नए भारत की संकल्पना वाले नई शिक्षा नीति के दस्तावेज का कार्यान्वयन आसान
नहीं। इसलिए और नहीं, क्योंकि यदि आइआइएम, आइआइएससी बेंगलुरु और आइआइटी जैसे चुनिंदा सुरम्य द्वीपों को छोड़ दें
जिन्हें अपने ढंग से जीने की छूट है तो अधिकांश शिक्षा केंद्र मरुस्थल हुए जा रहे
हैं। निरंतर उपेक्षा के कारण सरकारी शिक्षा व्यवस्था की बढ़ती मुश्किलों के चलते
शिक्षा एक चक्रव्यूह में फंसी हुई है जिसे उबारना जरूरी है। शिक्षा नीति के रूप
में जो अवसर मिला है उसका देश हित में लाभ लेने के लिए कुछ मूलभूत व्यवस्थाएं करनी
होंगी। व्यावहारिक स्तर पर जिन समस्याओं से भारतीय शिक्षा व्यवस्था आज जूझ रही है
उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से सर्वप्रथम शिक्षा के निजीकरण की
नीति पर ध्यान देना होगा। आज निजीकरण बेलगाम विस्तार पाता जा रहा है। निजी क्षेत्र
की शिक्षा संस्थाएं पूर्व प्राइमरी से लेकर उच्च स्तर तक निरंकुश भाव से फैलती जा
रही हैं। इनमें से अधिकांश प्रतिष्ठित व्यवसाय की तर्ज पर चल रही हैं जिनके मालिक
पैसे वाले और राजनीतिक रूप से रसूखदार होते हैं। शिक्षा जगत के माफिया बने ये
संस्थान जिस तरह अधिकार जमा रहे हैं और शिक्षा संस्थाओं की श्रृंखलाएं संचालित कर
रहे हैं वह शिक्षा की एक प्रतिसंस्कृति को जन्म दे रही है। इनमें मनमानी दर पर फीस
उगाही जाती है और शिक्षा की गुणवत्ता के साथ हर तरह के समझौते किए जाते हैं। विगत
वर्षो में यह धंधा बड़ा ही लोकप्रिय और कामयाब हुआ है। यह एक नीतिगत प्रश्न है कि
इन संस्थाओं को किस तरह की और कितनी छूट दी जाए। प्रवेश, पाठ्यक्रम, परीक्षा और प्रमाण
पत्र जारी करने में इन संस्थाओं को मिली छूट शिक्षा के क्षेत्र में वर्गभेद और
विषमताएं पैदा कर रही है। उनकी गुणवत्ता को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। ऐसे में
निजी शिक्षा संस्थाओं के लिए प्रभावी नियामक और निगरानी की व्यवस्था की सख्त जरूरत
है।
चूंकि सरकारी संस्थान थोड़े हैं और उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र भी सीमित
होते हैं तो उनमें छात्रों का प्रवेश सीमित संख्या में ही हो पाता है। वहां बड़ी
कठिन प्रतिद्वंद्विता है। आरक्षण आदि के कायदे कानून को लागू करने के कारण इनमें
सामान्य छात्रों का प्रवेश और भी कठिन हो जाता है। आज दिल्ली के कालेजों में 90 प्रतिशत
अंक भी प्रवेश की गारंटी नहीं है। ऐसे में विद्यार्थियों और उनकेपालकों को तरह-तरह
की असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। सरकारी संस्थानों की कमी के कारण लाचार
विद्यार्थियों को हारकर निजी संस्थाओं का रुख करना पड़ता है। महंगी और कम गुणवत्ता
के बावजूद भी बच्चों को निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश दिलाना मजबूरी हो जाती
है। इसलिए सरकारी शिक्षा संस्थाओं की सामथ्र्य बढ़ाने के प्रभावी उपाय करने होंगे।
दुर्भाग्य से सरकारी तंत्र लालफीताशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण अधिकांश
संस्थाएं शिथिल होकर अपनी पूरी क्षमता से कार्य करने में अक्षम होती जा रही हैं।
आज प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक सभी संस्थाएं अध्यापकों के भीषण
अकाल से जूझ रही हैं। इसका खामियाजा अध्यापन और परीक्षा समेत समूची शिक्षण
व्यवस्था उठाती आ रही है। छात्रों को अधकचरा प्रशिक्षण मिलता है और वे ज्ञान और
कौशल के अभाव में डिग्री पा रहे हैं। बड़ी संख्या में विज्ञान और तकनीकी विषयों की
पढ़ाई की खानापूरी बिना प्रयोगशाला का मुंह देखे की जा रही है। अन्य विषयों की
स्थिति भी नाजुक है। विद्यार्थी अन्यमनस्क होकर कक्षा में नहीं आ रहे हैं, क्योंकि
अध्ययन और ज्ञानार्जन की संस्कृति विद्या केंद्रों से दूर होती जा रही है। छात्र
परीक्षा आने पर छात्र ‘मेड इजी’ पढ़कर जैसे-तैसे
परीक्षा पास कर लेते हैं। उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन भी बेतरतीब तरीके से होते
हैं।
इस तरह संपूर्ण शैक्षिक परिवेश स्थाई अध्यापकों के अभाव और आवश्यक व्यवस्था
के अभाव में दूषित हो रहा है। साथ ही जो अध्यापक कार्यरत हैं उनकी कार्यदशाओं पर
भी समुचित ध्यान न देने से कार्यसंस्कृति पर बुरा असर पड़ रहा है। केंद्र और राज्य
सरकारों के नीति निर्माताओं को कानूनी और अन्य व्यवधान दूर कर शिक्षा के हर स्तर
पर अविलंब शिक्षकों की भर्ती का काम प्राथमिकता के साथ पूरा करना होगा । साथ ही
अध्यापकीय जीवन के गतिरोधों को दूर करने की प्रभावी व्यवस्था करनी होगी ताकि उसकी
गरिमा बहाल हो सके।
शिक्षा की सुविधाएं बढ़ाने के लिए दूरस्थ शिक्षा प्रणाली शुरू की गई ताकि
दूरदराज के विद्यार्थियों और नौकरीपेशा लोग भी सरलता से शिक्षा प्राप्त कर सकें।
दूरस्थ शिक्षा का भी जिस तरह अनियंत्रित विस्तार हुआ है उससे शिक्षा की गुणवत्ता
को ठेस पहुंच रही है। इसी तरह बिना आवश्यक व्यवस्था के सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए
विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाती रही है,
लेकिन
मात्र कुलपति नियुक्त कर देने और एक कार्यालय बना देने से विश्वविद्यालय नहीं बनता
है। पाठ्यक्रमों की अनुपयुक्तता का आलम यह है कि नेट के लिए भी कोचिंग चाहिए। यह
भी गौरतलब है कि शिक्षा की औपचारिक संस्थागत दुनिया के समानांतर कोचिंग और ट्यूशन
की एक जबरदस्त दुनिया भी बसती गई। इसकी राजधानी बनी कोटा नगरी की कहानी सर्वविदित
है। शिक्षा की अर्थव्यवस्था में कोचिंग क्लास चलाने वाले संस्थानों की आज बहुत
बड़ी हिस्सेदारी हो गई है। शिक्षा जगत में उदासी, अवसाद और आत्महत्या जैसी पीड़ादायी
घटनाएं भी सामने आ रही हैं।
यह जरूरी है कि पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाए जिससे छात्र का लगाव हो। अधिकांश
विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रम में समय-समय पर जरूरी परिवर्तन नहीं कर पाते हैं।
इसका प्रमुख कारण विश्वविद्यालयीय प्रक्रिया की जटिलता और आलस्य है। साथ ही
अकादमिक जगत में व्याप्त परिवर्तन के प्रतिरोध की मानसिकता भी यथास्थितिवाद को
प्रश्रय देती है। राज्य स्तर के विश्वविद्यालयों में शासकीय हस्तक्षेप कुछ अधिक ही
होता है। विभिन्न विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम निर्माण में पूरी स्वायत्तता मिली
हुई है जिससे वे अपनी सुविधानुसार पठन-पाठन करते हैं। परिणामस्वरूप विभिन्न
विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों की तुलना करने पर बड़ा अंतर दिखता है। उनके
छात्रों के ज्ञान के स्तर में बड़ा भेद होता है। स्थानीय जटिलताएं और हस्तक्षेप के
चलते शैक्षिक संस्कृति में मूल्यों का सतत ह्रास चिंता का विषय होता जा रहा है।
प्रचलित पाठ्यक्रमों की पसंद के पीछे लुभावनी नौकरी की संभावना की ही निर्णायक
भूमिका हो रही है। अप्रासंगिक और भारतीय ज्ञान परंपरा से दूर पाठ्यक्रम ऐसे स्नातक
तैयार कर रहा है जो जड़ों से कटे हुए हैं और जिनका मूल्य बोध वैश्विक अर्थात
आर्थिक कसौटियों को ही प्रासंगिक मानता है। शिक्षा भविष्य की तैयारी होती है।
इसलिए उसे नए भारत की संभावनाओं के लिए आधार बनाना ही होगा।