बन्दा सिंह बहादुर बैरागी
27 अक्टूबर 1670 - 9 जून 1716
बन्दा बैरागी एक सिख सेनानायक थे। उन्हें बन्दा बहादुर, लक्ष्मन दास और माधो दास भी कहते हैं। वे पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी। यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देवऔर गुरू गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरे जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया।
बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के
तहसील राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (1670 ई.) को हुआ था।
बंदा बहादुर सिंह राजपूत परिवार से थे और
उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। लक्ष्मण देव के भाग्य में विद्या नहीं थी, लेकिन छोटी सी उम्र
में पहाड़ी जवानों की भांति कुश्ती और शिकार आदि का बहुत शौक़
था। वह अभी 15 वर्ष की उम्र के ही थे कि ऎेक गर्भवती हिरणी के उनके हाथों हुए शिकार ने
उने अतयंत शोक में ङाल दिया। इस घटना का उनके मन में गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपना
घर-बार छोड़कर ऎेक बेरागी बन गये। वह जानकी दास नाम के एक बैरागी के शिष्य हो गए
और उनका नाम माधोदास बैरागी पड़ा। तदन्तर उन्होंने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का
शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक)
में
रहे। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के
नान्देड क्षेत्र को चला गए जहाँ गोदावरी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की।
3 सितंबर 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम मे, और उन्हें सिक्ख
बनाकर उसका नाम बन्दा सिंह बहादुर रख दिया। पंजाब और बाक़ी अन्य राज्यो के
हिन्दुओं के प्रति दारुण यातना झेल रहे तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष
के उन महान बच्चों की सरहिंद के नवाब वज़ीर ख़ान के द्ववारा निर्मम हत्या का
प्रतिशोध लेने के लिए रवाना किया। गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वे पंजाब आये
और सिक्खों के सहयोग से मुग़ल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुए। मई, 1710 में उन्होंने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदीके दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की।
उन्होंने ख़ालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।
बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग
पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत
किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ
के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल
गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन्होंने 7 दिसम्बर को
आत्मसमर्पण कर दिया। फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए जहाँ 5 मार्च से 12 मार्च तक सात दिनों
में 100 की संख्या में सिक्खों की बलि दी जाती रही । 16 जून को बादशाह
फ़ार्रुख़शियार के आदेश से बन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर
काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये।
मरने से पूर्व बन्दा सिंह बहादुर जी ने
अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों
और ज़मींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण
भावनाओं से परे थे। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया
था। पाँच हज़ार मुसलमान भी उनकी सेना में थे। बन्दा सिंह ने पूरे राज्य में यह
घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगे और वे
सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ पढ़ने और खुतवा
करवाने में स्वतन्त्र होंगे।