Friday, July 5, 2019

शिक्षा जगत को समर्थ बनाने का समय


शिक्षा पर जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करने की तमाम सिफारिशों के बाद भी यह लक्ष्य अप्राप्य है

मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का पहला बजट एक ऐसे समय प्रस्तुत करने जा रही है जब उच्चतर शिक्षा पर बढ़ते विभिन्न वित्तीय दबावों का मुद्दा सतह पर है। नई शिक्षा नीति के मसौदे में भी उच्चतर शिक्षा के वित्तीय आयामों का उल्लेख है। एक सशक्त राष्ट्र को ऐसी सशक्त शिक्षा व्यवस्था की जरूरत होती है, जो सर्व-सुलभ भी हो। इस सर्व-सुलभ, सशक्त एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए प्रचुर धनराशि की आवश्यकता है। उच्चतर शिक्षा के वित्तीय दबावों, चुनौतियों और उनके समाधान पर सम्यक तरीके से पुनर्विचार करने की जरूरत है। सबसे पहले तो शिक्षा खास तौर से उच्च शिक्षा पर सार्वजनिक क्षेत्र का बजट बढ़ाने की आवश्यकता है। 1964-66 के कोठारी आयोग से लेकर अब तक के सभी शिक्षा आयोगों और समितियों ने एक स्वर से शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का छह प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश की, लेकिन पिछले लगभग 55 वर्षो में यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका, जबकि जिंबाब्वे, कोस्टारिका, किर्गिस्तान से लेकर भूटान जैसे देश शिक्षा पर अपने जीडीपी का 6 से 7.5 प्रतिशत खर्च करते हैं। स्वीडन, फिनलैंड जैसे विकसित देशों में यह व्यय 7 से 7.5 प्रतिशत है। वर्तमान शिक्षा नीति का मसौदा भी छह प्रतिशत के लक्ष्य की अनुशंसा करता है। हालांकि पहले की सिफारिशों से अलग इस बार क्रमिक रूप से यह लक्ष्य हासिल करने की बात की गई है, जो ज्यादा व्यावहारिक लगती है। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि 18 से 30 वर्ष के युवाओं की लगभग 40 करोड़ की तादाद को देखते हुए उच्च शिक्षा की बेहतरी के लिए सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं बैठा जा सकता। इसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी की भी जरूरत है।
निजी क्षेत्र की भागीदारी चार तरीकों से हो सकती है। पहला, निजी क्षेत्र में खोले गए कॉलेज, यूनिवर्सिटी और अन्य तकनीकी संस्थान जिसमें पूर्णतया निजी धन लगा हुआ है और जिनमें सरकार की कोई भागीदारी नहीं। दूसरे, निजी क्षेत्र के विभिन्न संस्थानों के पूर्व छात्रों का सहयोग हासिल किया जाए। पश्चिमी देशों में पूर्व छात्र करोड़ों की राशि अपनी मातृ-संस्था को दान के रूप में देते हैं। पिछले साल अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को 1 अरब 40 करोड़ डॉलर का चंदा मिला। अपने यहां भी आइआइटी, आइआइएम आदि में ऐसा कुछ हो रहा है। कुछ महीने पहले खबर थी कि बिट्स पिलानी को एक पूर्व छात्र ने 10 लाख डॉलर का चंदा दिया। हालांकि गैर तकनीकी संस्थाओं में ऐसा होना अपेक्षाकृत मुश्किल है, लेकिन इस तरह की कोशिश तो होनी ही चाहिए। कुछ ही दिन पहले जेएनयू ने फैकल्टी ऑफ इंजीनियरिंग और फैकल्टी ऑफ मैनेजमेंट के लिए राशि जुटाने के लिए अपने पूर्व छात्रों से संपर्क करना शुरू किया है। तीसरे तरीके के रूप में निजी भागीदारी का भारतीय मॉडल अपनाया जाना चाहिए। भारतीय मानस धार्मिक मानस है। शास्त्रों में उल्लिखित विद्या दान, परम दानजैसे वचन आज भी प्रभावी हैं। शिक्षा के लिए काफी लोग दान के लिए तैयार हैं, बस उन्हें यह विश्वास हो कि उनके पैसे का सदुपयोग होगा। याद कीजिए हमारे यहां धर्मशाला, प्याऊ, स्कूल, अस्पताल खोलने की पुरानी परंपरा रही है। विद्या के लिए दान को प्रोत्साहन देने के लिए दो चीजें जरूरी हैं। एक तो दानराशि के उपयोग की जानकारी दानकर्ता को दी जाए और दूसरे, बजट में घोषित कर दिया जाए कि सभी सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं को दिए गए दान इनकम टैक्स अधिनियम के 80जी के तहत टैक्स छूट प्राप्त होंगे।
चौथा तरीका यह है कि हर सरकारी शिक्षण संस्थान में एक दानपेटी रखी जाए जैसा कि विभिन्न धार्मिक संस्थाओं में होता है। इसमें अनाम तरीके से जो चाहे पैसा, जेवर इत्यादि डाल सके। यहां न केवल छोटे दानकर्ता (80जी से परे वाले) भी इससे जुड़ सकते हैं, बल्कि इससे वह धन भी एक तरह से सदुपयोग में आ सकेगा, जिसका हिसाब-किताब नहीं होता।
शिक्षा में वित्त बढ़ाने से जुड़ा एक अन्य कठोर, लेकिन जरूरी कदम यह है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों की फीस बढ़ाई जाए। सरकारी क्षेत्र में जिस कोर्स की फीस 10-20 हजार रुपये होती है, निजी क्षेत्र में वही दो से लेकर चार लाख रुपये के बीच होती है। उदाहरण के लिए कानून की पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय या राज्यों के कॉलेजों में कुछ हजार रुपये में हो जाती है वहीं निजी क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों में यह फीस लाखों में है। इसका मतलब है कि एक बड़ी तादाद में लोग पैसा खर्च करने के लिए तैयार है। इस आय वर्ग के लोग सरकारी संस्थाओं में भी पढ़ते हैं। फिर उनसे कम फीस क्यों ली जाए? इसका एक और लाभ यह होगा कि उच्चतर शिक्षा में सिर्फ टाइम पास करने वालों की भीड़ कम होगी और केवल वही लोग आएंगे जो सचमुच गंभीर होंगे। इससे शिक्षा-शोध की गुणवता भी बढ़ेगी। यह मानव-मनोविज्ञान है कि जो चीज मुफ्त या कम पैसे अथवा आसानी से मिल जाती है उसका मूल्य नहीं समझा जाता। जरूरी है कि सरकारी फीस बढ़ाकर निजी क्षेत्र के 20 प्रतिशत तक या कम से कम दोगुनी-तिगुनी कर दी जाए। अमेरिका में सरकारी और निजी विश्वविद्यालयों की फीस में कोई खास अंतर नहीं होता। यह भी जरूरी है कि कमजोर और निम्न आय वाले तबके के लिए शून्य से लेकर 3-4 प्रतिशत पर शैक्षणिक लोन आसानी से उपलब्ध हो, जिसे वे रोजगार मिलने के बाद ही चुकाएं। मानव संसाधन मंत्रलय को एजुकेशनल लोन स्कीम में यथोचित परिवर्तन करना होगा। टेक्नोलॉजी के इस दौर में लोनधारकों को ट्रैक करना भी मुश्किल नहीं है।
शिक्षा के वित्त का अंतिम पहलू निजी शिक्षण संस्थानों की आसमान छूती फीस का है। शिक्षण एक चैरिटेबल कार्य है। इससे मुनाफा नहीं कमाया जा सकता, लेकिन तरह-तरह के हथकंडों से निजी संस्थानों में खूब मुनाफाखोरी हो रही है। कुछ को छोड़कर निजी क्षेत्र के अधिकांश संस्थान या तो नेताओं द्वारा चलाए जा रहे हैं या उनमें उनका पैसा लगा हुआ है। उनके दबाव एवं प्रभाव से अनेक छेद वाली ऐसी ढीली-ढाली नीतियां बनी हुई हैं, जिनका दुरुपयोग किया जाता है। दूसरी तरफ इन संस्थानों का ठीक से ऑडिट भी नहीं होता। निजी शिक्षण संस्थानों का उचित विनियमन और फीस की एक सम्यक सीमा निर्धारित करना जरूरी है। समय आ गया है कि शिक्षा के वित्तीय आयामों को दुरुस्त किया जाए।


ensoul

money maker

shikshakdiary

bhajapuriya bhajapur ke