गुरु अमरदास
5 अप्रॅल, 1479 - 1 सितम्बर 1574,
गुरु अमरदास सिक्खों के तीसरे गुरु थे, जो
73 वर्ष की उम्र में गुरु नियुक्त हुए। वे 26 मार्च, 1552 से 1 सितम्बर, 1574 तक गुरु के पद पर आसीन रहे। गुरु अमरदास पंजाब को 22 सिक्ख
प्रांतों में बांटने की अपनी योजना तथा धर्म प्रचारकों को बाहर भेजने के लिए
प्रसिद्ध हुए। वह अपनी बुद्धिमत्ता तथा धर्मपरायणता के लिए बहुत सम्मानित थे।
कहा जाता था कि मुग़ल शंहशाह अकबरउनसे सलाह लेते थे और उनके जाति-निरपेक्ष लंगर में अकबर ने भोजन
ग्रहण किया था। गुरु अमरदास के मार्गदर्शन में गोइंदवाल शहर सिक्ख अध्ययन का
केंद्र बना।
गुरु अमर दास जी सिक्ख पंथ के एक महान् प्रचारक थे। जिन्होंने गुरु नानक जी महाराज के जीवन दर्शन को व उनके द्वारा
स्थापित धार्मिक विचाराधारा को आगे बढाया। तृतीय नानक' गुरु
अमर दास जी का जन्म 5 अप्रैल 1479 अमृतसर के बसरका गाँव में हुआ था।
उनके पिता तेज भान भल्ला जी एवं माता बख्त कौर जी एक सनातनी हिन्दू थे। गुरु अमर दास जी का विवाह माता मंसा
देवी जी से हुआ था। अमरदास की चार संतानें थी।
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का प्रबल विरोध किया। उन्होंने विधवा
विवाह को बढावा दिया और महिलाओं को पर्दा
प्रथा त्यागने के लिए कहा। उन्होंने जन्म, मृत्यु एवं विवाह उत्सवों के लिए सामाजिक रूप से प्रासांगिक जीवन दर्शन को
समाज के समक्ष रखा। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक धरातल पर एक राष्ट्रवादी व
आध्यात्मिक आन्दोलन की छाप छोड़ी। उन्होंने सिक्ख धर्म को हिंदू कुरीतियों से मुक्त किया, अंतर्जातीय विवाहों को
बढ़ावा दिया और विधवाओं के पुनर्विवाह की अनुमति दी। उन्होंने हिंदू सती प्रथा का घोर विरोध किया और अपने अनुयायियों के लिए इस प्रथा को मानना निषिद्ध
कर दिया।
लंगर
परम्परा की नींव
गुरु अमरदास ने समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकाण्डों में फंसे
समाज को सही दिशा दिखाने का प्रयास किया। उन्होंने लोगों को बेहद ही सरल भाषा में समझाया की सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं, सभी
एक ही ईश्वर की संतान हैं, फिर ईश्वर अपनी संतानों में भेद
कैसे कर सकता है। ऐसा नहीं कि उन्होंने यह बातें सिर्फ उपदेशात्मक रुप में कही हों,
उन्होंने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श
बनकर सामाजिक सद्भाव की मिसाल क़ायम की। छूत-अछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के
लिये लंगर परम्परा चलाई,
जहाँ कथित अछूत लोग, जिनके सामीप्य से लोग
बचने की कोशिश करते थे, उन्हीं उच्च जाति वालों के साथ एक
पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। गुरु नानक द्वारा शुरू की गई यह लंगर परम्परा आज भी क़ायम है। लंगर में बिना किसी
भेदभाव के संगत सेवा करती है। गुरु जी ने जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिये एक
परम्परा शुरू की, जहाँ सभी जाति के लोग मिलकर प्रभु आराधना
करते थे। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने हर उस व्यक्ति का आतिथ्य स्वीकार किया,
जो भी उनका प्रेम पूर्वक स्वागत करता था। तत्कालीन सामाजिक परिवेश
में गुरु जी ने अपने क्रांतिकारी क़दमों से एक ऐसे भाईचारे की नींव रखी, जिसके लिये धर्म तथा जाति का भेदभाव बेमानी था।
गुरु अमरदास आरंभ में वैष्णव मत के थे और खेती तथा व्यापार से अपनी जीविका चलाते थे। एक बार इन्हें गुरु नानक का पद सुनने को मिला। उससे प्रभावित होकर
अमरदास सिक्खों के दूसरे गुरु अंगद के पास गए और उनके शिष्य बन गए। गुरु अंगद
ने 1552 में अपने अंतिम समय में इन्हें गुरुपद प्रदान किया।
उस समय अमरदास की उम्र 73 वर्ष की थी। परंतु अगंद के पुत्र
दातू ने इनका अपमान किया।
अमरदास के कुछ पद गुरु ग्रंथ साहब में संग्रहीत हैं। इनकी एक प्रसिद्ध रचना 'आनंद' है, जो उत्सवों में गाई
जाती है। इन्हीं के आदेश पर चौथे गुरु रामदास ने अमृतसर के निकट 'संतोषसर'
नाम का तालाब खुदवाया था, जो अब गुरु अमरदास
के नाम पर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध है।
गुरु अमरदास का निधन 1 सितम्बर, 1574 को अमृतसर में हुआ था।