Thursday, July 15, 2021

Mohammad Usman


ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान

15 जुलाई, 1912 - 3 जुलाई, 1948

ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान भारतीय सेना के एक उच्च अधिकारी थे, जो भारत और पाकिस्तान के प्रथम युद्ध (1947-48) में शहीद हुए। उस्मान 'नौशेरा के शेर के' रूप में ज्यादा जाने जाते हैं। वह भारतीय सेना के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और साहसी सैनिकों में से एक थे, जिन्होंने जम्मू में नौशेरा के समीप झांगर में मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राण गंवा दिए थे।
मोहम्मद उस्मान का जन्म 15 जुलाई, 1912 को आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ था। वह भारतीय सैन्य अधिकारियों के उस शुरुआती बैच में शामिल थे, जिनका प्रशिक्षण ब्रिटेन में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध में अपने नेतृत्व के लिए प्रशंसा पाने वाले ब्रिगेडियर उस्मान उस 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर थे, जिसने नौशेरा में जीत हासिल की। मोहम्मद उस्मान भारत की आज़ादी के महज 11 महीने बाद पाकिस्तानी घुसपैठियों से जंग करते हुए शहीद हो गए। यह उल्लेखनीय है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनकी कैबिनेट के सहयोगी जुलाई, 1948 में उनकी राजकीय अंत्येष्टि में शामिल हुए। यह वह सम्मान है जो इसके बाद किसी भारतीय फौजी को नहीं मिला।

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले में एक गांव है-बीबीपुर। यहीं के थे खान बहादुर मोहम्मद फारुख, जो पुलिस अधिकारी थे और बनारस के कोतवाल भी रहे। उन्हीं के घर की कहानी है। तीन बेटियों के बाद बेटे का जन्म हुआ। नाम रखा गया मोहम्मद उस्मान। बनारस के हरिश्चंद्र भाई स्कूल में पढ़ाई हुई। साहसी इतना कि 12 साल का था कि अपने एक मित्र को बचाने के लिए कुएं में कूद पड़ा, बचा भी लिया। सेना में जाने का मन बनाया और ब्रिटेन कीरायल मिलिटरी एकेडमी, सैंडहस्ट में चुन लिया गया। भारत से चुने गये 10 कैडेटों में वे एक थे। ब्रिटेन से पढ़ कर आये मोहम्मद उस्मान 23 साल के थे। बलूच रेजीमेंट में नौकरी मिली। इधर भारत-पाक का बंटवारा हो रहा था। पाकिस्तानी नेताओं मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान ने इस्लाम और मुसलमान होने की दुहाई दी। पाकिस्तानी सेना में शामिल हो जाओ, लालच दिया- नियम तोड़ कर (आउट ऑफ टर्न) पाकिस्तानी सेना का चीफ बना दिया जायेगा। पर, वतनपरस्त उस्मान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बलूच रेजीमेंट बंटवारे में पाकिस्तानी सेना के हिस्से चली गयी। उस्मान डोगरा रेजीमेंट में आ गये। भारतीय सेना में भर्ती दोनों देशों में अघोषित लड़ाई चल रही थी। पाकिस्तान भारत में घुसपैठ करा रहा था। कश्मीर घाटी और जम्मू तक अशांत था। उस्मान पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे. उनकी झनगड़ में तैनाती थी। झनगड़ का पाक के लिए सामरिक महत्व था। मीरपुर और कोटली से सड़कें आकर यहीं मिलती थीं। 25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झनगड़ को कब्जे में ले लिया। लेफ्टिनेंट जनरल के. एम. करिअप्पा तब वेस्टर्न आर्मी कमांडर थे। उन्होंने जम्मू को अपनी कमान का हेडक्वार्टर बनाया। लक्ष्य था - झनगड़ और पुंछ पर क़ब्ज़ा करना और मार्च, 1948 में ब्रिगेडियर उस्मान की वीरता, नेतृत्व व पराक्रम से झनगड़ भारत के कब्जे में आ गया। उन्हें नौशेरा का शेर भी कहा जाता है। तब पाक की सेना के हजार जवान मरे थे और इतने ही घायल हुए थे, जबकि भारत के 102 घायल हुए थे और 36 जवान शहीद हुए थे। पाकिस्तानी सेना झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से परेशान थी। उसने घोषणा कर दी कि जो भी उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये दिये जायेंगे। इधर, पाक लगातार झनगड़ पर हमले करता रहा। अपनी बहादुरी के कारण पाकिस्तानी सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे उस्मान। पाक सेना घात में बैठी थी। 3 जुलाई, 1948 की शाम, पौने छह बजे होंगे उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया। उनके अंतिम शब्द थे - हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का क़ब्ज़ा न होने पाये।
पहले अघोषित भारत-पाक युद्ध (1947-1948) में शहीद होने वाले वे पहले उच्च सैन्य अधिकारी थे। राजकीय सम्मान के साथ उन्हें जामिया मिलिया इसलामिया क़ब्रगाह, नयी दिल्ली में दफनाया गया। अंतिम यात्रा में गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, केंद्रीय मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और शेख अब्दुल्ला भी थे। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। उस्मान अलग ही मिट्टी के बने थे। वह 12 दिन और जिये होते तो 36वां जन्मदिन मनाते। उन्होंने शादी नहीं की थी। अपने वेतन का हिस्सा ग़रीब बच्चों की पढ़ाई और ज़रूरतमंदों पर खर्च करते थे। नौशेरा में 158 अनाथ बच्चे पाये गये थे। उनकी देखभाल करते, उनको पढ़ाते-लिखाते थे। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अफ़ग़ानिस्तान और बर्मा तक वे गये थे। इसी कारण उन्हें कम उम्र में ही पदोन्नति मिलती गयी और वे ब्रिगेडियर तक बने। झनगड़ को पाक से छीनने के लिए उस्मान ने अपने सैनिकों के नाम जिस फरमान पर हस्ताक्षर किया था
उसकी अंतिम पंक्ति आज भी देशवासियों के लिए प्रेरणास्रोत है।

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