सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अंतिम फैसला आने
तक अनुसूचित जाति-जनजाति को सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति जारी रखने के अंतरिम
आदेश के बाद केंद्र सरकार इस दिशा में आगे बढ़ सकती है। यानी अब सरकार आरक्षण की
मान्य सीमा में अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों को प्रोन्नति दे सकती है।
समस्या इसलिए आ गई थी कि पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर दिल्ली, बंबई और पंजाब एवं
हरियाणा उच्च न्यायालयों ने अलग-अलग फैसला दिया था तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी।
सबसे अंतिम फैसला अगस्त 2017 का
दिल्ली उच्च न्यायालय का था। इसमें कार्मिंक विभाग के 1997 के प्रोन्नित में
आरक्षण को अनिश्चितकाल तक जारी रखने के ज्ञापन को रद्द कर दिया था। इसने 2006 में सर्वोच्च
न्यायालय के पांच सदस्यीय पीठ के फैसले को आधार बनाया था। इसमें कहा गया था कि
प्रोन्नति में आरक्षण से पहले उनके पिछड़ेपन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े
जुटाने होंगे, आरक्षण
की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा
न हो, क्रीमीलेयर समाप्त
न हो और यह अनिश्चितकाल तक जारी न रहे। हालांकि मई 2017 में न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ की
पीठ ने कह दिया था कि मामले के लंबित रहने तक प्रोन्नति में आरक्षण पर बंदिश नहीं
है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय का ही दो फैसला हो गया था। इससे संभ्रम की स्थिति
पैदा होनी स्वाभाविक थी। केंद्र सरकार इन सारे मामलों को लेकर सर्वोच्च अदालत गई
थी, जिसने एम नागराज
फैसले पर पुनर्विचार करना स्वीकार कर लिया था। यह मामला संविधान पीठ को चला गया
है। किंतु तब तक क्या? इसी
प्रश्न के उत्तर में शीर्ष अदालत ने कहा कि तब तक कानून के अनुसार प्रोन्नति पर
रोक नहीं है। तो पूरा देश सर्वोच्च अदालत के अंतिम फैसले की प्रतीक्षा करेगा।
नौकरियों में आरक्षण के साथ पदोन्नति में आरक्षण बेहद ही संवेदनशील मामला है। एक
पक्ष का कहना है कि किसी को आरक्षण का लाभ एक ही बार मिलना चाहिए। दूसरे पक्ष का
कहना है कि नौकरी मिलने के बाद भी उनके साथ सामान्य श्रेणी के लोगों की तरह
व्यवहार नहीं किया जा सकता। पिछड़ी जातियों के मामले में अगर किसी परिवार का
आरक्षण के कारण जीवन स्तर उपर उठ गया हो तो उसे निश्चय ही सामान्य श्रेणी में आ
जाना चाहिए और उन जातियों के शेष लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए। क्या शीर्ष अदालत
अनुसूचित जाति-जनजाति के मामले में ऐसा कर सकता है? ऐसे कई प्रश्न हैं, जिनका समाधान होना
चाहिए।