वर्ष 2014
में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रलय ने नई शिक्षा नीति लाने का वादा
किया था। चूंकि पिछली शिक्षा नीति तीन दशक पहले आई थी इसलिए इस घोषणा से पूरे देश
को काफी उम्मीदें थीं। इन उम्मीदों के बीच 2015 में टीएस सुब्रमण्यम
के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया गया। उसने नई शिक्षा नीति का एक
मसौदा पेश किया, लेकिन किसी कारण उसे अनुकूल नहीं पाया और 2016 में एक नई समिति गठित कर उसकी बागडोर अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन
को दी गई। नई सरकार बनते ही समिति की ओर से तैयार नई शिक्षा नीति का मसौदा मंत्रलय
पहुंच गया। नई शिक्षा नीति का मसौदा सार्वजनिक होते ही सारा विवाद भाषा पर
केंद्रित हो गया। इसके चलते प्रस्तावित नीति में अन्य महत्वपूर्ण तथ्य गौण हो गए, जबकि देश के करीब 30 करोड़ छात्र और लगभग
एक करोड़ शिक्षकों के भविष्य का निर्धारण इस नीति के तहत ही होना है। भारत में
सरकारी स्कूल, जो कि संख्या में तीन-चौथाई हैं, में शिक्षकों की
नियुक्ति स्थाई रूप से होती है। इन शिक्षकों पर भविष्य के नागरिकों को बनाने की
जिम्मेदारी तो डाल दी गई है, मगर उनकी उपयुक्त
ट्रेनिंग पर ध्यान नहीं दिया जाता। आज सबसे ज्यादा जरूरी शिक्षकों को भविष्य की
तकनीक की जानकारी देना और उसमें उन्हें माहिर बनाना है।
नई शिक्षा नीति में पहली बार हर वर्ष 50
घंटे की
ट्रेनिंग की बात पर जोर दिया गया है। ऐसी ट्रेनिंग को शिक्षकों तक ले जाने के लिए
तकनीक का प्रयोग किया जा सकता है। इस ट्रेनिंग व्यवस्था को सुचारू और सुदृढ़ बनाने
के लिए जिला स्तर पर शिक्षकों के प्रोत्साहन और सम्मान की व्यवस्था की जा सकती है।
शिक्षकों की ट्रेनिंग आधुनिक विषय जैसे नैनो टेक्नोलॉजी, ऑटोमेशन, मशीन
लर्निग और अंतरिक्ष विज्ञान जैसे विषयों में भी किए जाने की आवश्यकता है। हालांकि
इन नए आयामों को हम बीएड से लेकर मध्य-करियर ट्रेनिंग तक कैसे लेकर जाएंगे, इस संदर्भ
में नई नीति का मसौदा ज्यादा कुछ नहीं कहता। कई अन्य देश इस संदर्भ में आगे बढ़ चुके
हैं। उदाहरण के लिए स्कॉटलैंड में ‘दूसरे
ग्रहों में जीवन’
के बारे
में शिक्षकों और छात्रों दोनों को पाठ्यक्रम के तहत बताया जा रहा है। इसके पीछे
तर्क यह है कि अगले दो दशकों में हम मंगल और अन्य ग्रहों पर मानव सभ्यता को ले
जाएंगे और जो बच्चे आज स्कूलों में हैं वही भविष्य के ‘मंगल
यात्री’ बनेंगे।
ऐसी आशावादी और भविष्य की ओर अग्रसर शैक्षिक सोच यदि 50 लाख की
आबादी वाला स्कॉटलैंड रख सकता है तो फिर भारत को पीछे नहीं रहना चाहिए। हमें
शिक्षा के क्षेत्र में अल्पावधि सेवा के तहत भी शिक्षकों को लाना होगा। भारत में
हर वर्ष 15 लाख नए
इंजीनियर बनते हैं,
जो नौकरी
की तलाश में रहते हैं। इसके साथ ऐसे हजारों विशेषज्ञ हैं जो सीमित समय के लिए
शिक्षा के क्षेत्र में अपनी सेवाएं देने के लिए तत्पर हैं। क्या इस विशाल
अप्रयुक्त प्रतिभा का प्रयोग हम शैक्षिक बदलाव के लिए कर सकते हैं? इसके लिए
आवश्यक है कि हम नई शिक्षा नीति में चार साल तक की अल्पावधि के लिए शिक्षक बनने के
अवसर खोलें जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ और तकनीकी शिक्षा प्राप्त
ग्रेजुएट योगदान दे सकें। ऐसी व्यवस्था को सफल बनाने के लिए हर स्कूल में लगभग एक
तिहाई शिक्षक अल्पावधि व्यवस्था से आने चाहिए,
जिससे
आधुनिक ज्ञान और उद्योग स्तर की टेक्नोलॉजी क्लासरूम तक पहुंचे सके।
यह भी समय की मांग है कि शिक्षा व्यवस्था की संपूर्ण बागडोर शिक्षकों के
हाथों में दी जाए। वर्तमान में एक शिक्षक दो-तीन दशक की सेवाओं के बाद भी अधिकतम
हेड मास्टर या प्रिंसिपल बनने का ही लक्ष्य रख सकता है। नई नीति में भी वरिष्ठ
शिक्षकों को जिला स्तर तक कुछ पद देने की बात कही गई है, परंतु हमें
इससे कहीं आगे जाने की आवश्यकता है। इस पद पर भी वह अपने से बीस साल कम अनुभवी
व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे शासन और नौकरशाही व्यवस्था के अधीन रहेगा। उसे ऐसे
लोगों को अपने कार्य का विवरण देना होगा,
जिनका
स्कूल और क्लासरूम चलाने का अनुभव लगभग नगण्य होता है। शिक्षकों का पाठ्यक्रम
निर्धारित करने में भी योगदान सीमित होता है। कोई भी संस्था प्रगति तब करती है जब
उसका नेतृत्व उस क्षेत्र के विशेषज्ञ करते हैं। इसका उदाहरण हम इसरो, डीआरडीओ, दिल्ली
मेट्रो और अन्य अनेक सफल संस्थाओं में देख सकते हैं। डॉ. कलाम ने अपनी पुस्तक
एडवांटेज इंडिया में इस पहलू पर एक विचार रखा था। हमने भारतीय शैक्षिक सेवा
(आइटीएस) का सुझाव रखा था। इस सेवा के तहत शिक्षा के क्षेत्र में करियर बनाने वाले
प्रतिभाशाली युवाओं तथा शिक्षकों को संपूर्ण शिक्षा प्रणाली की रचना, नियंत्रण
और प्रशासन का उत्तरदायित्व दिया जा सकता है। शिक्षा क्षेत्र के बजट, पाठ्यक्रम, स्कूल
निर्माण तथा सभी उपकरणों की व्यवस्था इन्हीं प्रतिभाशाली शिक्षकों के हाथ में होनी
चाहिए।
आज के समय में हमें पाठ्यक्रम को हर दो वर्ष में संशोधित करने की नीति
बनानी होगी। हर महीने मैं भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आए हजारों छात्रों से
मिलता हूं और वे अक्सर कहते हैं कि विशेषकर गणित और विज्ञान की पढ़ाई ‘उबाऊ’ है। उन्हें
यह समझ में नहीं आता कि कठिन फॉमरूले याद रखने की क्या जरूरत है? क्या
शिक्षा का पैमाना याद्दाश्त है या फिर जटिल समस्याओं का समाधान निकालना? नई शिक्षा
नीति पर अमल करते समय इस सवाल पर विचार करना होगा। क्यों न हम खुली किताब परीक्षा
के तहत छात्रों की परख उनकी समझदारी और अन्वेषण के आधार पर करें। शिक्षा में एक
छात्र को आनंद का अनुभव होना चाहिए,
भय का
नहीं।
यूरोप के कई देशों विशेषकर जर्मनी से हम व्यावसायिक शिक्षा को स्कूलों में
लागू करने के बारे में सीख सकते हैं। हमें याद रखना है कि स्कूलों को सिर्फ
इंजीनियर और डॉक्टर ही नहीं,
बल्कि
वैश्विक स्तर के कारपेंटर,
प्लंबर, इलेक्टिशियन
और अन्य प्रकार के नागरिक देश और दुनिया के लिए बनाने हैं। इसके अलावा हर एक स्कूल
के पास छात्रों के करियर प्लानिंग की सुविधा देने वाले केंद्र होने भी आवश्यक हैं, जिससे
प्रतिभा, अवसर और
रुचि के हिसाब से छोटी उम्र से ही छात्र और उनके अभिभावक भविष्य के लक्ष्य
निर्धारित कर सकें। चूंकि शिक्षा और स्कूल एक समृद्ध भारत का प्रवेश द्वार हैं
इसीलिए इस क्षेत्र पर हमारा अधिकतम ध्यान देना आवश्यक है। इस प्रकार से नई शिक्षा
नीति भारत के भविष्य का कर्णधार बन सकती है।