गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का
सरदार था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने
इस्लाम धर्म को बढावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुला ने किसानों को
संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी।
गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर
मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल
शासन के खातमें की शुरुआत की।
मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह
मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी
अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक
दलपत सिंह [सम्पादक: डॉ॰ दशरथ
शर्मा ] ने स्पष्ट कहा है, राजपूत
नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके। असहिष्णु, धार्मिक, नीति के
विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और
जमींदारों को प्राप्त हुआ। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें
अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर
नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया
और विद्रोह का झंडा फहराया तत्पश्चात
वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया
इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना
पड़ेगा की राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी
मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था। गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन
तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र
थी। जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को
स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा।
आज मथुरा, वृन्दावन के मन्दिर और भारतीय संस्कृति की रक्षा का तथा
तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की
दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गोकुलसिंह' को है।
इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी
कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान, गुरू
तेगबहादुर से 6 वर्ष पूर्व हुआ था। दिसम्बर 1675 में गुरू तेगबहादुर का वध कराया
गया था - दिल्ली की मुग़ल कोतवाली के चबूतरे पर जहाँ आज गुरुद्वारा शीशगंज शान से
मस्तक उठाये खड़ा है। गुरू के द्वारा शीश देने के कारण ही वह गुरुद्वारा शीशगंज
कहलाता है। दूसरी ओर, जब हम उस
महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो गुरू तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व शहीद हुआ था
और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का
मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथ, एक-एक
जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था, तो हमें
कुछ नजर नहीं आता। गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य
ही किसी ने छीना लिया था, न कोई
पेंशन बंद करदी थी, बल्कि
उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी। शर्म आती है कि हम
ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके। कितना अहसान फ़रामोश कितना
कृतघ्न्न है हमारा हिंदू समाज ! शाही
इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। गुरू तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का
उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है। मेवाड़ के राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं
गया था परन्तु ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने उसे स्वयं जाना पड़ा था। फ़िर भी
उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और चुने हुए सेनापतियों की कमान में बारम्बार
मुग़ल सेनायें
जाटों के दमन और उत्पीड़न के लिए भेजी जाती रहीं और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी
वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना
करती रहीं। दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई
उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। हमें उनकी
जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है। उसी के शब्दों में एक
अनोखा चित्र देखिये, जो अन्य
किसी देश या जाति के इतिहास में दुर्लभ है:
"उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और
इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, उसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए
मजबूर होना पड़ा। विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन
क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे। अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में
छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते। स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने
पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं। जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और
स्वयं बंदूक को भरने लगती थी। इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में
बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे। जब वे बिल्कुल ही लाचार हो जाते, तो अपनी पत्नियों और पुत्रियों को
गरदनें काटने के बाद भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और
अपनी निश्शंक वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे"।
औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति
सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं -
"मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर
सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं। दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित
होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान
आकर्षित होता रहा है। वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी
नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। सन 1678
के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान
वसूली करने निकला. अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह
के पास एक नई छावनी स्थापित की थी। सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था। गोकुलसिंह
के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया. मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से
लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए. बस संघर्ष शुरू हो गया।
तभी औरंगजेब का नया फरमान 9 अप्रैल 1669
आया - "काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं". फलत: ब्रज क्षेत्र
के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया। कुषाण और गुप्त कालीन
निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग
विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी। सम्पूर्ण ब्रजमंडल में
मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे। और दिखाई देते थे धुंए के
बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार.
अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त
मई का महिना आ गया और आ गया अत्याचारी
फौजदार का अंत भी. अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास
में ही थे। अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे। मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी. फौजदार
गोली प्रहार से मारा गया। बचे खुचे मुग़ल भाग गए। गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद
की छावनी को लूटकर आग लगा दी। इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और
दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं। दिखाई भी क्यों नहीं देतीं. साम्राज्य के
वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था। मथुरा ही
नही, आगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और
किले में ढेर हो गए थे। निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ। उन्हें
दिखाई दिया कि अपराजय मुग़ल-शक्ति के विष-दंत तोड़े जा सकते हैं। उन्हें दिखाई
दिया अपनी भावी आशाओं का रखवाला-एक पुनर्स्थापक गोकुलसिंह.
शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा
इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध
होते रहे। मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध
हुए. क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन
का आतंक बैठ गया। अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल
निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के
पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि-
- बादशाह उनको क्षमादान देने के लिए तैयार हैं।
- वे लूटा हुआ सभी सामन लौटा दें।
- वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे।
गोकुलसिंह ने पूछा मेरा अपराध क्या है, जो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा ? तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया है, बहुत हानि की है। दूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा
इस संसार में कौन करता है?
इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ
था। गोकुलसिंह ने कोई गुंजाइस ही नहीं छोड़ी थी। औरंगजेब का विचार था कि गोकुलसिंह
को भी 'राजा' या 'ठाकुर' का खिताब
देकर रिझा लिया जायेगा और मुग़लों का एक और पालतू बढ़ जायेगा. हिंदुस्तान को 'दारुल इस्लाम' बनाने की
उसकी सुविचारित योजना निर्विघ्न आगे बढती रहेगी. मगर गोकुलसिंह के आगे उसकी कूट
नीति बुरी तरह मात खा गयी। अत: औरंगजेब स्वयं एक बड़ी सेना, तोपों और तोपचियों के साथ, अपने इस
अभूतपूर्व प्रतिद्वंदी से निपटने चल पड़ा. परम्पराएं और मर्यादा टूटने का यह एक
ऐसा ज्वलंत और प्रेरक उदाहरण है, जिधर
इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया है।
औरंगजेब 28 नवम्बर 1669 को मथुरा पहुँचा
यूरोपीय यात्री मनूची के वृत्तांत के
अनुसार पहले अकबर को जाना पड़ा था और अब औरंगजेब को, जिसका
साम्राज्य न सिर्फ़ मुग़लों में ही बल्कि उस समय तक सभी हिंदू-मुस्लिम शासकों में
सबसे बड़ा था। यह थी वीरवर गोकुलसिंह की महानता. दिल्ली से चलकर औरंगजेब 28 नवम्बर 1669 को
मथुरा जा पहुँचा। गोकुलसिंह के अनेक सैनिक और सेनापति जो वेतनभोगी नहीं थे, क्रान्ति भावना से अनुप्राणित लोग थे, रबी की बुवाई के सिलसिले में, पड़ौस के
आगरा जनपद में चले गए थे।
औरंगजेब ने अपनी छावनी मथुरा में बनाई
और वहां से सम्पूर्ण युद्ध संचालन करने लगा। गोकुलसिंह को चारों ओर से घेरा जा रहा
था। उसने एक और सेनापति हसन अली खाँ को एक मजबूत और सुसज्जित सेना के साथ मुरसान की ओर से
भेजा. हसन अली खाँ ने 4 दिसम्बर 1669 की प्रात: काल के समय अचानक छापा मारकर, जाटों की तीन गढ़ियाँ - रेवाड़ा, चंद्ररख और सरखरू को घेरलिया। शाही तोपों और बंदूकों की मार
के आगे ये छोटी गढ़ियाँ ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो सकीं और बड़ी जल्दी टूट गयी।
हसन अली खाँ की सफलताओं से खुश होकर
औरंगजेब ने शफ शिकन खान के स्थान पर उसे मथुरा का फौजदार बना दिया। उसकी सहायता के
लिए आगरा परगने से अमानुल्ला खान, मुरादाबाद
का फौजदार नामदार खान, आगरा शहर
का फौजदार होशयार खाँ अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे . यह विशाल सेना चारों ओर
से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हूए आगे बढ़ने लगी। गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह
अभियान, उन आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो
बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे। इस वीर के पास न तो
बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली
की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश. इन अलाभकारी
स्थितियों के बावजूद, उन्होंने
जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक
शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब
अभूतपूर्व है।
तिलपत युद्ध दिसंबर 1669
दिसंबर 1669 के अन्तिम सप्ताह में
तिलपत से 20 मील दूर, गोकुलसिंह
ने शाही सेनाओं का सामना किया। जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर
क्रोध से आक्रमण किया। सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा। कोई निर्णय नहीं हो सका।
दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया। जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे। मुग़ल
सेना, तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते
हूए भी गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त न कर सके। भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए
हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने
शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो। हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही
घंटों में हो गया था। पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला.
तीसरे दिन, फ़िर भयंकर संग्राम हुआ। इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना
है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थे, परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल
सेना आ गयी। इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया। बादशाह आलमगीर
की इज्जत बच गयी। जाटों के पैर तो उखड़ गए फ़िर भी अपने घरों को नहीं भागे. उनका
गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी। तीसरे दिन से
यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहा। भारी तोपों के बीच तिलपत की
गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया।
गोकुलसिंह का वध
तिलपत के पतन के बाद गोकुलसिंह और
उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया। उनके सात हजार साथी भी बंदी हुए.
इन सबको आगरा लाया गया। औरंगजेब पहले ही आ चुका था और लाल किले के दीवाने आम में
आश्वस्त होकर, विराजमान था। सभी बंदियों को
उसके सामने पेश किया गया। औरंगजेब ने कहा -
"जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलो. बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?
अधिसंख्य जाटों ने कहा - "बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा
है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना."
अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह को
आगरा कोतवाली पर लाया गया-उसी तरह बंधे हाथ, गले से
पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर. गोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा
चला, तो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा. कुल्हाड़ी से छिटकी हुई
उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी। परन्तु उस वीर का मुख ही नहीं शरीर
भी निष्कंप था। उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों को
देखने लगा कि दूसरा वार करें। परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे। उन्हें ऐसे ही निर्देश
थे। दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे. उनमें हिंदू और मुसलमान सभी
थे। अनेकों ने आँखें बंद करली. अनेक रोते हुए भाग निकले। कोतवाली के चारों ओर मानो
प्रलय हो रही थी। एक को दूसरे का होश नहीं था। वातावरण में एक ही ध्वनि थी-
"हे राम!...हे रहीम !! इधर आगरा
में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर
मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर !
हिन्दी साहित्य में गोकुल सिंह
समरवीर गोकुलाः किसान क्रान्ति
का काव्य
राजस्थान के सम्मानित एवं पुरष्कृत कविवर श्री बलवीर सिंह ‘करुण’ अपने गीतिकाव्य और प्रबन्धकाव्य की प्रगतिशील भारतीय जीवन
दृष्टि और प्रभावपूर्ण शब्दशिल्प के कारण अब अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हैं।
राष्ट्रकवि दिनकर की काव्यचेतना से अनुप्राणित करुण जी नालन्दा की विचार सभा में
दिनकर जी के अक्षरपुत्र की उपाधि से अलंकृत हो चुके हैं। इस ओजस्वी और मनस्वी कवि ने ‘समरवीर गोकुला’ नामक
प्रबन्ध काव्य की रचना कर सत्रहवीं सदी के एक उपेक्षित अध्याय को जीवंत कर दिया है।
वर्ण-जाति और स्वर्ग-अपवर्ग की चिंता करने वाला यह देश जब तब अपने को भूल जाता है।
कोढ में खाज की तरह वामपंथी इतिहासकार और साहित्यकार स्वातन्त्रय संघर्ष के इतिहास
के पृष्ठों को हटा देता है। परन्तु प्रगतिशील राष्ट्रीय काव्य धारा ने नयी ऊष्मा
एवं नयी ऊर्जा से स्फूर्त होकर अपनी लेखनी थाम ली है। परिणाम है-‘समरवीर गोकुला’। स्मरण
रहे कि रीतिकाल के श्रंगारिक वातावरण में भी सर्व श्री गुरु गोविन्द सिंह, लालकवि, भूषण, सूदन और चन्द्रशेखर ने वीर काव्य की रचना की थी। उनकी
प्रेरणा भूमि राष्ट्रीय भावना ही थी। आधुनिक युग में बलवीर सिंह ‘करुण’ ने ‘विजय केतु’ और ‘मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँ’ के बाद
इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में ‘समर वीर
गोकुला’ की भव्य
प्रस्तुति की है। यह ‘विजय
केतु’ की काव्यकला तथा प्रगतिशील इतिहास दृष्टि के उत्कर्ष का
प्रमाण है। ‘समरवीर गोकुला सत्रहवीं सदी की किसान क्रान्ति का राष्ट्रीय प्रबन्ध
काव्य है।
कवि ने भूमिका में लिखा है- ‘महाराणा प्रताप, महाराणा
राज सिंह, छत्रपति शिवाजी, हसन खाँ
मेवाती, गुरु गोविन्द सिंह, महावीर गोकुला तथा भरतपुर के जाट शासकों
के अलावा ऐसे और अधिक नाम नहीं गिनाये जा सकते जिन्होंने मुगल सत्ता को खुलकर
ललकारा हो। वीर
गोकुला का नाम इसलिए प्रमुखता से लिया जाए कि दिल्ली की नाक
के नीचे उन्होंने हुँकार भरी थी और 20 हजार
कृषक सैनिकों की फौज खडी कर दी थी जो अवैतनिक, अप्रशिक्षित
और घरेलू अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। यह बात विस्तार के लिए न भूलकर राष्ट्र
की रक्षा हेतु प्राणार्पण करने आये थे। ’
श्यामनारायण पाण्डेय रचित ‘हल्दीघाटी’, पं॰
मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ प्रणीत ‘आर्यावर्त्त’, प्रभातकृत ‘राष्ट्रपुरुष’ और श्रीकृष्ण ‘सरल’ के प्रबन्ध काव्य की चर्चा बन्द है। निराला रचित ‘तुलसीदास’ और ‘शिवाजी का पत्र’-दोनों
रचनाएँ उपेक्षित हैं। दिनकर और नेपाली के काव्य विस्मृत किये जा रहे हैं। तथापि
काव्य में प्रगतिशील भारतीय जीवन दृष्टि की रचनाएँ नयी चेतना के साथ आने लगती हैं।
प्रमाण है-‘समरवीर गोकुल ’ की
प्रशंसित प्रस्तुति। इस काव्य की महत्प्रेरणा ऐसी रही कि यह मात्र चालीस दिनों में
लिखा गया। इसका महदुद्देश्य ऐसा कि भारतीय इतिहास का एक संघर्षशील अध्याय काव्यरूप
धारण कर काव्यजगत् में ध्यान आकृष्ट करने लगा। मध्यकालीन शौर्य एवं शहादत
राष्ट्रीय संचेतना से संजीवित होकर प्रबन्धकाव्य में गूँजने लगी। उपेशित जाट किसान
का तेजोमय समर्पित व्यक्तित्व अपने तेज से दमक उठा। इतिहास में दमित नरनाहर गोकुल
का चरित्र छन्दों में सबके समक्ष आ गया।
आठ सर्गों का यह प्रबन्धकाव्य
इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक का महत्त्वपूर्ण अवदान है। कवि ने मथुरा के किसान
कुल में जनमे गोकुल के संघर्ष की उपेक्षा की पीडा को सहा है। उस पीडा ने
राष्ट्रीय सन्दर्भ में उपेक्षित को काव्यांजलि देने का प्रयास किया है। आदि कवि की
करुणा का स्मरण करें फिर कवि ‘करुण’ की पीडा की प्रेरणा का महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा। इसीलिए कवि
ने प्रथम सत्र में गोकुल के किसान व्यक्तित्व को मुगल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत
किया है। उच्चकुल के नायकत्व के निकष को गोकुल ने बदल दिया था। अतः
किसान-मजदूर-दलित के उत्थान के युग में गोकुल की उपेक्षा कब तक होती! उसने तो
किसान जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए आमरण संघर्ष किया। विदेशी मुगल शासन
द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के
विरोध का संकल्प किया। इसलिए कवि ने प्रथम सर्ग में लिखा है-
तुम तो एक जन्म
लेकर बस
एक बार मरते हो
और कयामत तक
कर्ब्रों में
इन्तजार करते हो
लेकिन हम तो सदा
अमर हैं
आत्मा नहीं
मरेगी
केवल अपने
देह-वसन ये
बार-बार बदलेगी।
अतः गोकुल अपने
धर्म का परित्याग नहीं करेगा। वे दोनों दंडित होकर अमर हो जाना चाहते हैं। इस विषम
परिस्थिति-स्वातंत्रयसंग्राम, पराजय और प्राणदंड या धर्मपरिवर्तन में कवि
का प्रश्न है, राष्ट्रीय चेतना का प्रश्न है-
निर्णय बडा कठिन
था या दुर्भाग्य देश का, या फिर सौभाग्यों का दिन था।...
पर उदयसिंह और
गोकुल की शहादत पर कवि की उदात्त भावना मुखरित हो गयी है-
ये सब उज्ज्वल
तारे बन कर
जा बैठे अम्बर
पर....
सदियों से
दृष्टियाँ गडाये
इस भू के कण-कण
पर
स्मरण है कि सन्
1670
के संघर्ष एवं
शहादत के बाद सतनामियों ने शहादत दी है। शिवाजी का संघर्ष 1674
में सफल हुआ था।
परन्तु 1675
में गुरु तेग
बहादुर ने कश्मीर के लिए बलिदान दिया। पर भरतपुर के सूरजमल ने स्वातंत्रय ध्वज को
फहरा दिया। शायद इसी संघर्ष-श्रंखला का परिणाम रहा सन् 1947
का पन्द्रह
अगस्त। इतिहास को इस संघर्ष-श्रंखला को भूलना नहीं है। साहित्यकार तो भूलने नहीं
देगा।
बलवीर सिंह ‘करुण’
का यह
प्रबंधकाव्य अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है। कवि सत्रहवीं सदी के साथ इक्कीसवीं सदी
की राष्ट्रीयचेतना से अनुप्राणित है। अतः इसका मूल्य बढ जाता है। यह प्रबन्धकाव्य
हिन्दी काव्य की उपलब्धि है। कवि की लेखनी का अभिनन्दन है।
साभार