बैसाखी
अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार बैसाखी का त्यौहार हर साल 13 अप्रैल (अधिकांशतः)
और कभी-कभी 14 अप्रैल को मनाया जाता है. सवाल उठता है, यह तारीख इतना
निश्चित क्यों है? इसका जवाब इतना मुश्किल नहीं है, बस इसे अधिक लोग
जानते नहीं है. तो सबसे पहले ये जान लीजिए भारत के अधिकांश पर्व और त्यौहार मौसम, मौसमी फसल और उनसे
जुड़ी गतिविधियों से जुड़े हैं. और इन दोनों पहलुओं, जोकि कि अन्योन्याश्रित यानी एक-दूसरे के
अभिन्न अंग है, का संबंध सौरमंडल में सूर्य के संचरण से गहरे रूप से संबंधित
हैं.
विशाखा नक्षत्र से संबंधित है बैसाखी
उल्लेखनीय है कि भारत में महीनों के नाम नक्षत्रों पर रखे गए हैं. बैसाखी के समय आकाश में विशाखा नक्षत्र होता है. सनातन परंपरा के अनुसार, विशाखा नक्षत्र पूर्णिमा में होने के कारण इस माह को बैसाखी कहते हैं. इस प्रकार वैशाख मास के प्रथम दिन को बैसाखी कहा गया और पर्व के रूप में स्वीकार किया गया. इस दिन ही सूर्य मेष राशि में संक्रमण करता है अतः इसे मेष संक्रांति भी कहते हैं.कृषि उत्सव है बैसाखी
इस प्रकार, बैसाखी त्यौहार अप्रैल माह में तब मनाया जाता है, जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है. यह खगोलीय घटना 13 या 14 अप्रैल को होता है. इस समय सूर्य की किरणें तेज होने लगती हैं, जो गर्मी के मौसम का आगाज करती हैं. इन गर्म किरणों के प्रभाव से जहां रबी की फसल पक जाती हैं, वहीं गरमा और खरीफ फसलों का मौसम शुरू हो जाता है. अब जिस देश की बुनियाद ही खेती पर टिकी हो, वहां इसका एक उत्सव तो बनता है. यही कारण है कि इस तिथि के आसपास भारत में अनेक पर्व-त्यौहार मनाए जाते हैं, जो वस्तुतः कृषिगत त्यौहार ही हैं.धार्मिक और आध्यात्मिक पर्व भी है बैसाखी
दूसरी ओर, कृषि यानी खेती-बारी आज भी भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद है और खेती के लिए सूर्यातप और अनुकूल मौसम क्या महत्त्व है, इससे आज कोई अनजान नहीं है. क्योंकि, फसल के लिए बीज अंकुरण, पौध विकास और उसके पकने में ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इस लिहाज से बैसाखी को एक दूसरे नाम खेती का पर्व भी कहें तो गलत नहीं होगा. किसान इसे बड़े आनंद और उत्साह के साथ मनाते हुए खुशियों का इजहार करते हैं. लेकिन इस कृषि पर्व की धार्मिक और आध्यात्मिक पर्व के रूप में भी काफी मान्यता है. सौर नववर्ष या मेष संक्रांति के कारण कई जगहों पर इस दिन मेले लगते हैं. लोग श्रद्धापूर्वक देवी-देवताओं की पूजा करते हैं. पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां बैसाखी के रूप में उल्लास कर रंग दिखता है, तो उत्तर-पूर्वी भारत में असम प्रदेश में इस दिन बिहू पर्व मनाया जाता है.जानिए बैसाखी मनाने के रोचक ऐतिहासिक कारण
सिखों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी के दिन ही आनंदपुर साहिब में वर्ष 1699 में खालसा पंथ की नींव रखी थी. इसका 'खालसा' खालिस शब्द से बना है, जिसका अर्थ शुद्ध, पावन या पवित्र होता है. चूंकि दशम गुरु, गुरु गोविन्द सिंह ने इसी दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी. इसलिए वैशाखी का पर्व सूर्य की तिथि के अनुसार मनाया जाने लगा. खालसा-पंथ की स्थापना के पीछे गुरु गोबिन्द सिंह का मुख्य लक्ष्य लोगों को तत्कालीन मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्त कर उनके धार्मिक, नैतिक और व्यावहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाना था.प्रथम गुरु नानक देवजी ने भी की वैशाख माह की प्रशंसा
सिख पंथ के प्रथम गुरु नानक देवजी ने भी वैशाख माह की आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से काफी प्रशंसा की है. इसलिए पंजाब और हरियाणा सहित कई क्षेत्रों में बैसाखी मनाने के आध्यात्मिक सहित तमाम कारण हैं. श्रद्धालु गुरुद्वारों में अरदास के लिए इकट्ठे होते हैं. दिनभर गुरु गोविंद सिंहजी और पंच-प्यारों के सम्मान में शबद और कीर्तन गाए जाते हैं.किसान के लिए सोना समान है गेहूँ
बैसाखी पर पंजाब में गेहूँ की कटाई शुरू हो जाती है. गेहूँ को पंजाबी किसान कनक यानी सोना मानते हैं. यह फ़सल किसान के लिए सोना ही होती है, जिसमें उनकी मेहनत का रंग दिखायी देता है. यही कारण है कि चारों तरफ लोग प्रसन्न दिखलायी देते हैं और लंगर लगाये जाते हैं.
बैसाखी नाम वैशाख से बना है। पंजाब और हरियाणा के किसान सर्दियों की फसल काट
लेने के बाद नए साल की खुशियाँ मनाते हैं। इसीलिए बैसाखी पंजाब और आसपास के
प्रदेशों का सबसे बड़ा त्योहार है। यह खरईफ की फसल के पकने की खुशी का प्रतीक है।
इसी दिन, 13 अप्रैल 1699 को दसवें गुरु गोविंद सिंहजी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। सिख इस त्योहार को सामूहिक जन्मदिवस
के रूप में मनाते हैं।
प्रकृति
का एक नियम है कि जब भी किसी जुल्म, अन्याय, अत्याचार की पराकाष्ठा होती है, तो उसे हल करने अथवा उसके उपाय
के लिए कोई कारण भी बन जाता है। इसी नियमाधीन जब मुगल शासक औरंगजेब द्वारा जुल्म, अन्याय व अत्याचार की हर सीमा
लाँघ, श्री
गुरु तेग बहादुरजी को दिल्ली में चाँदनी चौक पर शहीद कर दिया गया, तभी गुरु गोविंदसिंहजी ने अपने
अनुयायियों को संगठित कर खालसा पंथ की स्थापना की जिसका लक्ष्य था धर्म व नेकी
(भलाई) के आदर्श के लिए सदैव तत्पर रहना।
पुराने
रीति-रिवाजों से ग्रसित निर्बल, कमजोर व साहसहीन हो चुके लोग, सदियों की राजनीतिक व मानसिक
गुलामी के कारण कायर हो चुके थे। निम्न जाति के समझे जाने वाले लोगों को जिन्हें
समाज तुच्छ समझता था, दशमेश
पिता ने अमृत छकाकर सिंह बना दिया। इस तरह 13 अप्रैल,1699 को श्री केसगढ़ साहिब आनंदपुर में दसवें गुरु
गोविंदसिंहजी ने खालसा पंथ की स्थापना कर अत्याचार को समाप्त किया।
उन्होंने सभी जातियों के लोगों को एक ही अमृत पात्र (बाटे) से अमृत छका पाँच प्यारे सजाए। ये पाँच प्यारे किसी एक जाति या स्थान के नहीं थे, वरन् अलग-अलग जाति, कुल व स्थानों के थे, जिन्हें खंडे बाटे का अमृत छकाकर इनके नाम के साथ सिंह शब्द लगा। अज्ञानी ही घमंडी नहीं होते, 'ज्ञानी' को भी अक्सर घमंड हो जाता है। जो परिग्रह (संचय) करते हैं उन्हें ही घमंड हो ऐसा नहीं है, अपरिग्रहियों को भी कभी-कभी अपने 'त्याग' का घमंड हो जाता है।
अहंकारी
अत्यंत सूक्ष्म अहंकार के शिकार हो जाते हैं। ज्ञानी, ध्यानी, गुरु, त्यागी या संन्यासी होने का
अहंकार कहीं ज्यादा प्रबल हो जाता है। यह बात गुरु गोविंदसिंहजी जानते थे। इसलिए
उन्होंने न केवल अपने गुरुत्व को त्याग गुरु गद्दी गुरुग्रंथ साहिब को सौंपी बल्कि
व्यक्ति पूजा ही निषिद्ध कर दी।
हिंदुओं
के लिए यह त्योहार नववर्ष की शुरुआत है। हिंदु इसे स्नान, भोग लगाकर और पूजा करके मनाते
हैं। ऐसा माना जाता है कि हजारों साल पहले देवी गंगा इसी दिन धरती पर उतरी थीं।
उन्हीं के सम्मान में हिंदू धर्मावलंबी पारंपरिक पवित्र स्नान के लिए गंगा किनारे
एकत्र होते हैं।
केरल में
यह त्योहार 'विशु' कहलाता है। इस दिन नए, कपड़े खरीदे जाते हैं, आतिशबाजी होती है और 'विशु कानी' सजाई जाती है। इसमें फूल, फल, अनाज, वस्त्र, सोना आदि सजाए जाते हैं और सुबह
जल्दी इसके दर्शन किए जाते हैं। इस दर्शन के साथ नए वर्ष में सुख-समृद्धि की कामना
की जाती है। ब्न्गाल मेइन ये त्योहार नभ बर्श के
नम से मनाते हैं।
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