हजारीप्रसाद द्विवेदी
19 अगस्त 1907-19 मई 1979
हजारीप्रसादद्विवेदी हिन्दी निबन्धकार,आलोचक और उपन्यासकार थे। वे हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और बाङ्ला भाषाओं के विद्वान थे। भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान था। सन 1957 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी
संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907
ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री
अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के
प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही
हुई। उन्होंने 1920 में बसरिकापुर के मिडिल स्कूल से प्रथम श्रेणी
में मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने गाँव के निकट ही पराशर
ब्रह्मचर्य आश्रम में संस्कृत का अध्ययन आरम्भ किया। सन् 1923 में वे विद्याध्ययन के लिए काशी आये। वहाँ रणवीर संस्कृत
पाठशाला, कमच्छा से प्रवेशिका परीक्षा प्रथम श्रेणी में
प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की। 1927 में काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की।
इसी वर्ष भगवती देवी से उनका विवाह सम्पन्न हुआ। 1929 में
उन्होंने इंटरमीडिएट और संस्कृत साहित्य में शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1930
में ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। शास्त्री तथा आचार्य दोनों ही
परीक्षाओं में उन्हें प्रथम श्रेणी प्राप्त हुई।
द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और उनका
स्वभाव बड़ा सरल और उदार था। 8 नवम्बर 1930 से
द्विवेदीजी ने शांति निकेतन में हिन्दी का अध्यापन प्रारम्भ किया। वहाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तथा आचार्य क्षितिमोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा अपना स्वतंत्र लेखन भी व्यवस्थित
रूप से आरंभ किया। बीस वर्षों तक शांतिनिकेतन में अध्यापन के उपरान्त द्विवेदीजी
ने जुलाई 1950 में काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में कार्यभार ग्रहण
किया। 1957 में राष्ट्रपति द्वारा 'पद्मभूषण' की उपाधि से सम्मानित किये गये।
प्रतिद्वन्द्वियों के विरोध के चलते मई 1960 में द्विवेदीजी काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिये गये। जुलाई 1960 से पंजाब विश्वविद्यालय,
चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे। अक्टूबर 1967
में पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष होकर
लौटे। मार्च 1968 में विश्वविद्यालय के रेक्टर पद पर उनकी
नियुक्ति हुई और 25 फरवरी 1970 को इस
पद से मुक्त हुए। कुछ समय के लिए 'हिन्दी का ऐतिहासिक
व्याकरण' योजना के निदेशक भी बने। कालान्तर में उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के
अध्यक्ष तथा 1972 से आजीवन उत्तर
प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के उपाध्यक्ष पद पर रहे। 1973 में 'आलोक पर्व' निबन्ध संग्रह के लिए उन्हें 'साहित्य
अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
4 फरवरी 1979 को पक्षाघात के शिकार हुए और 19 मई 1979 को
ब्रेन ट्यूमर से दिल्ली में उनका निधन हो गया।
जारी प्रसाद द्विवेदी जी की
प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
आलोचनात्मक
·
सूर साहित्य (1936)
·
हिन्दी साहित्य
की भूमिका (1940)
·
प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद (1952)
·
कबीर (1942)
·
नाथ संप्रदाय (1950)
·
हिन्दी साहित्य का आदिकाल (1952)
·
आधुनिक हिन्दी साहित्य पर विचार (1949)
·
साहित्य का मर्म (1949)
·
मेघदूत: एक पुरानी कहानी (1957)
·
लालित्य तत्त्व (1962)
·
साहित्य सहचर (1965)
·
कालिदास की लालित्य योजना (1965)
·
मध्यकालीन बोध का स्वरूप (1970)
·
हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास (1952)
·
मृत्युंजय रवीन्द्र (1970)
·
सहज साधना (1963)
निबन्ध संग्रह
·
अशोक के फूल (1948)
·
कल्पलता (1951)
·
विचार और वितर्क (1954)
{1949}
·
विचार-प्रवाह (1959)
·
कुटज (1964)
·
आलोक पर्व (1973) साहित्य अकादमी पुरुस्कार
·
विश के दन्त
·
कल्पतरु
·
गतिशील चिंतन
·
साहित्य सहचर
·
नाखून क्यों बढ़ते हैैं
उपन्यास
·
बाणभट्ट की आत्मकथा (1946)
·
चारु चंद्रलेख(1963)
·
पुनर्नवा(1973)
·
अनामदास का पोथा(1976)
अन्य
·
संक्षिप्त पृथ्वीराज
रासो (1957)
·
संदेश रासक (1960)
·
सिक्ख गुरुओं का पुण्य स्मरण (1979)
·
महापुरुषों का स्मरण (1977)
ग्रन्थावली एवं ऐतिहासिक व्याकरण
अगस्त 1981 ई० में आचार्य
द्विवेदी की उपलब्ध सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन 11 खंडों में हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली के नाम से
प्रकाशित हुआ। यह प्रथम संस्करण 2 वर्ष से भी कम समय में समाप्त
हो गया। द्वितीय संशोधित परिवर्धित संस्करण 1998
ई० में प्रकाशित हुआ।
आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी भाषा
के ऐतिहासिक व्याकरण के क्षेत्र में भी काम किया था। उन्होंने 'हिन्दी भाषा का
वृहत् ऐतिहासिक व्याकरण' के नाम से चार खण्डों में विशाल
व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। इसकी पांडुलिपि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग को सौंपी गयी थी, परंतु लंबे समय तक
वहाँ से इसका प्रकाशन नहीं हुआ और अंततः वहाँ से पांडुलिपियाँ ही गायब हो गयीं। द्विवेदी जी के पुत्र मुकुन्द द्विवेदी को उक्त वृहत् ग्रन्थ के प्रथम
खण्ड की प्रतिकापी मिली और सन 2011 ई० में इस विशाल ग्रंथ का
पहला खण्ड हिन्दी भाषा का वृहत् ऐतिहासिक व्याकरण के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी ग्रंथ को यथावत् ग्रन्थावली के 12वें खंड के रूप में भी सम्मिलित करके अब 12 खण्डों
में 'हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली' का प्रकाशन हो रहा है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी विषयक साहित्य
1. शांतिनिकेतन से शिवालिक - सं०-शिवप्रसाद
सिंह (1967, द्वितीय संशोधित-परिवर्धित संस्करण-1988,
नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली से; नवीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से)
2. दूसरी परम्परा की खोज - नामवर सिंह
(1982, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
3. हजारीप्रसाद द्विवेदी (विनिबन्ध)-
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (1989, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली से)
4. साहित्यकार और चिन्तक आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी - डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी (1997, हिंदुस्तानी एकेडमी,
इलाहाबाद से)
5. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व
और कृतित्व - सं०- डॉ० व्यास मणि त्रिपाठी (2008, हिंदी साहित्य
कला परिषद, पोर्टब्लेयर, अंडमान से)
6. व्योमकेश दरवेश [आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण] (जीवनी एवं आलोचना)- विश्वनाथ त्रिपाठी
(2011, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
7. हजारीप्रसाद द्विवेदी : समग्र
पुनरावलोकन - चौथीराम यादव (2012, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से; हरियाणा साहित्य अकादमी से पूर्व
प्रकाशित 'आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्य' का संशोधित-परिवर्धित संस्करण)
8. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जय-यात्रा - नामवर सिंह (आचार्य द्विवेदी पर नामवर जी द्वारा लिखित समस्त सामग्री का एकत्र संकलन; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
रचनात्मक वैशिष्टय
वर्ण्य विषय
द्विवेदी जी के निबंधों के विषय
भारतीय संस्कृति, इतिहास, ज्योतिष, साहित्य विविध धर्मों और
संप्रदायों का विवेचन आदि है। वर्गीकरण की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबंध दो
भागों में विभाजित किए जा सकते हैं - विचारात्मक और आलोचनात्मक। विचारात्मक
निबंधों की दो श्रेणियां हैं। प्रथम श्रेणी के निबंधों में दार्शनिक तत्वों की
प्रधानता रहती है। द्वितीय श्रेणी के निबंध सामाजिक जीवन संबंधी होते हैं।
आलोचनात्मक निबंध भी दो श्रेणियों में बांटें जा सकते हैं। प्रथम श्रेणी में ऐसे
निबंध हैं जिनमें साहित्य के विभिन्न अंगों का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया
गया है और द्वितीय श्रेणी में वे निबंध आते हैं जिनमें साहित्यकारों की कृतियों पर
आलोचनात्मक दृष्टि से विचार हुआ है। द्विवेदी जी के इन निबंधों में विचारों की
गहनता, निरीक्षण की नवीनता और विश्लेषण की सूक्ष्मता रहती
है।
भाषा
द्विवेदी जी की भाषा परिमार्जित
खड़ी बोली है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार भाषा का चयनित प्रयोग किया है। उनकी
भाषा के दो रूप दिखलाई पड़ते हैं - (१) प्राँजल व्यावहारिक भाषा, (२) संस्कृतनिष्ठ
शास्त्रीय भाषा। प्रथम रूप द्विवेदी जी के सामान्य निबंधों में मिलता है। इस
प्रकार की भाषा में उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों का भी समावेश हुआ है। द्वितीय
शैली उपन्यासों और सैद्धांतिक आलोचना के क्रम में परिलक्षित होती है। द्विवेदी जी
की विषय प्रतिपादन की शैली अध्यापकीय है। शास्त्रीय भाषा रचने के दौरान भी प्रवाह
खण्डित नहीं होता।
शैली
द्विवेदी जी की रचनाओं में उनकी
शैली के निम्नलिखित रूप मिलते हैं -
गवेषणात्मक शैली द्विवेदी जी
के विचारात्मक तथा आलोचनात्मक निबंध इस शैली में लिखे गए हैं। यह शैली द्विवेदी जी
की प्रतिनिधि शैली है। इस शैली की भाषा संस्कृत प्रधान और अधिक प्रांजल है। वाक्य
कुछ बड़े-बड़े हैं। इस शैली का एक उदाहरण देखिए -
लोक और शास्त्र का समन्वय, ग्राहस्थ और
वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय,निर्गुण और सगुण का समन्वय, कथा और तत्व ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चांडाल का
समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय, रामचरित मानस शुरू से
आखिर तक समन्वय का काव्य है।
वर्णनात्मक शैली द्विवेदी जी
की वर्णनात्मक शैली अत्यंत स्वाभाविक एवं रोचक है। इस शैली में हिंदी के शब्दों की
प्रधानता है, साथ ही संस्कृत के तत्सम और उर्दू के प्रचलित
शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। वाक्य अपेक्षाकृत बड़े हैं।
व्यंग्यात्मक शैली द्विवेदी जी
के निबंधों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सफल और सुंदर प्रयोग हुआ है। इस शैली
में भाषा चलती हुई तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग
मिलता है।
व्यास शैली द्विवेदी जी
ने जहां अपने विषय को विस्तारपूर्वक समझाया है, वहां
उन्होंने व्यास शैली को अपनाया है। इस शैली के अंतर्गत वे विषय का प्रतिपादन
व्याख्यात्मक ढंग से करते हैं और अंत में उसका सार दे देते हैं।
महत्वपूर्ण कार्य
द्विवेदी जी का हिंदी निबंध और
आलोचनात्मक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार और सफल
आलोचक हैं। उन्होंने सूर, कबीर, तुलसी आदि पर जो विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं लिखी
हैं, वे हिंदी में पहले नहीं लिखी गईं। उनका निबंध-साहित्य
हिंदी की स्थाई निधि है। उनकी समस्त कृतियों पर उनके गहन विचारों और मौलिक चिंतन
की छाप है। विश्व-भारती आदि के द्वारा द्विवेदी जी ने संपादन के क्षेत्र में
पर्याप्त सफलता प्राप्त की है।
आचार्य द्विवेदी जी के साहित्य
में मानवता का परिशीलन सर्वत्र दिखाई देता है। उनके निबंध तथा उपन्यासों में यह
दृष्टि विशेष रूप से प्रतीत होती है।
हजारी
प्रसाद द्विवेदी को
साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1957 में पद्म
भूषण से सम्मानित किया गया। आलोक पर्व निबन्ध संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट्. की उपाधि देकर उनका विशेष सम्मान किया था।
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