी शिक्षण
पाठय-सामग्री के साथ-साथ परीक्षा का विकल्प भी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो और
भारतीय भाषाओं, बोलियों और लिपियों के संरक्षण के प्रयास हों। गौर करने की बात
है कि प्रस्ताव में सिर्फ हिंदी की बात न करके सभी भारतीय भाषाओं के हितों की बात
की गई है।
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