भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था से आज सभी तबकों को शिकायत है।
शिक्षा के प्रत्यक्ष हितग्राही छात्र और अध्यापक भी शिक्षा में सुधार चाहते हैं, परंतु सुधार की आकांक्षा का
अभिप्राय सबके लिए एक सा नहीं है। पढ़ाई के लिए अवसरों की कमी यानी प्रवेश, शिक्षण की गुणवत्ता का ह्रास, अध्ययन-अध्यापन की
परिस्थितियों में सुधार, रोजगार के अवसरों का अभाव और महंगा
होता शिक्षण-प्रशिक्षण ऐसे खास मुद्दे हैं जिन्हें लेकर वर्षों से चिंता व्यक्त की
जा रही है। इन्हें लेकर सरकारी तंत्र के कामचलाऊ रवैये के कारण छात्रों, अभिभावकों, शिक्षाविदों और नीति-निर्धारकों सभी में
असंतोष है। ऐसी परिस्थितियां कमोबेश केंद्र के साथ ही सभी राज्यों के शिक्षा
संस्थानों में देखी जा सकती हैं। परिसरों में गैर अकादमिक प्रभाव हावी हो रहे हैं।
आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में न केवल निजी संस्थाओं की वृद्धि
हुई है, बल्कि दूर शिक्षा, निजी विश्वविद्यालय, स्ववित्त पोषित कार्यक्रम,
विदेशी संस्थानों के साथ साझेदारी में पाठ्यक्रम आदि भी चल रहे हैं।
इस शैक्षिक कोलाहल में मौलिकता, सृजनशीलता और नवोन्मेष जैसे
सरोकार अनसुने रह जा रहे हैं। जब पश्चिम अंधकार में डूबा था तब भारत में उच्च स्तर
के विश्वविद्यालय थे, परंतु आज दुनिया के शीर्ष संस्थानों की
सूची से भारतीय संस्थान नदारद हैं।
अंग्रेजी राज
में 1857
में सार्वजनिक क्षेत्र में मद्रास, कलकत्ता और
बंबई में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। ये विशुद्ध प्रशासनिक संस्थाएं थीं न कि
शिक्षण संस्थान। लंदन विश्वविद्यालय के संघीय ढांचे की तर्ज पर विश्वविद्यालय का
काम स्थानीय महाविद्यालयों को संबद्धता देना, पाठ्यक्रम
बनवाना, परीक्षा करवाना और डिग्री देना था। जो महाविद्यालय
थे वे भारत के उच्च वर्ग के लोगों को औपनिवेशिक नौकरशाही के लिए तैयार करते थे।
अभिजात वर्ग ही शिक्षा संचालित कर रहा था। भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904
से एकात्मक विश्वविद्यालय की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ, परंतु 1919 में भारत सरकार के एक्ट ने इसे उलटकर
संघीय रूप और प्रांतों की प्रशासन व्यवस्था को बहाल किया। 1921 में राष्ट्रीय सरकार ने शिक्षा के केंद्रीय सलाहकार मंडल (केब) का गठन
किया जो प्रांतीय सरकारों से जुड़े नीतिगत मसलों पर आम सहमति ला सके। अखिल भारतीय
तकनीकी शिक्षा परिषद का गठन 1946 में हुआ।
संविधान शिक्षा का दायित्व मुख्य रूप से राज्यों को सौंपता है।
यद्यपि केंद्र को अवशिष्ट शक्तियों से ताकत दी है। केंद्र को बच्चों के लिए
अनिवार्य शिक्षा, उच्च शिक्षा का संयोजन एवं स्तर का निर्धारण तथा
केंद्रीय अनुदान पाने वाले संस्थानों के साथ ही वैज्ञानिक या तकनीकी संस्थाओं की
जिम्मेदारी दी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी 1964 में
नियामक संस्था के रूप में अस्तित्व में आया। राज्य सरकारों को अनुदान देना शुरू
हुआ जो आधार संरचना के बदले संचालन के लिए था।
सरकार ने
यूजीसी, नैक, एनसीटीई और एनआइसीटी
जैसी संस्थाओं को स्थापित कर नियंत्रित-नियमित करने और निगरानी की प्रणाली बनाई पर
स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। शिक्षा को औद्योगीकरण जैसे नए राष्ट्रीय लक्ष्य से
जोड़ा गया। केंद्र और प्रदेश की सरकारों के बीच अनुदान और नियमन को लेकर मतभेद शुरू
हुए। सामाजिक रूप से समावेशी बनाने के लिए अपेक्षित सुविधा जुटाए बिना छात्र
संख्या बढ़ा दी गई। जनप्रिय कारवाई के तौर पर राज्यों ने उच्च शिक्षा को अधिकाधिक
व्यापक बनाया। निजीकरण को बढ़ावा दिया और व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दिया। अब निरंतर
घटती गुणवत्ता वाली शिक्षा से निकल रहे अधिसंख्य छात्रों के हुजूम से शिक्षा को
बचा पाना थोड़ी सी अच्छी संस्थाओं के बस की बात नहीं। उल्टे वे अपना स्तर बचाए रखने
में नाकामयाब हो रही हैं।
राज्यों के पास आधार संरचना के लिए धनाभाव था। सरकारें नियुक्ति हो
या अकादमिक रीति-नीति सभी पर नियंत्रण जमाती गईं। नीति, वरीयता और कार्यक्रम को निश्चित करने की शक्ति केंद्र सरकार ने अपने हाथ
में ली। वस्तुत: केंद्र और राज्य दोनों ही अपने क्षेत्रों में अधिकाधिक नियंत्रण
की दिशा में आगे बढ़ते गए। फर्क यही था कि केंद्र सरकार ने जहां कम संख्या और
गुणवत्ता पर ध्यान दिया वहीं राज्य स्थानीय राजनीति के प्रभाव में गुणवत्ता की
अनदेखी कर महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाते गए।
इस युवा देश
को ज्ञान की शक्ति से ही आगे बढ़ाया जा सकता है। आज ज्ञान केंद्रित अर्थव्यवस्था
में भागीदारी हेतु वैश्विक और राष्ट्रीय मानकों पर खरे उतर सकें इस उद्देश्य से
युवाओं को कौशल संपन्न बनाने का संकल्प लिया जा रहा है। परिणामोन्मुखी शिक्षा
व्यवस्था हो और रोजगार की संभावना बढ़ाने पर जोर है। इसके लिए पाठ्यक्रम में सुधार, अकादमिक संसाधनों की उपलब्धता, अध्यापन और शोध की
गुणवत्ता में सुधार, प्रौद्योगिकी का उपयोग और समावेश,
वैकल्पिक शिक्षण की पद्धति और पारदर्शी, सतर्क
प्रशासन और प्रबंध उपलब्ध कराना प्रमुख हो गए हैं। ज्ञान के साथ कुशलता, सम्यक दृष्टिकोण और मूल्य भी विकसित होने चाहिए। इनके लिए प्रभावी नियामक
व्यवस्था स्थापित करना अपेक्षित है।
आज सभी प्रमुख देशों के उच्च शिक्षा केद्रों में नियामक संस्थाओं
का दखल कम हो रहा है, परंतु भारत में सरकारी शिकंजा कसता जा रहा है।
बीमार पड़ी उच्च शिक्षा व्यवस्था के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा यूजीसी
के स्थान पर एक उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना का प्रस्ताव है जो गुणवत्ता के
संरक्षण, संवर्धन और निगरानी की व्यवस्था करेगा जबकि शिक्षा
के संसाधन सीधे मंत्रालय के नियंत्रण में रहेंगे। सरकार मानती है कि दोहरी
नौकरशाही की मजबूत जकड़बंदी के बिना शैक्षिक उत्कृष्टता को गति नहीं दी जा सकेगी।
सरकार के मन में उच्च शिक्षा के लिए शायद एनसीईआरटी की तर्ज पर कोई उच्च स्तरीय
व्यवस्था ही विकल्प लगती है। प्रभावी नियामक संस्था के अभाव में उच्च शिक्षा की
साख को बट्टा लगता है। गिरते शिक्षा स्तर को देखते हुए परिवर्तन बेहद जरूरी है,
परंतु उसे शिक्षा जगत की स्वायत्तता की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
आज आधारभूत
सुविधाओं के अभाव के कारण शैक्षिक स्तर में गिरावट आई है। आज उच्च शिक्षा असंगठित
परिवार जैसी हुई जा रही है। नियामक संस्थाओं की भूमिका सहज करने वाली होनी चाहिए।
आज के नियामक तौर- तरीके बड़े जटिल, बहुस्तरीय और समयसाध्य हैं। नीति में अस्थिरता
नहीं होनी चाहिए। उनके द्वारा अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण भ्रम, विलंब और अनुत्साह का माहौल बनता है।
भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर वित्तीय संसाधनों, उपलब्धता और समानता, गुणवत्ता के मानक और
प्रासंगिकता के प्रश्न महत्वपूर्ण हो रहे हैं। इसके लिए सार्वजनिक और निजी दोनों
तरह के निवेश की जरूरत है। बीते दो दशकों में उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र की
भागीदारी बढ़ी है, लेकिन यह विस्तार अव्यवस्थित ही अधिक रहा
है। अपर्याप्त आर्थिक संसाधनों के बिना सार्वजनिक संस्थान और मुनाफा कमाने वाले
निजी संस्थान दोनों उच्च शिक्षा का स्वरूप बिगाड़ रहे हैं। इन समस्याओं का निराकरण
करने पर ही नई संस्था सार्थक सिद्ध होगी।