समाज का जन्म संवाद से हुआ है। दुनिया के सभी समाजों का गठन और पुनर्गठन
सतत् संवाद से ही संभव हुआ है। सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के
विकास में भी संवाद की मुख्य भूमिका है। प्राचीनतम सामाजिक संगठन का संवाद साक्ष्य
ऋग्वेद है। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त (10.191) कहते हैं, ‘परस्पर साथ-साथ चलें। परस्पर स्नेहपूर्ण संवाद करें। सबके मन साथ-साथ ज्ञान
प्राप्त करें।’ संवाद अनिष्ट दूर करने का मंत्र है। संवाद का कोई विकल्प नहीं। संवाद का
घनत्व अपनत्व है। संवादहीनता में तनाव हैं, युद्ध भी हैं। महाभारत
में भीष्म ने युधिष्ठिर को गण संघर्ष का कारण संवादहीनता बताया था। संवाद के
परिणाम हमेशा सुखद होते हैं, लेकिन इसके पहले
वाद-विवाद भी होते हैं। भारत संवादप्रिय भूमि है। पुराकथाओं में पशु-पक्षी भी
संवादरत हैं। वेद, उपनिषद्, गीता सहित भारत का संपूर्ण ज्ञान दर्शन संवाद में ही उगा है, लेकिन पीछे लगभग दो-तीन दशक से संवाद घटा है। वाद-विवाद कलहपूर्ण हो गए
हैं। मूलभूत राष्ट्रीय प्रश्नों पर भी प्रीतिपूर्ण वाद-विवाद संवाद नहीं है।
राष्ट्रीय एकता जैसे अपरिहार्य प्रश्नों पर भी समन्वय एवं सामंजस्य नहीं हैं। सबके
अपने सत्य हैं। वे दूसरों के सत्य का सामना नहीं करते। महाकवि निराला के शब्दों
में ‘बोलते हैं लोग ज्यों मुंह फेरकर।’
अपना पक्ष सबको सही प्रतीत होता है,
लेकिन
लोकमंगलकारी सत्य एकपक्षीय नहीं होता। प्रत्येक वाद का प्रतिवाद भी होता है। दोनों
की प्रीति का परिणाम संवाद में खिलता है। हंिदूी के प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह
ने ‘वाद-विवाद
संवाद’ की भूमिका
में पास्कल को उद्घृत किया है,
‘एक छोर पर
जाकर ही कोई अपनी महानता नहीं प्रकट करता। महानता प्रकट करता है दोनों छोरों को एक
साथ छूते हुए बीच की समूची जगह को स्वयं भरकर।’
लेकिन
वर्तमान परिदृश्य में अपने-अपने दुराग्रह हैं। जनसंख्या वृद्धि भारत की राष्ट्रीय
समस्या है। जनसंख्या विस्फोट से जनस्वास्थ्य,
परिवहन, न्याय, शिक्षा, रोजगार, अपराध
नियंत्रण सहित सभी क्षेत्रों के बुनियादी ढांचे चरमरा गए हैं। बावजूद इसके
जनसंख्या नियंत्रण की प्रभावी विधि या नियमन पर आम सहमति नहीं है। राष्ट्रीय महत्व
के इस मुद्दे पर संवाद की बात छोड़िए सार्थक वाद-विवाद भी नहीं है। तीन तलाक लाखों
महिलाओं के कल्याण और सुरक्षित जीवन से जुड़ा मुद्दा है। इस महत्वपूर्ण विषय पर भी
एकपक्षीय दुराग्रह हैं। वे दूसरे पक्ष के विचार को शांत चित्त से सुनना भी पसंद
नहीं करते। सामाजिक सुधार की इस चुनौती का हल संवाद में है, लेकिन यहां
घोर संवादहीनता है।
अल्पसंख्यक विशेषाधिकार संविधान सभा में बहस का विषय था। सरदार पटेल की
अध्यक्षता वाली ‘अल्पसंख्यक
अधिकार समिति’ की रिपोर्ट
पर बहस हुई। पीसी देशमुख ने कहा,
‘इतिहास में
अल्पसंख्यक से अधिक कटुतापूर्ण कोई शब्द नहीं है। इसके कारण देश बंट गया।’ आरके सिधवा
ने कहा कि अल्पसंख्यक जैसा रूढ़ शब्द प्रयोग इतिहास से मिट जाना चाहिए। तजम्मुल
हुसैन ने कहा, ‘हम
अल्पसंख्यक नहीं हैं। यह शब्द अंग्रेजों ने निकाला। वे चले गए। अब इस शब्द को
डिक्शनरी से निकाल देना चाहिए।’
लेकिन
राजनीति में अल्पसंख्यकवाद चला। यही मसला संप्रति सर्वोच्च न्यायालय में है।
याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने राज्यों की आबादी के अनुसार अल्पसंख्यक घोषित
करने की मांग की है। याचिका में 2011
की जनगणना
के अनुसार लक्षद्वीप (2.5
फीसद), मिजोरम (2.75 फीसद), नगालैंड (8.75 फीसद), मेघालय (11.53 फीसद), जम्मू-कश्मीर
(28.44 फीसद), अरुणाचल
प्रदेश (29 फीसद), मणिपुर (31.39 फीसद), और पंजाब (38.40 फीसद) में
हंिदूू अल्पसंख्यक हैं। मिजोरम,
मेघालय और
नगालैंड में ईसाई बहुसंख्यक होकर भी अल्पसंख्यक हैं। पंजाब में बहुसंख्यक सिख को
अल्पसंख्यक माना जाता है। संविधान में भी अल्पसंख्यक की परिभाषा नहीं है। मुद्दा
राष्ट्रीय बेचैनी का है तो भी प्रीतिपूर्ण संवाद नहीं।
जम्मू-कश्मीर की समस्या भारतीय राष्ट्र राज्य की बड़ी चुनौती है। अन्य
रियासतों की ही तरह एक समान प्रारूप पत्र में इस राज्य का विलय भारत में हुआ था।
संविधान (अनुच्छेद 370)
में ‘जम्मू-कश्मीर
राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंध’
शीर्षक है।
शीर्षक में ही अस्थायी उपबंध के बावजूद यह अनुच्छेद 70 वर्ष से
स्थायी है। संविधान निर्माताओं ने ही इसे अस्थाई उपबंध कहा था, लेकिन वोट
राजनीति के कारण तथ्यपरक संवाद नहीं हुआ। सुरक्षा बलों के शौर्य पर भी प्रश्न उठाए
गए। भारत दुनिया का अकेला देश है जहां राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न पर भी
संवादपूर्ण एकजुटता नहीं है। असम से अवैध विदेशी नागरिकों को निकालने की समस्या
बड़ी है। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने भी विदेशी घुसपैठ को आक्रमण बताया था।
सरकार प्रतिबद्ध है,
लेकिन
दूसरा पक्ष अपने आग्रह पर है। आखिरकार राष्ट्र की अस्मिता, एकता और
अखंडता के प्रश्नों पर भी संवादहीनता क्यों है?
ऐसे
दुराग्रहों के कारण क्या हैं?
क्या
राजनीति राष्ट्र से बड़ी है?
यदि एक
पक्ष यही मानता है तो राजनीति की सवरेपरिता के मुद्दे पर भी वाद-विवाद संवाद क्यों
नहीं?
भाषा संवाद का माध्यम है। राजभाषा हंिदूी राष्ट्रीय संवाद का सवरेपरि
माध्यम है। तमिलनाडु में राष्ट्रीय राजमार्गो पर राजभाषा एवं क्षेत्रीय भाषाओं के
नाम पट्ट लगाए गए थे,
लेकिन
राजभाषा के विरोध में बवाल हो गया। कुछ दिन पहले केंद्र सरकार के कार्यालयों के
हंिदूी नाम पट्ट पोते गए। आखिरकार विदेशी अंग्रेजी से मोह और राजभाषा के प्रचंड
विरोध पर संवाद क्यों नहीं हो सकता?
सभी भारतीय
भाषाएं इसी भारत भूमि का प्रसाद हैं। राजभाषा हंिदूी से तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि
की कोई शत्रुता नहीं है। सभी भाषाओं के संवर्धन एवं विकास के साथ हंिदूी को
राजभाषा स्वीकार करने का प्रश्न भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है। भाषा संस्कृति
की मुख्य संवाहक है। संवाद भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के पुनबरेध का एकमेव उपकरण
है। भारत का संपूर्ण इतिहास सभा,
समिति, गोष्ठी, शास्त्रर्थ, प्रश्नोत्तर
और वाद-विवाद संवाद से भरा पूरा है,
लेकिन
आधुनिक भारत में राष्ट्रीय चुनौतियों एवं व्यापक लोकहित के प्रश्नों पर भी
उद्देश्यपरक संवाद का अभाव है। राष्ट्रीय एकता के प्रश्न भी उपेक्षित हैं।
संविधान निर्माताओं ने वाद-विवाद संवाद की तमाम संस्थाएं बनाई हैं। यहां
द्विसदनीय संसद है। दोनों सदनों में पीछे काफी समय से गतिरोध रहा है। सुखद है कि
इस लोकसभा में उत्पादक काम बढ़ा है,
लेकिन
राज्य विधानमंडलों की स्थिति चिंताजनक है। संवाद से चलने वाले अनेक बहुसदस्यीय
आयोग हैं। मंत्रिपरिषदें हैं। न्यायालय वाद-प्रतिवाद और संवाद के केंद्र हैं।
पंचायत एवं ग्राम सभाएं हैं। संविधान निर्माता संवाद के फायदों से सुपरिचित थे।
उनके सामने तमाम देशों के संविधान एवं संवाद की जनप्रतिनिधि संस्थाओं के प्रारूप
थे। ऋग्वैदिक काल की सभा एवं समिति के उद्धरण थे। प्राचीन ज्ञान का विकास
वाद-विवाद संवाद से हुआ था। स्वयं से असहमत होकर सर्वमान्य को स्वीकार करने का
साहस संवाद है। ऐसा संवाद द्वंद्ववाद नहीं भारत का अद्वैतवाद है। संवाद में
संपूर्ण मानवता का लोकमंगल है।