Wednesday, June 5, 2019

विश्व पर्यावरण दिवस: वक्त के साथ क्या हुए दुनिया में, आगे क्या हैं खतरे



दुनियाभर में हर साल विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को मनाया जाता है। इस दिन हर साल पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन और विकास का संकल्प लिया जाता है। लेकिन इनपर उतना अमल नहीं किया जाता जितना किया जाना चाहिए। 

आज के समय में जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, विकरणीय प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, समुद्रीय प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, नगरीय प्रदूषण, प्रदूषित नदियां,  जलवायु बदलाव, और ग्लोबल वार्मिंग का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसी हालत में हमें इतिहास की चेतावनी ही पर्यावरण दिवस का संदेश देती है। चलिए जानते हैं कि पर्यावरण को पहुंचाए जा रहे नुकसान से दुनिया में क्या बदलाव आए हैं और इससे आगे चलकर क्या खतरे हो सकते हैं-

दुनिया के लिए बड़ा खतरा बनती जा रही ग्लोबल वार्मिंग बीते 100 सालों में कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही है। नासा की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि साल 2018 में ग्लोबल वार्मिंग ने लगातार नया रिकॉर्ड कायम किया है। 

अध्ययन में सामने आया है कि बीते 100 सालों के बीच चाहे जितने भी प्रयास क्यों न किए गए हों, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग में कोई कमी नहीं आई है। 

अध्ययन में पता चला है कि 19वीं शाताब्दी के बाद से सतह के औसत तापमान में 2 डिग्री फारेनहाइट की वृद्धि हुई है। वहीं बीते 35 सालों में सतह की गर्माहट भी बढ़ी है, जिसका सीधा असर मौसम में हो रहे बदलाव के तौर पर देखा जा सकता है। माना जा रहा है कि साल 2100 तक दुनिया के औसत तापमान में डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्धि होगी। जो इस वक्त 15 डिग्री सेंटीग्रेड है।

बढ़ते तापमान के कारण हिमखंड पिघल रहे हैं, जिससे समुद्री जल स्तर बढ़ता जा रहा है। इससे बाढ़ का खतरा तो बढ़ ही रहा है साथ ही समुद्री पानी भी गर्म हो रहा है। जो समुद्री जीवों के लिए जानलेवा है। ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर ऐसे ही समुद्री जल का स्तर बढ़ता रहा तो इस शाताब्दी तक दुनियाभर में सागरों का जल 30 सेंटीमीटर तक ऊपर आ सकता है। 

खोजकर्ताओं ने पाया कि साल 1870 से 2004 के बीच समुद्री जल के स्तर में 19.5 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है। आने वाले 50 सालों में ये गति और अधिक बढ़ जाएगी। बता दें इस अध्ययन के निष्कर्षों को विज्ञान जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित किया गया है। वहीं इससे जुड़ा एक चौंकाने वाला खुलासा अंतर्देशीय पैनल की एक रिपोर्ट में किया गया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 1990 से 2100 के बीच समुद्री जल का स्तर 9 सेंटीमीटर से 88 सेंटीमीटर के बीच बढ़ सकता है। 

समुद्र के बढ़ते जल स्तर का खतरा केवल बाढ़ आने तक ही सीमित नहीं रहेगा। बल्कि इससे द्वीपों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। जल का स्तर बढ़ने से जमीन के लगातार डूबते जाने का खतरा होगा। इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में पानी का खारापन भी बढ़ जाएगा। जो तटीय भूमि, तटीय जैव संपदा और वहां के पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ सकता है। जिसके कारण लोगों को अपना आवास मजबूरन छोड़ना पड़ेगा।

ग्लोबल वार्मिंग से कई अमेरिकी, यूरोपीय और एशियाई देशों में अधिक वर्षा हो रही है। वहीं कई इलाके ऐसे भी हैं जिन्हें सूखे का सामना करना पड़ रहा है। अगर हम भारत की बात करें तो यहां भी बीते एक दशक में बर्फबारी, सूखा, बाढ़ और गर्मी बढ़ी है। इसी कारण से बीते 15 सालों में दिल्ली सहित अन्य मैदानी इलाकों में अधिक बारिश हुई है। वहीं उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में असामान्य बर्फबारी बढ़ी है।

अंटार्कटिका के तापमान में बीते 100 सालों में दो गुना अधिक वृद्धि हुई है। जिससे इसके बर्फीले क्षेत्रफल में कमी आई है। अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च के एक अध्ययन में कहा गया है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग ऐसे ही जारी रही तो उत्तर ध्रुवीय समुद्र में साल 2040 तक बर्फ दिखनी ही बंद हो जाएगी।

तब ये इलाका एक समुद्र में तब्दील हो चुका होगा। इस बर्फ की चादर के कम होने का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा और वहां के तापमान में वृद्धि होगी। वैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि अगर यहां की सारी बर्फ पिघल गई तो समुद्र का स्तर 230 फीट तक बढ़ जाएगा, जिससे पूरी पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी।

तापमान बढ़ने से कई तरह की बीमारियां बढ़ रही हैं। इसका एक कारण ये भी है कि ऐसा होने से साफ जल की कमी होती जा रही है, तेजी से शुद्ध हवा खत्म हो रही है, लोगों को ताजा फल और सब्जियां भी नहीं मिल पा रही हैं। इससे पशु पक्षियों को पलायन करना बढ़ रहा है और इनमें से कई प्रजातियां या तो लुप्त हो चुकी हैं, या फिर लुप्त होने की कगार पर हैं।

हम आए दिन सुनते हैं कि पर्यावरण को होने वाले नुकसान से हर साल तापमान में वृद्धि होती जा रही है। अगर ऐसा है, तो सर्दियों के समय में ऐसी खबरें क्यों आती हैं कि अधिक सर्दी से फलाना साल का रिकॉर्ड टूट गया है।

ये सवाल हर किसी के मन में आता है। इसका जवाब छिपा है जलवायु और मौसम के बीच अंतर में। लंबी अवधि में वातावरण में जो कुछ हो रहा है, उस स्थिति को जलवायु कहा जाता है। वहीं किसी छोटी अवधि में वातावरण में जो हो रहा है, उसे मौसम कहते हैं। मौसम निश्चित समय अंतराल पर बदलता रहता है। कुछ समय तक सर्दी रहती है तो कुछ समय तक गर्मी। वहीं जलवायु वातावरण का एक समग्र रूप है।

अगर आंकड़ों के सहारे हम इसे समझें तो दिसंबर 2017 में जब अमेरिका का कुछ हिस्सा औसत से 15 से 30 डिग्री फारेनहाइट तक ज्यादा सर्द था, उसी वक्त दुनिया 1979 से 2000 के बीच औसत से 0.9 डिग्री फारेनहाइट ज्यादा गर्म थी।  

एक अध्ययन के अनुसार 1950 के दशक में अमेरिका में सबसे गर्म और सबसे ठंडे दिनों की संख्या लगभग बराबर थी। वहीं 2000 के दशक में सबसे गर्म दिनों की संख्या ठंडे दिनों से दोगुनी हो गई। इसका मतलब ये है कि सर्दी तो कड़ाके की पड़ रही है, लेकिन सर्द दिनों की संख्या कम होती जा रही है। 

बीते साल 210 विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2100 तक पूर्वोत्तर के ग्लेशियर समाप्त हो सकते हैं। इसमें कहा गया था कि इस सदी के अंत तक हिंदू कुश पर्वतों के एक तिहाई से भी अधिक ग्लेशियर पिघल जाएंगे। इस माउंटेन रेंज को एशिया का वाटर टावर भी कहा जाता है।

ये सब तब भी हो सकता है जब ग्लोबल वार्मिंग 1.50 सेल्सियस के साथ सबसे अच्छी स्थिति में हो। ये खोज भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र को लेकर चिंता बढ़ाने वाली है।

इस खोज में पता चला है कि पूर्वी हिमालय के ग्लेशियर पूरी तरह से समाप्त हो जाएंगे। अगर ग्लोबल वार्मिंग ऐसे ही अनियंत्रित रही तो करीब 95 फीसदी ग्लेशियर समाप्त हो जाएंगे। अच्छे परिदृश्य (1.50 सेल्सियस वार्मिंग) के बावजूद भी ये क्षेत्र साल 2100 के अंत तक अपने 64 फीसदी ग्लेशियर खो देगा।

द फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार भारत के 49 फीसदी जंगलों पर आगजनी का खतरा है। भारत में जंगलों में आगजनी की समस्या उत्तराखंड से लेकर महाराष्ट्र तक है। द फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक देश में जंगलों में आगजनी की घटनाएं हर साल तेजी से बढ़ती जा रही हैं। 

ग्लोबल फॉरेस्ट द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में आगजनी की घटनाओं में बीते 16 सालों (2003-2017) में 46 फीसदी की वृद्धि हुई है। ये घटनाएं महज दो साल (2015 से 2017) में 15,937 से बढ़कर 35,888 हो गई हैं।  

साल 2017 में जंगलों में आग लगने की सबसे ज्यादा घटनाएं मध्यप्रदेश (4,781), ओडिशा में (4,416) और छत्तीसगढ़ में (4,373) हुईं।

क्या है कारण?

द फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार आगजनी की 90 फीसदी घटनाएं मानवीय गलती के कारण होती हैं। इसका शिकार हर साल 30.7 लाख हेक्टेयर जंगल होते हैं। ये समस्या उत्तराखंड, हिमाचल और घाटी के जंगलों में राष्ट्रीय चिंता का विषय बनी हुई है। वन विभाग की ओर जारी आंकड़े बताते हैं कि देश का 19.27 फीसदी हिस्सा ही जंगलों के हिस्से में आता है। 


साभार 

ensoul

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