जन्म- 9 जून, 1909, मृत्यु- 23 जुलाई, 1993
लक्ष्मण प्रसाद दुबे भारत के स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे।
शिक्षकीय कर्तव्य को अपनी साधना मानने वाले लक्ष्मण प्रसाद दुबे का संपूर्ण जीवन
एक शिक्षक के रूप में बीता था, जिस कारण उन्हें 'गुरुजी' के रूप में जाना जाता रहा। उन्होंने अपने
जीवन में कई लोगों को शिक्षित कर उनके मन में देशभक्ति की भावना को जागृत किया।
वहीं कई लोगों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित भी किया। लक्ष्मण प्रसाद जी देश में
नारी स्वतंत्रता एवं नारी शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे।
लक्ष्मण प्रसाद दुबे का जन्म छत्तीसगढ़ स्थित दुर्ग ज़िले के दाढी गांव में 9 जून, 1909 को हुआ था। वे गांव में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद
बेमेतरा से उच्चतर माध्यमिक व शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर शिक्षकीय कार्य में
जुट गये। उनकी पहली नियमित पद स्थापना सन 1929 में भिलाई के माध्यमिक स्कूल में हुई थी। उस समय दुर्ग में स्वतंत्रता आंदोलन का ओज फैला हुआ था। ज्योतिष के विद्वान लक्ष्मण
प्रसाद दुबे ने यूनानी चिकित्सा व वैद विशारद की परिक्षा भी पास की थी एवं शिक्षा
के साथ चिकित्सा कार्य भी किया।
भिलाई
में शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए लक्ष्मण प्रसाद दुबे का संपर्क ज़िले के
वरिष्ठ सत्याग्रही नरसिंह प्रसाद अग्रवाल से हुआ। उस समय किशोर व युवजन के अग्रवाल
जी आदर्श थे। उनके मार्गदर्शन व आदेश से लक्ष्मण प्रसाद जी भिलाई में अपने साथियों
एवं छात्रों के साथ मिलकर 'मद्य निषेध आंदोलन' व 'विदेशी
वस्त्र आंदोलन' को हवा देने लगे। उसी समय उन्होंने भिलाई में
विदेशी वस्तुओं के साथ जार्ज पंचम का चित्र भी जलाया। बढ़ते आंदोलन की भनक से अक्टूबर, 1929 में भिलाई का मिडिल स्कूल बंद कर दिया गया और उनका स्थानांतरण बालोद मिडिल स्कूंल
में कर दिया गया। लक्ष्मण प्रसाद दुबे को अपने नेता के साथ रहने का सौभाग्य
प्राप्त हो गया, क्योंकि अग्रवाल जी बालोद के मूल निवासी
थे।
जंगल
सत्याग्रह का नेतृत्त्व
बालोद के ग्राम पोडी में हुए जंगल सत्याग्रह की पूरी रूपरेखा एवं दस्तावेजी कार्य नरसिंह
प्रसाद अग्रवाल जी ने इन्हें सौंप दिया था। इन दस्तावेजों को दुर्ग पुलिस एवं
गुप्तचरों से बचाते हुए जंगल सत्याग्रही व अन्य क्रियाकलापों का विवरण वे एक
रजिस्टर में दर्ज करते रहे। अग्रवाल जी के जेल जाने के बाद भी उनके द्वारा जंगल
सत्याग्रह को नेतृत्व प्रदान करते हुए कायम रखा गया। वे बतलाते थे कि उस समय
सत्याग्रह रैली व सभाओं में 8-10 महिलायें भी आती थीं,
जो चरखा लेकर आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती थीं।
उन्हीं
दिनों सन 1930 में बालोद के सर्किल ऑफीसर नायडू से से
लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी की बहस हो गई। तब अग्रवाल परिवार की मध्यस्थता से इनका
स्थानांतरण धमधा कर दिया गया। अब इनकी दौड़ बालोद-दुर्ग,
धमधा दाढी तक होती रही। वे विश्वनाथ तामस्कर, रघुनंदन
प्रसाद सिंगरौल, लक्ष्मण प्रसाद बैद के साथ सत्याग्रह आंदोलन
के क्रियाकलापों से जुड़े रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल के इस क्षेत्र में दौरे का
प्रभार लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास ही होता था। सन 1932 में अग्रवाल जी के दाढी के दौरे में वे
रास्ते भर सक्रिय रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल युवा सत्याग्रहियों को हमेशा समझाया
करते थे कि जोश के साथ होश मत खोना, क्योंकि जोश के कारण सभी
बड़े नेता सरकार की हिट लिस्ट में आ गये थे, जिस कारण उनकी
गिरफ़्तारी होती रहती थी।
स्वतंत्रता
आंदोलन को जीवंत रखने के लिए द्वितीय पंक्ति के
सत्याग्रहियों को अपना दायित्व निभाना था, अत: लक्ष्मण
प्रसाद दुबे अपने गांधीवादी नरम रवैये से शिक्षकीय कार्य करते रहे। 1942 में लक्ष्मण प्रसाद दुबे का स्थानांतरण
डौंडी लोहारा कर दिया गया। जंगल सत्याग्रह की रणनीति में माहिर लक्ष्मण प्रसाद
दुबे जी के लिए यह स्थान बालोद जैसा ही रहा, क्योंकि यह
स्थान जंगलों के बीच है, अत: वे वहां अपने मूल कार्य के साथ
पैदल गांव-गांव का दौरा कर सत्याग्रह का पाठ पढ़ाते रहे। इस बीच उनको मार्गदर्शन नरसिंह प्रसाद अग्रवाल से
मिलता रहा।
1942 में ही जमुना प्रसाद अग्रवाल अपने बडे भाई नरसिंह प्रसाद का संदेश लेकर
लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास आये और उन्हें सचेत किया कि आपकी भी गिरफ़्तारी हो
सकती है। यहां से वापस लौटते ही जमुना प्रसाद अग्रवाल को बालोद में गिरफ़्तार कर लिया गया और उसी रात
लक्ष्मण प्रसाद दुबे को भी गिरफ़्तार करने का आदेश डौंडी में जारी कर दिया गया,
जिसे लाल ख़ान सिपाही ने तामील करने के पहले ही लीक कर दिया और
लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी स्कूल का त्यागपत्र मित्रों के हाथ सौंपकर फरार हो गये एवं
बालोद आ गये। जहां से वे भूमिगत हो गए। रायपुर के प्रमुख सक्रिय स्वतंत्रता संग्राम
सेनानी मोतीलाल जी त्रिपाठी से पारिवारिक संबंधों का लाभ इन्हें मिलता रहा और
लक्ष्मंण प्रसाद दुबे घुर जंगल क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन की लौ जलाते रहे। 1942 से 1947 तक ये खानाबदोश जीवन व्यतीत करते रहे।
दुर्ग ज़िले के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदल घूम-घूम कर सत्याग्रह-शिक्षा का अलख
जगाने के कारण ये गिरफ़्तारी से बचे रहे।
लक्ष्मण प्रसाद दुबे शिक्षक जीवन से अवकाश प्राप्त करने के बाद
सक्रिय राजनीति में जनपद पंचायत बेमेतरा के सदस्य रहे। उन्होंने दुर्ग ज़िला
कांग्रेस की सदस्यता 1930 में ग्रहण की थी। 1942 से 1947 तक ज़िला कांग्रेस के कार्यकारिणी सदस्य के
रूप में उन्होंनें कार्य किया। अपनी मृत्यु 23 जुलाई, 1993 तक वे ज़िला कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहे
थे।