1 जनवरी 1890 - 10 जनवरी 1969
डॉ॰ संपूर्णानन्द कुशल तथा निर्भीक राजनेता एवं
सर्वतोमुखी प्रतिभावाले साहित्यकार एवं अध्यापक थे। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे।
जीवनी
संपूर्णानंद
का जन्म वाराणासी में 1 जनवरी सन् 1890 को एक
कायस्थ परिवार में हुआ। वहीं के क्वींस कालेज से बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रयाग चले गए
और वहाँ से एल.टी. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद आप प्रेम महाविद्यालय (वृंदावन) तथा बाद में डूंगर कालेज (बीकानेर) में
प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। देश की पुकार पर आपने यह नौकरी छोड़ दी और
फिर काशी के सुख्यात देशभक्त (स्वर्गीय) बाबू शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर
ज्ञानमंडल संस्था में काम करने लगे। यहीं रहकर आपने "अंतर्राष्ट्रीय विधान"
लिखी और "मर्यादा" का
संपादनभार भी संभाल लिया। इसके बाद जब इस संस्था से "टुडे" नामक
अंग्रेजी दैनिक भी निकालने का निश्चय किया गया तो इसका संपादन भी आपको ही सौंपा
गया जिसे आपने बड़ी योग्यता के साथ संपन्न किया।
श्री
संपूर्णानंद में शुरू से ही राष्ट्रसेवा की लगन थी और आप महात्मा गांधी द्वारा
संचालित स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लेने को आतुर रहते थे। इसी से सरकारी
विद्यालयों का बहिष्कार कर आए हुए विद्यार्थियों को राष्ट्रीय शिक्षा प्रदान करने
के उद्देश्य से स्थापित काशी विद्यापीठ में सेवाकार्य के लिए जब आपको आमंत्रित
किया गया तो आपने सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया। वहाँ अध्यापन कार्य करते हुए आपने कई
बार सत्याग्रह आंदोलन में
हिस्सा लिया और जेल गए। सन् 1926 में आप
प्रथम बार कांग्रेस की ओर से खड़े होकर विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। सन् 1937 में कांग्रेस मंत्रिमंडल की स्थापना होने पर शिक्षामंत्री
प्यारेलाल शर्मा के त्यागपत्र दे देने पर आप उत्तर
प्रदेश के शिक्षामंत्री बने और अपनी अद्भुत कार्यक्षमता एवं कुशलता
का परिचय दिया। आपने गृह, अर्थ तथा
सूचना विभाग के मंत्री के रूप में भी कार्य किया। सन् 1955 में श्री गोविंदवल्लभ
पंत के केंद्रीय मंत्रिमंडल में सम्मिलित हो जाने के बाद दो बार
आप उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री नियुक्त हुए। सन् 1962 में आप
राजस्थान के राज्यपाल बनाए गए जहाँ से सन् 1967 में आपने
अवकाश ग्रहण किया।
श्री
सम्पूर्णानंद भारतीय संस्कृति एवं भारतीयता के अनन्य समर्थक थे। योग और दर्शन उनके
प्रिय विषय थे। वे नियमित रूप से पूजापाठ और संध्या करते थे तथा माथे पर तिलक
लगाते थे। राजनीति में वे समाजवाद के अनुयायी थे किंतु उनका समाजवाद उसके विदेशी
प्रतिरूप से भिन्न भारत की परिस्थितियों एवं भारतीय विचारपरंपरा के अनुरूप था। हिंदी तथा संस्कृत से
उन्हें विशेष प्रेम था पर वे अंग्रेजी के अतिरिक्त उर्दू, फारसी के भी
अच्छे ज्ञाता तथा भौतिकी, ज्योतिष और दर्शन शास्त्र के भी
पंडित थे। विभिन्न विषयों की प्रभूत पुस्तकें वे निरंतर पढ़ते रहते थे और अपनी
मानस मंजूषा में जिन अमूल्य ज्ञानरत्नों का संग्रह किया करते थे, लोकहित के लिए उनके द्वारा उनका दान और उत्सर्ग भी होता रहता
था। हिंदी में वैज्ञानिक उपन्यास उन्होंने ही सर्वप्रथम लिखा। इस प्रकार उन्होंने
अध्ययन, मनन से जो कुछ भी इकट्ठा किया उसका बहुलांश "आदानं हि
विसगार्थ सतां वारिमुचामिव" इस उक्ति के अनुसार अपनी प्रौढ़ लेखनी द्वारा
जनता में पुन: वितरित कर दिया। आपकी कुछ प्रमुख हिंदी रचनाएँ ये हैं : अंताराष्ट्रिय विधान, समाजवाद, चिद्विलास, गणेश, ज्योतिर्विनोद, कुछ
स्मृतियाँ, कुछ स्फुट विचार, हिंदू देव परिवार का विकास, ग्रहनक्षत्र।
इनके अतिरिक्त सामयिक पत्रों में आपने जो बहुसंख्यक लेख लिखे वे भी हिंदी साहित्य
की अमूल्य निधि हैं। इनके कुछ संग्रह प्रकाशित भी हो चुके हैं।
उत्तर
प्रदेश में उन्मुक्त कारागार का अद्भुत प्रयोग आपने प्रारंभ किया जो यथेष्ट रूप से
सफल हुआ। नैनीताल में वेधशाला स्थापित कराने का श्रेय भी आपको ही है। वाराणसेय
संस्कृत विश्वविद्यालय और उत्तर प्रदेश सरकर द्वारा संचालित हिंद समिति की स्थापना
में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ये दोनों संस्थाएँ आपकी उत्कृष्ट
संस्कृतनिष्ठा एवं हिंद प्रेम के अद्वितीय स्मारक हैं। कला के क्षेत्र में लखनऊ के
मैरिस म्यूजिक कॉलेज को आपने विश्वविद्यालय स्तर का बना दिया। कलाकारों और
साहित्यकारों को शासकीय अनुदान देने का आरंभ देश में प्रथम बार आपने ही किया।
वृद्धावस्था की पेंशन भी आपने आरंभ की। आपको देश के अनेक विश्वविद्यालयों ने
"डॉक्टर" की सम्मानित उपाधि से विभूषित किया था। हिंदी साहित्य सम्मेलन
की सर्वोच्च उपाधि "साहित्यवाचस्पति" भी आपको मिली थी तथा हिंदी साहित्य
का सर्वोच्च पुरस्कार "मंगलाप्रसाद पुरस्कार" भी आप प्राप्त कर चुके थे।