Rajendra Nath Lahiri
23 जून,
1901 - 17 दिसंबर, 1927
राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भारत के स्वतंत्रता
संग्राम के महत्वपूर्ण स्वतंत्रता
सेनानी थे। युवा क्रान्तिकारी लाहिड़ी की प्रसिद्धि काकोरी
काण्ड के एक प्रमुख अभियुक्त के रूप में हैं।
बंगाल (आज का बांग्लादेश) में पबना
जिले के अन्तर्गत मड़याँ (मोहनपुर) गाँव में 23 जून 1901 के दिन क्षिति मोहन लाहिड़ी के घर राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का जन्म हुआ।
उनकी माता का नाम बसन्त कुमारी था। उनके जन्म के समय पिता क्रान्तिकारी
क्षिति मोहन लाहिड़ी व बड़े भाई बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों
में योगदान देने के आरोप में कारावास की सलाखों के पीछे कैद थे। दिल में
राष्ट्र-प्रेम की चिन्गारी लेकर मात्र नौ वर्ष की आयु में ही वे बंगाल से अपने मामा के घर वाराणसी पहुँचे। वाराणसी में ही उनकी शिक्षा दीक्षा
सम्पन्न हुई। काकोरी काण्ड के दौरान लाहिड़ी काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में एम०
ए० (प्रथम वर्ष) के छात्र थे। 17 दिसम्बर 1927 को गोण्डा के जिला कारागार में अपने
साथियों से दो दिन पहले उन्हें फाँसी दे दी गयी। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को
देश-प्रेम और निर्भीकता की भावना विरासत में मिली थी। राजेन्द्रनाथ काशी की धार्मिक नगरी में पढाई करने गये थे
किन्तु संयोगवश वहाँ पहले से ही निवास कर रहे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचींद्रनाथ
सान्याल के सम्पर्क में आ गये। राजेन्द्र की फौलादी
दृढ़ता, देश-प्रेम और आजादी के प्रति दीवानगी के गुणों को
पहचान कर शचीन दा ने उन्हें अपने साथ रखकर बनारस से निकलने वाली पत्रिका बंग
वाणी के सम्पादन का दायित्व तो दिया ही, अनुशीलन
समिति की वाराणसी शाखा के सशस्त्र विभाग का
प्रभार भी सौंप दिया। उनकी कार्य कुशलता को देखते हुए उन्हें हिन्दुस्तान
रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की गुप्त बैठकों में आमन्त्रित भी किया जाने लगा।
पठन पाठन की अत्यधिक रूचि तथा बाँग्ला
साहित्य के प्रति स्वाभाविक प्रेम के कारण लाहिड़ी
अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी माता की स्मृति में बसंतकुमारी नाम का एक पारिवारिक पुस्तकालय स्थापित कर लिया था। काकोरी काण्ड में
गिरफ्तारी के समय ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय की बाँग्ला साहित्य परिषद के मंत्री
थे। इनके लेख बाँग्ला के बंगवाणी और शंख आदि पत्रों में छपा करते थे। लाहिड़ी ही बनारस के क्रांतिकारियों के हस्तलिखित पत्र अग्रदूत के प्रवर्तक थे। इनका लगातार यह प्रयास
रहता था कि क्रांतिकारी दल का प्रत्येक सदस्य अपने विचारों को लेख के रूप में
दर्ज़ करे।
क्रान्तिकारियों
द्वारा चलाये जा रहे स्वतन्त्रता-आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था
को देखते हुए शाहजहाँपुर में दल के सामरिक
विभाग के प्रमुख पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' के निवास पर हुई बैठक में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भी सम्मिलित हुए जिसमें
सभी क्रान्तिकारियों ने एकमत से अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना को अन्तिम
रूप दिया था। इस योजना में लाहिड़ी का अहम किरदार था क्योंकि उन्होंने ही अशफाक उल्ला खाँ के ट्रेन
न लूटने के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था, जिसके
परिणामस्वरूप अशफाक ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया था।
इस योजना को अंजाम देने के
लिये लाहिड़ी ने काकोरी से ट्रेन छूटते ही
जंज़ीर खींच कर उसे रोक लिया और 9 अगस्त 1925 की शाम सहारनपुर से चलकर लखनऊ पहुँचने वाली आठ डाउन ट्रेन पर
क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अशफाक उल्ला खाँ और चन्द्रशेखर आजाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से धावा बोल दिया। कुल 10
नवयुवकों ने मिलकर ट्रेन में जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया। मजे की बात यह कि उसी
ट्रेन में सफर कर रहे अंग्रेज सैनिकों तक की हिम्मत न हुई कि वे मुकाबला करने को
आगे आते।
काकोरी काण्ड के बाद
बिस्मिल ने लाहिड़ी को बम बनाने का प्रशिक्षण लेने बंगाल भेज दिया। राजेन्द्र बाबू
कलकत्ता गये और वहाँ से कुछ दूर स्थित दक्षिणेश्वर में उन्होंने बम
बनाने का सामान इकट्ठा किया। अभी वे पूरी तरह से प्रशिक्षित भी न हो पाये थे कि
किसी साथी की असावधानी से एक बम फट गया और बम का धमाका सुनकर पुलिस आ गयी। कुल 9 साथियों के साथ राजेन्द्र भी गिरफ्तार हो गये। उन पर मुकदमा दायर किया और
10 वर्ष की सजा हुई जो अपील करने पर 5
वर्ष कर दी गयी। बाद में ब्रिटिश राज ने दल के सभी
प्रमुख क्रान्तिकारियों पर काकोरी काण्ड के नाम से मुकदमा
दायर करते हुए सभी पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने तथा खजाना लूटने का
न केवल आरोप लगाया बल्कि झूठी गवाहियाँ व मनगढ़न्त प्रमाण पेश कर उसे सही साबित भी
कर दिखाया। राजेन्द्र लाहिड़ी को काकोरी काण्ड में शामिल करने के लिये बंगाल से लखनऊ लाया गया।
तमाम अपीलों व दलीलों के
बावजूद सरकार टस से मस न हुई और अन्तत: राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्ला खाँ तथा
ठाकुर रोशन सिंह- एक साथ चार
व्यक्तियों को फाँसी की सजा सुना दी गयी।
लाहिड़ी को अन्य क्रान्तिकारियों से दो दिन पूर्व 17 दिसम्बर
को ही फाँसी दे दी गयी।
आजादी के इस दीवाने ने हँसते-हँसते फाँसी का फन्दा चूमने से पहले वंदे मातरम् की हुंकार भरते हुए कहा था- "मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतन्त्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।"