Saturday, June 15, 2019

नई शिक्षा नीति: हिन्दी की अनिवार्यता को खत्म करने के पीछे साजिश देख रहे कई सदस्य


नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे से हंिदूी की अनिवार्यता को खत्म किए जाने का विरोध फिलहाल थमता नहीं दिख रहा है। विरोध में उतरे नीति तैयार करने वाली कमेटी के सदस्यों के मुताबिक मसौदे में किए गए बदलाव के पीछे कोई बड़ी साजिश है, क्योंकि दस्तावेजों में जिस हिन्दी को पिछले साठ साल से भी अधिक समय से अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने का जिक्र था, उसे इस नई शिक्षा नीति के मसौदे से चुपचाप गायब कर दिया गया।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने वाली कमेटी के वरिष्ठ सदस्य डॉ. कृष्ण मोहन त्रिपाठी के मुताबिक हिन्दी को अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की सिफारिश पहली बार 1956 में गठित केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने की थी। उसी ने ही त्रिभाषा का भी यह फामरूला दिया था। इसके बाद डॉ. डीएस कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग ने भी त्रिभाषा फामरूले के सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए अनिवार्य रूप से हिन्दी को पढ़ाने की बात कही। हंिदूी को अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने के जिक्र को कभी भी दस्तावेजों से हटाया नहीं गया। जब कि नई शिक्षा नीति में ऐसा किया गया है।
नीति का मसौदा तैयार करने वाली कमेटी के दूसरे सदस्य डॉ. आरएस कुरील के मुताबिक नीति में जो विषय सर्वसम्मति से शामिल किया गया है, उसे बगैर चर्चा के हटाने का कदम किसी साजिश की ओर इशारा करता है।
वैसे भी नीति की किसी सिफारिश को मानने या ना मानने का फैसला सरकार का होता है, लेकिन नीति से ऐसे विषय को कभी भी हटाया नहीं जाता है। उन्होंने कहा कि इसकी जांच होनी चाहिए। यह बदलाव किसकी मर्जी से किया गया है। कमेटी ने मानव संसाधन विकास मंत्री को जो रिपोर्ट सौंपी है, उनमें त्रिभाषा फामरूले के तहत हिन्दी को अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की सिफारिश है।


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