Monday, July 22, 2019

नई शिक्षा नीति को लागू करने की चुनौती


नीतियां बनाने में हम बेजोड़ हैं, मगर उनके क्रियान्वयन के लिए जो इच्छाशक्ति और ऊर्जा चाहिए वह नदारद है
तीस वर्ष पहले मैं मानव संसाधन मंत्रलय में पांच वर्ष के लिए प्रति-नियुक्ति पर गया था। सात-आठ दिन बाद ही पेट्रोल की बचत करने की आवश्यकता पर एक परिपत्र मेरे पास भी आया। मैंने उसे बड़े ध्यान से पढ़ा। शाम को घर लौटते समय सरकारी कार के नियमित ड्राइवर से चर्चा करते हुए मैंने कहा कि अब तो गाड़ी का उपयोग काफी सीमित हो जाएगा। वह जानते थे कि मैं बाहरसे आया हूं। यानी आइएएस अफसर नहीं हूं और मंत्रलय की कार्यप्रणाली से अपरिचित हूं। मेरी बात ध्यान से सुनने के बाद उन्होंने मुङो समझाया, ‘आप नए हैं, यहां ऐसे आदेश आते ही रहते हैं, सरकार तो अपने ढंग से चलती है। गाड़ियां आगे भी उसी तरह से चलेंगी जैसे आज तक चली हैं।अगले पांच साल मैंने पाया कि वह सही थे। मैंने यह भी सीखा कि किसी भी नई योजना/परियोजना की जानकारी पर सामान्य जन में जो प्रतिक्रिया-आशा, अपेक्षा, संभावना या आशंका व्यक्त की जाती है, मंत्रलयों में उसे एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा माना जाता है। सैकड़ों योजनाओं और कार्यक्रमों में एक और की वृद्धि, बस, इससे अधिक कुछ नहीं! मुङो तुरंत यह भी कहना चाहिए कि अपवाद अवश्य होते हैं, हुए हैं, हो रहे हैं और उसी से प्रगति और विकास की गाड़ी मंथर गति से चलती रहती है, रुकने नहीं पाती है। नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा बालिका विद्यालय, सर्व शिक्षा अभियान, मध्यान्ह भोजन योजना, दूरस्त शिक्षा उपयोग तथा ऐसे अनेक नवाचार सराहनीय रहे हैं। असफलताएं भी अनेक हैं। जानकारों के किसी भी विचार-विमर्श में लगभग हर बार यह वाक्य उभरता है कि नीतियां बनाने में हम बेजोड़ हैं, मगर उनके क्रियान्वयन में व्यवस्था की जकड़नों से बाहर निकल पाने के लिए जो इच्छाशक्ति और ऊर्जा चाहिए, वह प्राय: अनुपस्थित ही रहती है।
व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि 1986 की शिक्षा नीति के आने के बाद अनेक ऐसी संस्तुतियां सामने आईं जिनसे शिक्षा का पूरा परिदृश्य चमक सकता था। इनमें ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड तथा अध्यापक शिक्षा संस्थाओं की नई संरचना भी शामिल थीं। केंद्र को धनराशि देनी थी जो दिलखोलकर दी गई, क्रियान्वयन राज्य सरकारों को करना था। वहां पूर्ण स्वायत्तता थी, उसका भरपूर उपयोग हुआ। प्राथमिक शालाओं में जो खरीदी हुई, उसे लेकर अधिकांश राज्यों में जांच-समितियां बनाने की नौबत आई। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के नाम बदले गए, भवन बने या विस्तारित हुए, सहायकों के स्तर पर केंद्रीय अनुदान से नियुक्तियां भी तेजी से हुईं, मगर अधिकांश राज्यों में शिक्षक प्रशिक्षकों के नियमित चयन, नियुक्तियां, प्रोन्नति, प्रशिक्षण इत्यादि पर ध्यान न देकर योजना का मूल उद्देश्य भुला दिया गया। आज इन दोनों योजनाओं को लोग भूल चुके हैं। यह असामान्य नहीं है, मगर असामान्य यह भुला देना है कि ये और ऐसी ही अन्य योजनाएं असफल क्यों हो गईं! नई शिक्षा नीति को लेकर जो चर्चा हुई है और अभी भी हो रही है उसमें पहले की नीतियों के क्रियान्वयन के अनुभव से सहायत तभी मिल सकती है जब उनका निष्पक्ष अध्ययन, विश्लेषण और मूल्यांकन मंत्रलय के पास उपलब्ध हों। कस्तूरीरंगन समिति द्वारा प्रस्तुत प्रारूप को अंतिम स्वरूप देने की जिम्मेदारी तो मानव संसाधन मंत्रलय की ही है। और यह स्वरूप अपने में जितनी व्यावहारिकता लिए हुए होगा, वही नीति के क्रियान्वयन की सफलता के प्रतिशत को तय करेगा।
नई शिक्षा नीति के प्रारूप में प्रारंभ में ही इसके भारत केंद्रित होने की बात कही गई है। इस प्रारूप में ऐसा बहुत कुछ है जो भारत की ज्ञानार्जन परंपरा को आधार बनाकर भविष्य के लिए नई दृष्टि प्रस्तुत करता है। औपचारिक शिक्षा में व्यावसायिक शिक्षा का समावेश करने का सुझाव अपने आप में अकेला ही शिक्षा के जीवनोपयोगी होने में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। यदि इसके सफल क्रियान्वयन की संकल्पना की जाए तो सबसे पहले शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम संरचना और मूल्यांकन पद्धति में त्वरित मूलभूत परिवर्तन करने होंगे। इसमें राज्य सरकारों की रुचि, प्रशिक्षकों का दृष्टिकोण परिवर्तन तथा संसाधन तीनों का समन्वय प्राप्त करने की कठिन चुनौती सामने आएगी। शिक्षक प्रशिक्षण के लिए चार-वर्षीय पाठ्यक्रम की संस्तुति सराहनीय है, मगर जहां 92 प्रतिशत संस्थान निजी हों, सरकारी संस्थान निराशाजनक स्थिति में हों, वहां पूर्ण उत्साह के साथ नए पाठ्यक्रम को लागू करने के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। यदि शिक्षक प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम भारत केंद्रित हो जाएं तो इसका सीधा प्रभाव स्कूल शिक्षा पर पड़ेगा, तभी एक जीवंत और गतिशील शिक्षा व्यवस्था स्कूलों में प्रस्फुटित हो सकेगी। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में पचास-साठ के दशक में गांधी जी की मौलिक शिक्षा की संकल्पना को साकार करने के सराहनीय प्रयास किए गए थे, लेकिन वे सभी धीरे-धीरे अनकहे ही नेपथ्य में धकेल दिए गए। अब फिर समय आया है कि शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को सृजनात्मक गतिविधियों तथा नवाचारों का ऐसा केंद्र बना दिया जाए, जहां हर तरफ बौद्धिक और व्यावहारिक ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त किया जा रहा हो। जहां कृषि कार्य की समझ को उतना ही महत्वपूर्ण माना जाए जितना महत्व अंतरिक्ष विज्ञान को दिया जाता हो! क्योंकि शिक्षा ही घर-घर, गांव-गांव हर घर-परिवार में जीवंतता ला सकती है, संतुष्टि प्रदान कर सकती है, और हैप्पीनेस इंडेक्सबढ़ा सकती है।
एक छोटा उदहारण लें। बस्ते का बोझ एक बड़ी समस्या कितने ही वर्षो से बनी हुई है। बच्चों के स्वास्थ्य और संवर्धन पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसे अधिकारी, प्राचार्य और पालक सभी जानते हैं। ये सब मिलकर इसका समाधान निकाल सकते हैं, मगर शायद ऐसा करने की आवश्यकता ही नहीं समझते हैं। एक राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी ने संबंधित चर्चा में पूरे विश्वास के साथ कहा था कि भारी बस्ते से बच्चों की मांसपेशियां मजबूत होती हैं! लगभग तीन दशक पहले आरके नारायण का राज्यसभा में इस संबंध में दिया गया बयान और उसके बाद यशपाल समिति का प्रतिवेदन समय-समय पर चर्चा में आते रहते हैं, मगर बस्ते का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। अभी एक नए शोध अध्ययन में कहा गया है कि बस्ते का बोझ बच्चों के अपने वजन के दस प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इसमें नया कुछ नहीं है। यह केवल एक उदाहरण है कि सबकुछ जानते हुए भी क्रियान्वयन के स्तर पर जिस पैनी निगाह की आवश्यकता होती है, वह व्यवस्था में उपस्थित नहीं है। उसे जागृत करना आवश्यक है। नई शिक्षा नीति के सार्थक परिणाम तभी मिल सकेंगे।

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